हुन्सुर, कर्नाटक, भारत - १० दिसम्बर २०१५- प्रातः ७ बजे ग्युमे मंदिर आकर परम पावन दलाई लामा ने आज तड़के ही प्रारंभ कर दिया। उन्होंने गदेन ठि रिनपोछे, शरपा तथा जंगचे छोजे और सक्या ठिज़िन का अभिनन्दन किया।
नमज्ञल विहार के वर्तमान और पूर्व उपाध्यायों और ग्यूमे भिक्षुओं के एक वृन्द के साथ वे अष्टकोणीय मंडल मंडप के समक्ष एक साथ बैठ गए। मंत्राचार्य ने द्रुत गति से पाठ आरंभ किया जब परम पावन द्वारा मध्याह्न में दिए जाने वाले प्रारंभिक गुह्यसमाज अभिषेक के उपक्रमात्मक अनुष्ठानों का आरंभ हुआ। बीच बीच में उनकी घंटियों से विराम पा रही भिक्षुओं के मंत्र पाठ की ध्वनि संभवतः उसी प्रकार की थी जब ६०० वर्ष पूर्व जे चोंखापा ने अपने शिष्यों के साथ इसी अनुष्ठान का आयोजन किया होगा।
कार्यविधियों के समाप्त होने पर १०.३० के आसपास परम पावन का मंदिर के बाहर एक ढके हुए शास्त्रार्थ के प्रांगण में अनुरक्षण किया गया जहाँ २६ वर्ष पूर्व उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के उपलक्ष्य में एक समारोह का आयोजन किया गया था। जनसमुदाय उस समय खड़ा हुआ जब पहले भारतीय और फिर तिब्बती राष्ट्रगान बजाया गया। तत्पश्चात स्नोलैंड विद्यालय के छात्रों ने एक गीत का प्रदर्शन किया जो मूलतः परम पावन के पुरस्कार प्राप्त करने पर रचा गया था।
हुन्सुर में रबज्ञेलिंग तिब्बती समुदाय के प्रतिनिधियों ने परम पावन को उनके नेतृत्व के लिए आभार के एक प्रतीक के रूप में उनके आवास पर दैनिक उपयोग के लिए एक सुनहरा नवनीत दीप प्रस्तुत किया। ग्यूमे उपाध्याय ने इसके साथ का स्तवन पढ़ा। इसके बाद स्नोलैंड के छात्रों और कर्मचारियों ने अमितायु बुद्ध, जो कि अनन्त जीवन के बुद्ध हैं, की एक प्रतिमा प्रस्तुत की।
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कर्नाटक लोक निर्माण मंत्री डॉ एच सी महादेवप्पा ने अंग्रेजी में परम पावन के जीवन और उपलब्धियों का एक लंबा ब्यौरा दिया। इसके बाद हुन्सुर विधायक, एच पी मंजुनाथ ने कन्नड में संबोधन प्रस्तुत किया जिसमें सार रूप में परम पावन के आशीर्वाद की मांग की गई कि भारत के समूचे भू भाग में शांति हो। एक तिब्बती प्रतिनिधि ने स्वीकार किया कि किस प्रकार कर्नाटक सरकार तिब्बती समुदाय के प्रति दयालु तथा अनुकूल रही है। परम पावन दलाई लामा ने उत्तर दिया:
"कर्नाटक सरकार के प्रतिनिधियों, विश्व भर के मेरे मित्रों तथा हुन्सुर रबज्ञेलिंग आवास के सदस्यों, आज की घटनाओं का ग्यूमे के प्रवचन के साथ अच्छा संयोग हुआ है। मैं विशेष रूप से छात्रों को उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए और विशेष रूप से उन वयोवृद्ध महिला को जिन्होंने उन्हें प्रशिक्षित किया है धन्यवाद देना चाहूंगा।
