टाशी ल्हुन्पो, बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - २० दिसम्बर २०१५- जब वे दूसरे दिन टाशी ल्हुन्पो पहुँचे और ऊपर की सीढ़ियों के गहरे प्रांगण में पहुँचे तो परम पावन दलाई लामा अपने परिचारकों की ओर मुड़े और बल देते हुए कहा "हमें यहाँ सिंहासन रखना चाहिए।" अतः आज वे मंदिर से होते हुए चले जहाँ बाद में तिब्बत से आए तिब्बतियों ने प्रसन्नता तथा उदासी के मार्मिक भाव सहित उनका स्वागत किया और वहाँ आसन ग्रहण किया जहाँ लोग अधिक से अधिक संख्या में उन्हें देख सकते थे। इस श्रृंखला के प्रमुख प्रेरक लिंग रिनपोछे ने उनके समक्ष तीन बार प्रणाम किया और उन्हें मंडल और प्रबुद्ध काय, वाक् और चित्त की तीन प्रतीक समर्पित किए।
"जैसा मैंने उस दिन कहा था," परम पावन ने टिप्पणी की, "हम ये प्रार्थनाएँ मात्र अपना गला साफ करने के लिए नहीं करते, अपितु अवसर को सार्थक बनाने के लिए करते हैं। तो अब हम शरणगमन और बोधिचित्तोत्पाद का पाठ करेंगे। थेरवाद परम्परानुसार जब बुद्ध २६०० वर्ष पूर्व भारत में प्रकट हुए थे वे करुणाशील और उपाय कुशल थे। उन्होंने उस समय जो शिक्षा दी वह अब एक महत्वपूर्ण परम्परा बन गई है और वह एक महत्वपूर्ण शिक्षक, अहिंसा के एक शिक्षक के रूप में माने जाते हैं। इन दिनों वे लोग जो एक जिज्ञासु, संशयात्मक रुख अपनाते हैं, वे जो बुद्ध ने सिखाया उसमें रुचि लेते हैं।
"यह हमें चित्त की शांति प्राप्त करने में सहायता करता है, विशेषकर उस समय जब हमारे समक्ष समस्याएँ होती हैं। यहाँ तक कि अधार्मिक लोग भी बुद्ध के निर्देश में रुचि लेते हैं। ऐसे लोग हैं जो एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं और दूसरे सांख्य जैन और उनमें बौद्ध हैं जिनका संबंध कार्य कारण से अधिक है। उनका विश्वास है कि यदि आप लोगों के साथ उचित व्यवहार करेंगे तो आप सुखी होंगे, यदि आप उनके साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो आप सुखी न होंगे।
"बुद्ध की शिक्षाओं का मूल प्रतीत्य समुत्पाद की समझ के आधार पर प्रेम व करुणा का विकास है। हममें से कोई भी दुख नहीं चाहता तो यह किस तरह आता है? क्योंकि हम अपने गलत कार्यों के माध्यम से इसका निर्माण करते हैं। इस कारण बुद्ध ने सिखाया, 'बुरा मत करो, गुणों का विकास करो, अपने चित्त को वश में करो।'
"जब तक हम इस भ्रांत विचार के वश में होते हैं कि वस्तुओं की निजी सत्ता है, हम क्लेशों के आधीन होंगे, अपने लिए समस्याएँ निर्मित करने का संकट रखेंगे। बुद्ध ने आगे शिक्षा दी, 'दुःख को जानो, उसके समुदय का प्रहाण करो, उसके पूर्ण निरोध की प्राप्ति करो।' हम मार्ग का अनुसरण करते हुए और नकारात्मक भावनाओं पर काबू पाकर दुख पर काबू पा सकते हैं।"
परम पावन किंचिंत रुके और श्रोतागणों में से हाथ उठाकर बताने के लिए कहा कि उनमें से कौन इन प्रवचनों में पहली बार भाग ले रहा है। कुछ हाथ ऊपर उठे।
