बेंगलुरू, कर्नाटक, भारत - ५ दिसंबर २०१५- कल धर्मशाला से दिल्ली पहुँचने के बाद, आज सुबह परम पावन दलाई लामा ने तड़के ही बेंगलुरू के लिए उड़ान भरी। शीघ्र ही हवाई अड्डे पर उतरने के पश्चात तिब्बती प्रतिनिधियों और साथ ही उपाध्यायों के प्रतिनिधिमंडल और वरिष्ठ लामाओं, जिनमें लिंग रिनपोछे शामिल थे, ने उनका स्वागत किया। बेंगलुरू शहर में अपने होटल तक पहुँचने पर उन्होंने सदा की तरह उनका उत्साहपूर्वक स्वागत करने के लिए मार्ग को युवा और वयोवृद्ध तिब्बतियों से पंक्तिबद्ध पाया जबकि नर्तक वेशभूषा में सामने के प्रांगण में प्रदर्शन कर रहे थे।
आज, दसवें तिब्बती महीने के २५वें दिन, जो गदेन ङाछो, चोंखापा के ५९६ वर्ष पूर्व निधन की वर्षगांठ थी, परम पावन उपाध्यायों के एक समूह, पूर्व उपाध्यायों तथा वरिष्ठ भिक्षुओं के साथ प्रार्थना में भाग लेने के लिए सहमत हुए थे। वे 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' नाम के होटल के एक कमरे में जे रिनपोछे के एक थंका के समक्ष बैठे। स्पष्ट सुर में जाप करते हुए उन्होंने चोंखापा की प्रतीत्यसमुत्पाद स्तुति, सुलक्ष्य अवदान और डेपुंग महाविहार के संस्थापक जमयंग छोजे टाशी पलदेन द्वारा रचित उनकी गुह्य जीवनी का पाठ किया और महाकाल, धर्मराज और महाकाली की स्तुतियों के साथ समाप्त किया। आने वाले दिनों में अपनी योजनाओं को समझाने के लिए अंत में रुकते हुए परम पावन ने सलाह दी:
"अब हमें जे रिनपोछे द्वारा निर्धारित उदाहरण का पालन करना चाहिए तथा अष्ट लौकिक चिंताओं के मार्ग से विरत होना चाहिए।"
अपने कमरे में जाते समय भारतीय गाइड्स और स्काउट्स के एक समूह ने परम पावन का अभिनन्दन किया तथा उन्हें स्काउट स्कार्फ प्रस्तुत किया। उन्होंने उनसे कहा कि भविष्य में विश्व एक अधिक शांतिपूर्ण स्थल बनता है अथवा नहीं यह उन जैसे युवाओँ के हाथों में होगा।
मध्याह्न में भोजन के उपरांत जाने माने उद्योगपति अजीम प्रेमजी, जिन्होंने विप्रो को एक व्यापक सफलता दिलाई और जो माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स तथा और अरबपति निवेशक वारेन बफेट द्वारा प्रारंभ किए गए गिविंग प्लेड्ज पहल में हस्ताक्षर करने वाले प्रथम भारतीय थे, के निमंत्रण पर परम पावन भारतीय लोकोपकार पहल की चौथी बैठक में सम्मिलित हुए। आशा से अधिक आए लोगों से परम पावन का परिचय कराते हुए अजीम प्रेमजी ने कहा कि विषय था सहानुभूति और दया और परम पावन को उऩके संबोधन के लिए आमंत्रित किया।
"मैं सदा अपने भाइयों और बहनों का अभिनन्दन करते हुए अपना संबोधऩ शुरू करता हूँ" परम पावन ने प्रारंभ किया। "आधारभूत रूप में हम सब एक ही समान इंसान हैं। हमारा जन्म एक ही तरह से हुआ है और फिर चाहे हम धार्मिक नेता, राजा और रानी या भिखारी और एड्स के रोगी हों, हम सभी एक ही रूप में जाते हैं। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, हमारी अबाधित होने की कामना है और हम सभी को सुख प्राप्त करने का एक जैसा अधिकार है।
"जब हम बच्चों के रूप में छोटे होते हैं तो अप्रतिबंधित होते हैं। जब तक बच्चे स्नेह से घिरे हैं, वे संतुष्ट रहते हैं, वे राष्ट्रीयता, जाति, धर्म या सामाजिक स्थिति की ओर कोई ध्यान नहीं देते। जैसे जैसे हम बड़े होते हैं ये बातें हमारे लिए और अधिक चिंता का विषय बनती हैं, हम अपने तथा अन्य के बीच इन गौण विभिन्नताओं पर और अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं। किसी प्रभावशाली व्यक्ति की ओर देख हम मुस्कुराते हैं परन्तु गणना करते हुए, यह सोचते हुए कि हमें क्या लाभ हो सकता है। बच्चे इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते।"