"मैं डॉ महादेवप्पा और श्री मंजुनाथ को कर्नाटक सरकार और जनता को तिब्बतियों के लिए जो दयालुता दिखाई दी है उसके लिए धन्यवाद देना चाहूँगा। कर्नाटक मैसूर राज्य के रूप में जाना जाता था जिसकी राजधानी मैसूर थी। मैं यहाँ १९५६ में आया था जब श्री निजलिंगप्पा, 'कर्नाटक के निर्माता' मुख्यमंत्री थे। वे तिब्बतियों के लिए एक विशेष चिंता रखते थे। १९५९ के बाद जब हम भारत शरणार्थी के रूप में लौट कर आए तब प्रधानमंत्री नेहरू ने यह पूछते हुए राज्य सरकारों को पत्र लिखा कि क्या उनमें से कोई ज़मीन दे सकता है जिस पर तिब्बतियों को आवासित किया जा सके। कर्नाटक ने सबसे अधिक दिया और अब यहाँ ३०,००० तिब्बती रहते हैं।
"मूल ग्रंथों और उनके भाष्यों को कंठस्थ कर उनका अध्ययन तथा शास्त्रार्थ करने की नालंदा परंपरा को ध्यान में रखते हुए कई प्रमुख महाविहारों का यहाँ पुनर्स्थापन हुआ है। इस आधार पर हम महायान और वज्रयान यानों को भी बनाए रखते हैं। बौद्ध धर्म का यह व्यापक अभ्यास विश्व के लिए अनमोल है क्योंकि यह जिस चित्त तथा भावनाओं के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है उससे हर कोई लाभान्वित हो सकता है।
"जब हम शरणार्थियों के रूप में भारत आए तो सरकार और भारत के लोगों ने हमें अपार समर्थन दिया। यहाँ कर्नाटक के मुख्यमंत्री, जो निजलिंगप्पा के बाद आए, वे भी हमारे प्रति दयालु थे। मैं अपनी गहन धन्यवाद व्यक्त करना चाहूँगा।
"नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाना एक सम्मान की बात थी, पर मैं अभी भी शांति और अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध एक साधारण बौद्ध भिक्षु बना रहा हूँ। विगत ३० वर्षों से मैं आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद में भी लगा हुआ हूँ। परिणामस्वरूप मैंने बाहरी विश्व के बारे में बहुत कुछ सीखा है और उन्होंने चित्त, चेतना और भावनाओं के बारे में सीखा है। तिब्बती भाषा वह माध्यम है जो चित्त और बौद्ध दर्शन के इस ज्ञान को सबसे सटीक रूप में व्यक्त करता है।"
परम पावन ने दो कर्नाटक प्रतिनिधियों को उपहार भेंट किया और ग्यूमे के उपाध्याय ने धन्यवाद के शब्द पढ़े और समापन करते हुए कहा:
"परम पावन दलाई लामा दीर्घायु हों और पोताला महल में अपने सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान होने के लिए तिब्बत लौटें।" इस अंतिम कामना के प्रत्युत्तर में तालियों की गड़गड़ाहट गूँजी।
मध्याह्न भोजन के उपरांत मंदिर लौटने पर परम पावन ने चोंखापा के प्रतित्य समुत्पाद पर चोने लामा का भाष्य, जो चोंखापा के पदों को कई अध्यायों में प्रस्तुत करता है, का पठन जारी रखा। उन्होंने गुह्यसमाज अभिषेक हेतु प्रारंभिक अनुष्ठान बाधाओं को दूर करने के लिए एक आनुष्ठानिक रोटी को प्रस्तुत करते हुए किया और कहा:
"कल जब हम 'सुलक्ष्य अवदान' पढ़ रहे थे तो उसमें दो यानों का उल्लेख किया गया है, सूत्रयान और तंत्रयान। पारमितायान पारमिताओं के अभ्यास को हेतुयान के रूप में व्याख्यायित करता है जबकि तंत्र निष्पन्नयान है। ऐतिहासिक रूप से ऐसे लोग हुए हैं जो इस बात को लेकर तर्क करते हैं कि तंत्र बुद्ध के द्वारा शिक्षित किया गया था, परन्तु नागार्जुन व्यापक रूप से लिखा है कि बुद्ध ने तंत्र की शिक्षा दी थी। इसी प्रकार मैत्रेय का 'अभिसमयालंकार' यह तर्क देता है कि बुद्ध मे महायान की शिक्षा दी थी। तंत्र को गुह्य रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि कालचक्र के अपवाद को छोड़कर इसकी शिक्षा सार्वजनिक रूप से नहीं दी जाती। हम बुद्ध की शिक्षाओं को इस तरह विभाजित कर सकते हैं, वे जो कि आम लोगों के लिए थी जैसे चार आर्य सत्य और वे जो विशेष शिष्यों अथवा शिष्यों के वर्गों के लिए थी।
"सूत्रयान की शिक्षाएँ बुद्ध के रूप काय के लिए नहीं हैं, यद्यपि प्रज्ञा शिक्षाएँ प्रज्ञा सत्य काय का हेतु हैं। रूप काय जो अन्य सत्वों की सेवा में है देव योग के मार्ग के परिणाम स्वरूप जनित होती हैं।"
परम पावन ने आगे चेतना के विभिन्न स्तरों पर चर्चा की और बताया कि किस तरह जब हम जागे होते हैं तो ऐन्द्रिक छाप देखने को मिलते हैं। जब हम सोते हैं तो वे समाप्त हो जाते हैं। स्वप्नावस्था में सूक्ष्म चेतना प्रकट होती है और गहन निद्रा में वह और अधिक सूक्ष्म हो जाती है। जब हम बेहोश हो, अचेतन होते हैं तो चित्त और भी अधिक सूक्ष्म होता है, जबकि सबसे सूक्ष्म चेतना मृत्यु के समय प्रकट होती है।
उन्होंने उल्लेख किया कि ऐसी लोगों की घटनाएँ देखने में आई हैं जिनके शरीर का नैदानिक मृत्यु होने के बाद विघटन प्रारंभ नहीं हुआ है। तिब्बती बौद्ध स्पष्टीकरण यह है कि जब तक सूक्ष्मतम चेतना बनी रहती है, शरीर सामंजस्य बनाए रखता है। परम पावन ने कहा कि निर्वासन में आने के बाद हुए वे ऐसे ३० मामलों को जानते हैं जहाँ इस प्रकार हुआ है। उनमें उनके शिक्षक लिंग रिनपोछे जो अवशोषण की अवस्था में १३ दिन रहे और १००वें गदेन ठिपा जो १८ दिनों तक रहे।
उन्होंने समझाया कि कुछ मित्र, जो वैज्ञानिक हैं, ने इस में शोध करने की रुचि दिखाई है और इन अवसरों पर शारीरिक रूप से क्या हो रहा है, उस पर दृष्टि रखने के लिए उपकरण और प्रशिक्षण की व्यवस्था की है। उन्होंने कहा कि यद्यपि कुछ निष्कर्ष हैं, पर अभी वे अधूरे हैं। उन्होंने इसे तांत्रिक अभ्यास में बिन्दु व ऊर्जा की एक अधिक जटिल चर्चा से जोड़ा और उल्लेख किया कि यह गुह्यसमाज तंत्र में सबसे स्पष्ट रूप से समझाया गया है। उन्होंने उल्लेख किया कि जे रिनपोछे के लिए वज्रभैरव मूलभूत अभ्यास था, गुह्यसमाज वास्तविक अभ्यास था जबकि चक्रसंवर वृद्धि प्रदान करता था।
उन्होंने प्रारंभिक प्रक्रियाओं को पूरा किया जिसमें बोधिसत्व संवर देना, कुश घास का वितरण और स्वप्न का पालन करने पर निर्देश देना शामिल था। उन्होंने घोषित किया कि वे कल मूल अभिषेक देंगे जिसे प्रातः प्रारंभ कर मध्याह्न में समाप्त करेंगे।