"जिस प्रज्ञा पारमिता सूत्र का पाठ हमने अभी किया उसकी शिक्षा गृद्ध कूट पर ऐसे श्रोताओं को दी गई जिनमें देव, अर्ध देव साथ ही मानव भी शामिल थे। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस संवाद की चर्चा इसमें हुई है वह विशुद्ध कर्मों वाले सत्वों के बीच हुई थी। ऐसा भी प्रतीत होता है कि जिस रूप में आज हम गृद्ध कूट को देखते है और सम्मिलित हुए लोगों की संख्या की आशा करते हैं उससे अधिक लोग वहाँ थे।"
परम पावन ने इस विसंगति की तुलना मिलारेपा के जीवन की एक कहानी से की। भारत की अपनी यात्राओं के दौरान उनके शिष्य रेछुंगपा ने काले जादू पर कुछ निर्देश एकत्रित किए। जब वह जलाऊ लकड़ी एकत्रित करने के लिए बाहर गया तो मिलारेपा ने उन्हें देखा और जला दिया। लौटकर और यह देखने पर कि क्या हुआ था रेछुंगपा को क्रोध आया और वे मिलारेपा के साथ झगड़ा करने लगे जिसके उत्तर में मिलारेपा ने आंधी व तूफान का आह्वान किया। रेछुंगपा ने मिलारेपा को उन्हें पुकारते हुए सुना पर पहले वह उन्हें देख न पाए। जब वे उन्हें मिले तो मिलारेपा ने एक याक की सींग के अंदर शरण ली थी और वो भी उनके अपने सामान्य आकार में। उन्होंने रेछुंगपा को सींग के अंदर उनके साथ होने को कहा। परम पावन ने कहा कि जब आप अपने चित्त और ऊर्जा को पूर्ण नियंत्रण में कर लेते हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं।
इसी तरह जब अवलोकितेश्वर और शारिपुत्र के बीच संवाद हुआ तो गृद्ध कूट पर एक बड़ा समूह एकत्रित था। लोग शारिपुत्र को देख पा रहे थे पर अवलोकितेश्वर को नहीं, उन्होंने सोचा होगा कि अर्हत अपने आप से बातें कर रहे थे। यह शिक्षा आम लोगों के लिए उपलब्ध नहीं थी, इसलिए इसे उसी रूप में दर्ज नहीं किया गया और यही कारण है कि कुछ लोग इस पर प्रश्न उठाते हैं कि क्या इसे बुद्ध की शिक्षा माना जा सकता है।
तिब्बत में बौद्ध धर्म के उद्भव का संदर्भ देते हुए परम पावन ने घोषित किया कि राजा ठिसोंग देचेन चीन से शिक्षक ला सकते थे पर उन्होंने भारत की ओर देखा। यह वह समय था जब प्रथम सात तिब्बतियों को भिक्षुओं के रूप में प्रव्रर्जित किया यह देखने के लिए कि तिब्बती किस तरह संवरों का पालन कर सकते हैं। मानव और मावनेतर सत्वों की ओर से बौद्ध धर्म के प्रति विरोध था। समय के साथ विभिन्न उतार-चढ़ाव के बावजूद तिब्बती नालंदा परंपरा, विशेष रूप से तर्क और ज्ञान-मीमांसा की समझ को संरक्षित करने में सफल रहे। इसमें दूसरों के विचारों का खंडन करने, अपने दृष्टिकोण पर बल देने और परिणाम स्वरूप आलोचना के पुर्नखंडन की प्रक्रियाएँ सम्मिलित थीं।
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बाद में जब राजा रलपाचेन की मृत्यु हो गई तो पश्चिमी तिब्बती के राजा, ल्हा-लामा येशे ओ भारत से अतिश को तिब्बत आमंत्रित करना चाहते थे, पर उनका अपहरण कर लिया गया और वे फिरौती के रूप में कैद कर लिए गए। उनके भतीजे जंगछुब ने अतीश को भेंट करने के लिए इकट्ठे किए स्वर्ण को फिरौती के भुगतान के रूप में देने का सुझाव दिया। उनके चाचा इस विषय पर कुछ सुनना नहीं चाहते थे और कहा कि वे तिब्बत में अतिश को आमंत्रित करने के रास्ते में बाधाएँ डालने के स्थान पर अपने प्राण त्यागना पसंद करेंगे।