परम पावन ने मानव निर्मित कई समस्याओं की बात की जिनका हम सामना कर रहे हैं और अपने पूरे जीवन में देखे १९३० के चीन-जापान संघर्ष से वियतनाम युद्ध और आज के अन्य संघर्षों का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि आज के अन्योन्याश्रित, भूमंडलीकृत विश्व, जिसमें हम अभी जी रहे हैं, में यह धारणा कि विरोध पक्ष की सम्पूर्ण पराजय एक ओर की विजय को चिह्नित करेगी, नई वास्तविकता के समक्ष सोचने का पुराना ढंग है। उन्होंने कहा कि हमें एक अन्य दृष्टिकोण खोजना होगा और यह प्रस्तावित किया कि पारस्परिक रूप से सहमत प्राप्त समाधान ढूँढते हुए २१वीं सदी को एक संवाद का युग होना चाहिए।
"मैं इस विचार के विषय में प्रतिबद्ध हूँ कि सभी ७ अरब मनुष्य बराबर हैं और यदि वे सुखी हैं तो मैं सुखी रहूँगा। हमें दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है जो दूसरों के अधिकारों के लिए करुणा और सम्मान से जनित होता है। हमारा धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई को समाप्त करने का एक उत्तरदायित्व है जिस संदर्भ में हमें स्मरण करना होगा कि मनुष्य रूप में हम सभी समान हैं।"
उन्होंने रंगभेद की समाप्ति के बाद, सोवेटो, दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले लोगों के साथ मिलने और उनके नूतन लोकतंत्र के अवसर की सराहना करने की कहानी सुनाई। वे एक शिक्षक की निराशा को सुनकर उदास हुए थे जिसके अनुसार जो गोरों की उपलब्धि थी उसे अश्वेत अफ्रीकी कभी प्राप्त नहीं कर पाएँगे क्योंकि उनके दिमाग निम्न श्रेणी के थे। परम पावन ने उन्हें समझाने के लिए उनके साथ हुए तर्क और उन्हें मनवाने कि ऐसा कोई अंतर नहीं है, कि मनुष्य के रूप में हम समान हैं और उनके द्वारा अनुभव किए गए आश्वासन का वर्णन किया, जबकि अध्यापक ने एक लम्बी सांस भरते हुए स्वीकार किया कि संभवतः हम सभी समान हैं।
परम पावन ने कहा कि निर्धनों की सहायता के लिए धनवानों को शैक्षिक सुविधाएँ तथा उपकरण उपलब्ध कराते हुए अवसर निर्मित करने चाहिए। परन्तु उन्होंने कहा कि बदले में गरीबों को कड़ा परिश्रम करना चाहिए तथा आत्मविश्वास विकसित करना चाहिए। उन्होंने अजीम प्रेमजी का उल्लेख किया:
"वह पहले से ही अपनी शैक्षिक संस्थाओं द्वारा ऐसे व्यावहारिक कदम उठा रहे हैं जबकि मैं केवल बात कर रहा हूँ।"
उन्होंने कहा:
"जब दूसरों के प्रति चिंता का अभाव होता है तो भ्रष्टाचार और शोषण पनपने हैं। इस बात को लेकर आम सहमति बढ़ रही है कि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणालियाँ अपर्याप्त हैं हमें उसे परिवर्तित करने की आवश्यकता है। अतीत में हम नैतिक दिशा निर्देशों और मानवीय मूल्यों के लिए धार्मिक आस्था पर निर्भर थे। एक बहुधार्मिक राष्ट्र के रूप में भारत ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की संरचना की, धर्मनिरपेक्ष इस अर्थ में कि सभी धर्मों का समभाव से सम्मान किया जाए और उन लोगों के विचारों का भी सम्मान किया जाए जिनकी कोई धार्मिक आस्था नहीं है। आज यह बहुत प्रासंगिक है जबकि ७ अरब मनुष्यों में से १ अरब घोषणा करते हैं कि उनकी कोई धार्मिक आस्था नहीं है। उन्हें नैतिक सिद्धांतों की भी आवश्यकता है। अतः हमें नैतिकता में शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के उपाय खोजने की जरूरत है जो वैज्ञानिक निष्कर्षों, सामान्य ज्ञान और सामान्य अनुभव के साथ मेल खाते हों।"
