ब्रिस्बेन, क्वींसलैंड, ऑस्ट्रेलिया - ११ जून २०१५ - आज प्रातः ब्रिस्बेन कन्वेन्शन और प्रदर्शनी केंद्र पहुँचने पर परम पावन दलाई लामा का प्रथम पड़ाव ब्रिस्बेन में निवास कर रहे तिब्बती, भूटान और मंगोलियाई समुदायों के ३०० सदस्यों की एक सभा को संबोधित करना था। उन्होंने उनसे तिब्बत में धर्मराज ठिसोंग देचेन, उपाध्याय शांतरक्षित और आचार्य पद्मसंभव द्वारा नालंदा परम्परा की स्थापना की बात की। यह ऐसी परम्परा थी, जो समूचे हिमालय क्षेत्रों में फैली और १३वीं शताब्दी में इसे डोगोन छोज्ञल फगपा और सक्या पंडित द्वारा मंगोलिया ले जाया गया। बाद में, दूसरे दलाई लामा, सोनम ज्ञाछो मंगोलिया गए और वहाँ उनका निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी योनतेन ज्ञाछो का जन्म वहाँ हुआ जो एक मंगोलियाई नेता के बेटे थे।
"ये घटनाएँ मंगोलिया और तिब्बत के बीच के अनूठे संबंध का संकेत करती हैं," परम पावन ने कहा। "निकट अतीत में, जब मैं पहली बार १९७९ मंगोलिया गया तो तब भी वह साम्यवादी शासन के आधीन था। गदेन विहार के अंदर धर्म की स्वतंत्रता थी, पर उसके बाहर नहीं। मुझे भिक्षुओं द्वारा मेरे लिए दीर्घायु अनुष्ठान करने का स्मरण है, जिसका पाठ उन्होंने तिब्बती में किया। मंडल समर्पण विशेष रूप से बहुत उच्च स्वर में था और मुझे याद है कि मैं बहुत भावुक हो गया था।
"मंगोलों ने गदेन और सेरा में अध्ययन किया, पर अधिकतर डेपुंग गोमंग में। वे अच्छे विद्वान थे और उनमें से कइयों को मैंने अपने स्वयं के अध्ययन सहायकों में देखा।"
उनके द्वारा अनुभव की जा रही स्वतंत्रता की सराहना करते हुए परम पावन ने तिब्बतियों, मंगोलिया और भूटान के लोगों की समान रूप से आधुनिक अध्ययन को उनकी परम्परा के कार्यसाधक ज्ञान के साथ जोड़ने के लिए सराहना की। प्रवचन स्थल की ओर जाते हुए उन्होंने मंच पर अपना स्थान ग्रहण किया और अपने समक्ष २५०० से भी अधिक लोगों का भाइयों और बहनों के रूप में अभिनन्दन कर प्रारंभ किया।
"हम सभी एक मानव परिवार का अंग हैं," उन्होंने उनसे कहा, "हम सभी को एक सुखी जीवन जीने का एक सा अधिकार है। हम सब भावनाओं का अनुभव करते हैं, जिनमें से कुछ हमें आंतरिक शक्ति और आनन्द देते हैं जबकि अन्य भय, क्रोध और घृणा भड़काते हैं। चूँकि हम पीड़ा नहीं चाहते हमें अपनी भावनाओं का मूल्यांकन करना होगा और तय करना होगा कि किसे बढ़ाएँ और किसे त्यागें। हमारी मानवीय बुद्धि हमें यह निर्णय लेने में सक्षम करती है कि कौन से सहायक हैं और कौन से हमारा अहित करते हैं, कुछ ऐसा जो जानवर नहीं कर सकते।"
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उन्होंने 'रत्नावली', 'राजा के लिए रत्नों की माला' पर प्रवचन के अपने उद्देश्य को दोहराया। 'रत्नावली' की रचना नागार्जुन ने सतवाहन वंशज यज्ञश्री सतकरनी के लिए की थी। उन्होंने कहा कि नागार्जुन न केवल एक महान विद्वान और चिकित्सक थे, पर उल्लेखनीय है कि वह एक रसायनविद भी थे। उन्हें एक वैज्ञानिक के रूप में भी लिया जा सकता है, पर वह तीक्ष्ण बुद्धि तथा एक तीव्र चित्त वाले एक अच्छे बौद्ध भिक्षु भी थे। चूँकि यह ग्रंथ मूल रूप से एक राजा को संबोधित किया गया था, तो एक दार्शनिक और धार्मिक सलाह के अतिरिक्त यह सामाजिक कल्याण और अच्छे प्रशासन पर भी टिप्पणी करता है।
