टाशी ल्हुन्पो, बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - दिसम्बर
२७, २०१५ - सामान्य प्रार्थना के सस्वर पाठ के पश्चात आज प्रातः परम पावन
दलाई लामा ने कहा:
"आज हम प्रश्न रखते तथा उत्तर
देते हुए इस ग्रंथ का पठन जारी रखेंगे, जो 'महाबोधिपथक्रम' की विशिष्ट
अंर्तदृष्टि के खंड के साथ संबंधित है।
"बुद्ध ने नैरात्म्य की
शिक्षा दी, एक ऐसा दृष्टिकोण जो उस समय अनसुना था । उन्होंने उसे मार्ग के
अभ्यास के साथ जोड़ा। यदि आप ८००० पंक्तियों वाली प्रज्ञापारिमता
अष्टसहस्रकारिका को अभिसमयलंकार के साथ पढ़ें तो आप समझ पाएँगे कि मार्ग
में विकास करने के लिए इसका किस तरह उपयोग किया जा सकता है। नैरात्म्य की
प्रज्ञा प्रारंभ, मध्य तथा अंत में महत्वपूर्ण है। और इसे शांति,
उत्कृष्टता तथा निर्वाण के स्रोत चार आर्य सत्य के संदर्भ में समझना आवश्यक
है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि सच्चा निरोध भी प्रतीत्य समुत्पाद है।
"चार
आर्य सत्य सभी बौद्ध परम्पराओं के लिए आधारभूत हैं। पर आप चार आर्य सत्य
को भली भाँति उसी समय सिखा सकते हैं जब आप शून्यता को अच्छी तरह से समझें।
नालंदा परम्परा में प्रतीत्य समुत्पाद की वास्तविकता को समझना महत्वपूर्ण
है। प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध में श्रद्धा के विकास का आधार है।
"बुद्ध
द्वारा शून्यता की शिक्षाओं का उद्देश्य क्या था? यह क्या इसलिए कि
विद्वान दिखावा कर सकें कि वे कितने बुद्धिमान थे? वस्तुओं में किसी भी
प्रकार के सार के अभाव को देखना जिस रूप में वे दृश्य हैं, उसके विपरीत है।
जब मैं आपकी ओर देखता हूँ तो आप वहाँ जान पड़ते हैं। जब आप मेरी ओर देखते
हैं तो यहाँ एक बौद्ध भिक्षु जान पड़ता है, प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति
है, कोई ठोस अस्तित्व वाला। पर फिर जब आप उस व्यक्ति को खोजते हैं तो आपको
वह नहीं मिलता। आप एक बौद्ध भिक्षु के शरीर को देख सकते हैं। जब मैं आपसे
बोलता हूँ, आप मेरी आवाज़ सुन सकते हैं। मेरे शरीर और वाक् की गतिविधि को
समझकर आप कुछ विचार कर सकते हैं कि मेरे चित्त में क्या चल रहा है। पर फिर
भी जब आप दलाई लामा का विश्लेषण कर देखें, आप उन्हें नहीं पा सकते। ऐसा
प्रतीत होता है कि वहाँ एक ठोस व्यक्तित्व है, पर सब कुछ शरीर और चित्त के
आधार पर मात्र ज्ञापित हैं।
"आंतरिक हो अथवा बाह्य कुछ भी ठोस रूप
में जैसा दिखाई देता है वैसा अस्तित्व नहीं रखता, हम छोटी सी छोटी वस्तु को
भी वस्तुनिष्ठ तथा मूर्त रूप में देखते हैं। एक गलत धारणा, एक गलत मनोभाव
उत्पन्न होता है।यद्यपि प्रेम और करुणा अनुचित सोच के आधार पर जनित नहीं
होते अपितु उचित सोच के आधार पर होते हैं। सत्वों के दुःख के बारे में
विचार कर, प्रबुद्धता के लिए एक आकांक्षा पैदा कर, उनके हितार्थ बुद्ध बनने
की इच्छा द्वारा हम अपने आत्मपोषण व्यवहार का प्रतिकार करते हैं।
|
"हम
दुख नहीं चाहते, हम सुख की खोज करते हैं और यह हमें उस प्रत्येक से जोड़ता
है जो इसी प्रकार का अनुभव करते हैं। नैरात्म्य बुद्ध की शिक्षाओं का आधार
है। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन इस को व्याख्यायित करता है। बुद्ध ने जो
शिक्षा दी उस पर टिप्पणी करते हुए नागार्जुन ने जो कहा वह हमें
आत्मकेन्द्रितता को रोकने में सहायता करता है। चन्द्रकीर्ति, आर्यदेव,
शांतरक्षित और कमलशील सभी ने माध्यमक के विषय में लिखा। उनकी शून्यता पर
व्याख्याएँ तिब्बत लाई गईं और वे हम तक आई हैं। चीन, कोरिया, जापान और
वियतनाम में हमारे धर्म भाई और बहनें हृदय सूत्र का पाठ करते हैं, जैसा हम
करते हैं, पर हमारे पास व्याख्या है कि इसका क्या अर्थ है, जिसकी समझ हमें
मुक्ति और प्रबुद्धता की ओर ले जा सकती है।"
परम पावन मे समझाया कि
किस प्रकार 'हृदय सूत्र' में 'रूप शून्यता है व शून्यता रूप है।' उन्होंने
कहा कि २५,००० पंक्तियों वाले प्रज्ञा पारमिता सूत्र में हम पढ़ सकते हैं
कि रूप शून्यता द्वारा शून्य नहीं बनता। स्वभाव से रूप शून्य है। जो हेतुओं