उन्होंने आगे कहाः
"यदि आप ईमानदारी और सच्चाई से अपना जीवन जिएँ तो आप खुले और पारदर्शी होंगे जो विश्वास की ओर ले जाता है। विश्वास मैत्री की ओर ले जाता है। यह ध्यान में रखने योग्य एक महत्वपूर्ण बात है कि मैत्री का आधार विश्वास है धन नहीं। यदि हम सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो सौहार्दता आवश्यक है।"
उन्होंने समझाया कि धर्मनिरपेक्ष बिंदु से नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने के लिए बालवाड़ी से विश्वविद्यालय तक के एक पाठ्यक्रम को तैयार करने के कदम उठाए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस नए वर्ष में जब वह पूरा हो जाएगा तो जो भी इसमें रुचि रखते हैं वे उसे उनके साथ साझा करेंगे। वे पुनः भारत की प्रशंसा की ओर लौटे जो कि एक जीवंत उदाहरण है कि विभिन्न धर्मों, विभिन्न सांस्कृतिक परम्पराओं और विभिन्न भाषाएँ बोलते हुए शांति से एक साथ रह सकते हैं।
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भारत की अंतर्धार्मिक सद्भाव और अहिंसा को बढ़ावा देने की दीर्घकालीन परम्परा के प्रति सराहना करते हुए परम पावन ने प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान की भी प्रशंसा की। उन्होंने घोषित किया कि यह यह अत्यधिक विकसित थी और आज हमें बहुत कुछ सिखा सकती है और सुझाया कि इसका अध्ययन भावनाओं के मानचित्र तक ले जा सकता है जो कि शारीरिक स्वच्छता के साथ मेल खाता हुआ भावनात्मक स्वच्छता में योगदान दे सकेगा। यद्यपि उन्हें लगता है कि कई आधुनिक भारतीय अपनी प्राचीन धरोहर के साथ संपर्क खो चुके हैं, उन्होंने १५वीं सदी के तिब्बती विद्वान को उद्धृत किया कि यद्यपि यह हिम प्रदेश था और तिब्बत अंधकार में था। पर भारत से ज्ञान के आलोक के आने के बाद ही तिब्बत उज्ज्वल बना।
श्रोताओं की ओर से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने गर्व और आत्मविश्वास, जो अहंकार नहीं, के महत्व का उल्लेख किया। इसी तरह उन्होंने सामान्य रूप से अच्छे के लिए अपने सहप्रतिस्पर्धियों के साथ सफलता का उद्देश्य रखते हुए शीर्ष तक पहुँचने की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा जिसमें आप अपने प्रतिस्पर्धियों को पराजित करना चाहते हैं ताकि केवल आप सफल हों, के बीच के अंतर को स्पष्ट किया। एक बार पुनः उन्होंने भय और व्याकुलता को दूर करने के तरीके के रूप में ईमानदारी और सच्चाई की सराहना की।
अंत में कर्म की भूमिका पर टिप्पणी करने के लिए पूछे जाने पर उन्होंने उत्तर दिया कि कर्म का अर्थ कुछ करना है और करुणा से प्रेरित होकर कुछ करना अच्छा है। यह शिकायत करना कि आपके साथ जो होता है वह आपके कर्मों का परिणाम है, मात्र आलस्य है। इसके स्थान पर बुद्ध की सलाह का स्मरण करना कि "आप अपने स्वयं के स्वामी हैं", हम अपने कर्म द्वारा जो होता है उसे परिवर्तित कर सकते हैं।
"जब आप दूसरों की सहायता करें तो सम्मान के कारण ऐसा करें। उन्हें निम्न न समझें। करुणाशील उद्देश्य के साथ मानवता की सेवा करें। धन्यवाद।"