परम पावन ने प्रातः सत्र का अधिकांश भाग चार आर्य सत्वों के सोलह गुणों की व्याख्या में लगाया, जिन्हें उन्होंने सभी बौद्ध देशनाओं के आधार के रूप में व्याख्यायित किया। विनय के साथ निर्देश भी प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के अंतर्गत आते हैं, जो सभी बौद्ध परंपराओं में आम है। सत्र के अंत की ओर जाते हुए उन्होंने 'रत्नावली' खोली जो नागार्जुन द्वारा बुद्ध की वंदना के साथ प्रारंभ होता है ः
उस सर्वज्ञ को मैं प्रणाम करता हूँ
जो सभी दोषों से विमुक्त ।
सभी गुणों से अलंकृत हैं
जो सभी सत्वों के एकमात्र बंधु हैं।
मध्याह्न भोजनोपरांत, नागार्जुन से संकेत लेते हुए परम पावन ने अपने श्रोताओं को शील, समाधि तथा प्रज्ञा, जो प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं में आम रूप से समान थी, की चर्या के प्रति सचेत किया। उनमें जो अंतर था वह इस पर था कि क्या उन्होंने स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली आत्मा को स्वीकार किया या फिर बौद्धों की भांति उसे अस्वीकार कर दिया। इसने पुद्गल और धर्म की शून्यता पर एक लम्बी चर्चा को जन्म दिया जो नागार्जुन ने माना कि भयप्रद हो सकती है, पर यथार्थ पर प्रकाश डालती है।
२६
"मैं नहीं हूँ, मैं नहीं होऊँगा
मेरा नहीं है, मेरा नही होगा।
वह बाल बुद्धि को त्रासित करता है
और पंडितों के भय का क्षय करता है।
९९
धर्मों के रूप मात्र नाम है,
आकाश भी मात्र एक नाम है।
तत्वों के बिना रूप कैसे अस्तित्व पाता है?
इसलिए, मात्र नाम का भी अस्तित्व नहीं है।
दिन की व्याख्या के अंत तक पहुँचकर, परम पावन ने टिप्पणी की, कि कल वे बोधिचित्तोत्पाद समझाएँगे।
कन्वेंशन सेंटर से परम पावन शांति के लिए एक बहु-धर्मीय सभा और प्रार्थना में सम्मिलित होने के लिए ब्रिस्बेन के रोमन कैथोलिक कैथेड्रल, सेंट स्टीफन के कैथेड्रल गए। ब्रिस्बेन के आर्चबिशप, परम श्रद्धेय मार्क कोलेरिड्ज ने व्यक्तिगत रूप से उनका स्वागत किया और उनका तथा अन्य प्रतिभागी आध्यात्मिक नेताओं का गिरजाघर के अंदर अनुरक्षण किया। एक खचाखच सभा के समक्ष अपने स्वागत शब्दों में आर्चबिशप ने परम पावन की सराहना करते हुए कहा कि वे विभिन्न संस्कृतियों के साथ बात करने में सक्षम हैं,उन्होंने दुःख जाना है, पर फिर भी सुख फैलाते हैं। उन्होंने कहा:
"मैं आप का स्वागत एक अजनबी के रूप में नहीं अपितु एक मित्र के रूप में करता हूँ। शांति आपके साथ बनी रहे।"
"विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं के सम्मानित नेताओं, भाइयों और बहनों" परम पावन ने प्रारंभ किया। "वास्तव में हम सब एक ही तरह से जन्म लेते हैं और वास्तव में हम एक ही तरह से मरेंगे भी। हम वास्तव में मानव भाई और बहनें हैं। यह मेरे लिए एक महान सम्मान की बात है कि आपने इस पवित्र स्थान में मेरा स्वागत किया। ऐसा भी प्रतीत होता है कि लगभग विश्व के सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं का यहाँ प्रतिनिधित्व है, तो यह कार्यक्रम मेरी प्रतिबद्धताओं में से एक, अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की पुष्टि करता है।