नगछो लोचावा को विधिवत आमंत्रण हेतु भेजा गया। जब उन्होंने ल्हा-लामा येशे ओ के बलिदान की बात अतीश को बताई तो भारतीय आचार्य ने उत्तर दिया कि वे एक बोधिसत्व रहे होंगे और अस्वीकार करना उचित न होगा। तारा ने भविष्यवाणी की कि तिब्बत जाना अतिश के लिए अच्छा होगा और एक उपासक उनकी सहायता करेगा।
परम पावन ने समझाया कि जंगछुब ओ ने अतीश से कहा कि वे कोई गहन शिक्षा नहीं चाह रहे थे पर कुछ ऐसा जो तिब्बती उपयोग कर सकें। और इस तरह अतिश ने 'बोधिपथ प्रदीप' की रचना की। यह तीन प्रकार के व्यक्तियों के लिए उद्देश्यित है, पर एक ही व्यक्ति एक बार बैठकर भी इसका अभ्यास कर सकता है। परम पावन आगे टिप्पणी की:
"यद्यपि मैं अभी इसकी शिक्षा नहीं देने वाला हूँ पर मैं अपने साथ महापथक्रम की एक प्रति लाया हूँ जो मुझे एक दीर्घायु समर्पण के दौरान चंग में दी गई थी और जो मैं तिब्बत से बाहर लेकर आया।
"मैं प्रायः कहता हूँ कि चूँकि इस बात की सराहना करना महत्वपूर्ण है कि शून्यता संभव है पर हमें प्रवचन शून्यता की व्याख्या के साथ प्रारंभ करना चाहिए। जैसा मैंने 'नालंदा के १७ पंडितों की स्तुति' में लिखा है,
वस्तु की अवस्थिति सत्यद्वय की अर्थ ज्ञान से,
सत्य- चतुष्टय द्वारा भव प्रवृत्ति और निवृत्ति के यथावत् विनिश्चिय से
तर्कपुष्ट श्रद्धा को त्रिशरण में दृढ़ करके
मोक्ष मार्ग मूल में दृढ़ अधिष्ठान हो।
"हम यहाँ १८ पथक्रम ग्रंथों के शिक्षण को पूरा करने के लिए हैं। ५०० पृष्ठ शेष हैं। मैं इन्हें १० दिनों में समाप्त करने का प्रयास करूँगा। हम गत वर्ष ज़ामर पंडित के 'बोधिपथ क्रम' पर रुके थे। अब मैं ११वें दिन पुनः 'विमुक्ति हस्त धारण' प्रारंभ करूँगा जहाँ फाबोंखा अपने श्रोताओं को उनकी प्रेरणा की जाँच करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।"
प्रवचन में नरक, क्षुधाकुल भूत और पशु लोक और उन में जन्म लेने के संकट को समझाया गया।
मध्याह्न भोजनोपरांत लौटने पर परम पावन ने कहा कि खुली हवा में जहाँ वह बैठे थे, ठंडा था पर उन्हें खेद था कि वे उन लोगों के चेहरे स्पष्ट रूप से देख नहीं पा रहे थे, जिन्हें वे संबोधित कर रहे थे। उनमें से अधिकांश लोग एक विशाल शामियाने की छाया में बैठे थे। परम पावन ने पशु लोक की व्याख्या पुनः प्रारंभ की। जब उन्होंने समाप्त किया तो वे ज़ामर पंडित के ग्रंथों और कर्म के एक अनुभाग पर पलटे। दस अकुशल कर्मों के अंत में मिथ्या दृष्टि है। इसे कार्य कारण की उपेक्षा के रूप में समझाया गया जो अज्ञान से उत्पन्न हो सकता है, पर साथ ही क्रोध से भी उकसाया जा सकता है। यह चार आर्य सत्य या त्रिरत्न के अस्तित्व के नकारने को भी आवश्यक बता सकता है।
परम पावन ने थोड़ा जल्दी समाप्त किया और प्रातः जारी रखने का वचन दिया इस आशा के साथ कि सब कुछ दस दिनों में पूरा हो जाएगा।