पर निर्भर होता है उसकी स्वभावगत सत्ता नहीं होती। जो इसे समझ ले वह
लापरवाह नहीं रहता। उन्होंने कहा कि रूप शून्य है क्योंकि वह प्रतीत्य
समुत्पाद है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि उसका कुछ सार अस्तित्व है, पर यह
वास्तव में वह उस रूप में अस्तित्व नहीं रखता - रूप शून्यता है।
"प्रश्न
यह है कि सांवृतिक रूप में अस्तित्व रखने वाली और उसके संबंध में हमारी
भ्रांति के बीच किस प्रकार अंतर किया जाए। जब हम समझते हैं कि हम किस तरह
अपने आत्म पोषण व्यवहार से चिपके रहते हैं तो हम देखेंगे कि उसका प्रतिकार
करने के लिए हमें दूसरों के प्रति चिंता विकसित करनी होगी। यह समझना लाभकर
होगा कि हमें अपने दोनों आत्म पोषण व्यवहार और आत्मा को लेकर हमारी भ्रांति
का प्रतिकार करने की आवश्यकता है।
"बौद्धों ने एक लम्बे समय पहले कहा
है कि वस्तुओं का एक वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है। इन दिनों हम पाते हैं
कि क्वांटम भौतिकी के वैज्ञानिक यही बात कह रहे हैं। हम स्थायित्व को
पकड़ते हैं पर सब कुछ क्षण क्षण में परिवर्तित होता है। यदि हम छोटे से
छोटे कण का परीक्षण करें तो उसमें गति और परिवर्तन है। मैंने एक
माइक्रोस्कोप के माध्यम से इसे देखा है। बुद्ध की सभी देशनाएँ सत्य द्वय और
चार आर्य सत्य पर आधारित हैं। जब हम 'हृदय सूत्र' का पाठ करते हैं तो हमें
इस पर चिन्तन करना चाहिए कि इसका क्या अर्थ है, यह हमारे चित्त में
शून्यता की समझ के लिए एक विशेष छाप छोड़ेगा।"
|
परम पावन ने समझाया
कि शून्यता की शिक्षा समझने में सरल नहीं है, पर यह प्रयास करने के लायक
है। यही जे चोंखापा ने किया। उन्होंने कहा कि हम उन्हें मंजुश्री के साकार
रूप में संदर्भित कर सकते हैं, पर बेहतर यह होगा कि हम उन्हें मनुष्य रूप
में देखें जिन्होंने जो उन्होंने सीखा था उस पर अध्ययन, चिंतन और ध्यान
साधना की। बुद्ध राज परिवार के राजकुमार रूप में जन्मे थे। पर यह व्यक्ति
जिसने बुद्धत्व प्राप्त की वह इस धरा पर हमारी ही भांति जन्मा था। हम उनके
उदाहरण से प्रेरणा ले सकते हैं।
हमें यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि
वे तथा बाद के गुरु हमसे अलग थे। हम भी बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं।
शून्यता की शिक्षा हमें भयाक्रांत करने के लिए नहीं दी गई अपितु हम जो
अन्यथा इस जीवन के सुख से मोहित हैं, उन्हें प्रेरित करने और आगे ले जाने
के लिए थी।
तत्पश्चात परम पावन ग्रंथ की ओर मुड़े जिसका उन्होंने बिना रुके पाठ किया और केवल इस तरह की टिप्पणियाँ करने के लिए रुके:
"सभी
नकारात्मक भावनाओं में अज्ञान व्याप्त है। वह स्वयं वस्तुओं की वास्तविक
सत्ता को ग्राह्य करता है। चूँकि क्लेश उस अज्ञान के आधार पर ग्राह्यता
रखते हैं, वे अज्ञान के पहलू हैं जो वास्तविक सत्ता को पकड़ते हैं।"
मध्याह्न
में, परम पावन ने वहाँ से प्रारंभ किया जहाँ वे भोजन से पहले रुके थे।
उन्होंने जे रिनपोछे की एक पंक्ति उठाते हुए टिप्पणी की कि पाठ अज्ञान को
भव चक्र के मूल के रूप में पहचान करता है "किसी भी प्रकार का क्लेश युक्त
चित्त जो किसी धर्म को उसकी आंतरिक सत्ता होने के रूप में ग्राह्य करता है,
अज्ञान है।" जब यह पूछा जाता है कि 'मोह और इच्छा का क्या जिसमें वास्तविक
अस्तित्व में ग्राह्यता रखने की भावना है?' तो उत्तर दिया जाता है कि 'जब
मोह वास्तविक अस्तित्व की ग्राह्यता रखता है - वह अज्ञान है।'
४००
छंदों को भी उद्धृत किया जाता है, 'पुनर्जन्म का बीज अज्ञान है।' नागार्जुन
का उद्धरण है 'किसी भी वस्तु का कभी आत्म, अन्य, दोनों या दोनों से नहीं
उत्पादित किए जाने का कोई अर्थ नहीं है।'
परम पावन ने सामान्य से
पहले पढ़ना बंद किया और ऐसा लगा कि मानों वे दिन के लिए पाठ को वहीं
रोकेंगे। उन्होंने जनसमुदाय की ओर देखा और फिर अपनी घड़ी की ओर और कहा, "ओ
आपमें से शायद कुछ जाने की जल्दी में हैं, मैं संभवतः और पंद्रह मिनट
पढ़ूँगा।"