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"पोप जॉन पॉल द्वितीय ने असीसी में जो महान अंतर्धार्मिक सभा बुलाई थी उसमें मुझे आमंत्रित किया था। जैसा हम उस समय समझे थे, हमारी विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के बीच सामंजस्य आवश्यक है, क्योंकि उनमें से हर एक प्रेम, सहिष्णुता और क्षमा का जीवंत स्रोत है। उनके दार्शनिक दृष्टिकोण भिन्न हो सकते हैं, पर वे सभी प्रेम और करुणा का संदेश संप्रेषित करते हैं। प्रेम और स्नेह, विश्वास को बढ़ावा देते हैं और विश्वास मैत्री का आधार है जिसकी हम सबको आवश्यकता होती है क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं। हम इसे खरीद नहीं सकते, यह केवल एक दूसरे के लिए सच्चे स्नेह की अभिव्यक्ति से विकसित होता है।
"इसलिए, हमारी सभी धार्मिक परम्पराएँ, अपने दार्शनिक मतभेदों के बावजूद जो केवल प्रेम के विकास को प्रोत्साहित करने के विभिन्न उपाय हैं, सुखी व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों से प्रारंभ करते हुए, एक सुखी मानवता के निर्माण में योगदान दे सकती हैं। यहाँ २१वीं सदी में हमको कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो हमारी बनायी हैं और जिन्हें हम हल करना है। और हमें एक शांतिपूर्ण विश्व बनाने के लिए सौहार्दता का प्रयोग करना होगा, बल के द्वारा नहीं। बस इतना ही, धन्यवाद।"
कुराबी मस्जिद के इमाम, एसोसिएट प्रोफेसर मुहम्मद अब्दुल्ला अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने ऊपर आए और परम पावन ने उन्हें गले लगा लिया। अब्दुल्ला ने यह कहते हुए कि धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता आज सबसे अधिक है, उन्हें शांति, क्षमा और सहिष्णुता को लेकर उनके शब्दों के लिए धन्यवाद दिया।
"प्रेम, करुणा और क्षमा द्वारा हमें शांति और विश्वास का माहौल बनाना होगा। हमें एक मानवता के रूप में एक साथ काम करना है।"
एक के बाद एक, प्रतिनिधि अवसर को मनाने और प्रार्थना करने के लिए आगे आए। डॉ जेनेट खान ने बहाई परम्परा की ओर से बात की। थेरवाद बौद्ध परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हुए, श्रीलंका के तीन भिक्षुओं, श्रद्धेय पिलिमंथलवे संहिथ थेरो, इहलगोनगमा नंदा थेरो और अलुथगमगोद ज्ञानवीर थेरो ने पालि में शरणगमन के शब्दों का पाठ किया। श्री सुरेन्द्र प्रसाद ने हिंदू परम्परा से अंग्रेजी में एक प्रार्थना व्यक्त करने से पहले संस्कृत श्लोकों का पाठ किया। श्री एरियल हेबर ने यहूदी परम्परा की ओर से प्रार्थना व्यक्त की, जबकि श्रद्धेय छुए शान, महायान बौद्ध परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हुए बोले और चीनी में सस्वर पाठ किया। एसोसिएट प्रोफेसर मुहम्मद अब्दुल्ला ने इस्लामी परंपरा से अरबी और अंग्रेजी में प्रार्थना सुनाई। श्री रणजीत सिंह ने सिख ग्रंथों से प्रार्थना की और गाया। अंत में ब्रिस्बेन के एंगलिकन आर्चबिशप, परम श्रद्धेय डॉ फिलिप एस्पिनल ने अपनी प्रार्थना में शांति के लिए यीशु मसीह का आह्वान किया।
मोंसिगनोर पीटर मेनीलि ने समापन प्रार्थना की और न केवल आध्यात्मिक नेताओं के प्रति, जिन्होंने भाग लिया था, पर नागरिक नेताओं के लिए, जिनमें क्वींसलैंड के राज्यपाल भी थे, के प्रति आभार के शब्द व्यक्त किए।
आध्यात्मिक नेता गिरजाघर के प्रांगण में आए जहाँ वे कई मिनटों तक आपस में िमलते रहे, स्पष्ट रूप से वे एक दूसरे के सान्निध्य का आनंद ले रहे थे, परम पावन के रवाना होने के पश्चात वे भी इधर उधर हो गए।