टाशी ल्हुन्पो, बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - १९ दिसंबर २०१५ - टाशी ल्हुन्पो महाविहार के नूतन सभागार के प्रांगण में सार्वजनिक रूप से एक भव्य उद्घाटन समारोह आयोजित किया गया था। जैसे ही परम पावन सूर्य की आभा में उभरे, तिब्बती ऑपेरा नर्तकों ने टाशी शोपा दीर्घायु नृत्य प्रस्तुत किया। जब टिब्बटेन चिल्डर्न्स विलेज के छात्रों ने तिब्बती राष्ट्रीय गान का वादन किया तो सभी खड़े हो गए।
टाशी ल्हुन्पो के उपाध्याय, कछेन लोबसंग छेतेन ने परम पावन का अवलोकितेश्वर के प्रकट रूप में, गदेन ठि रिनपोछे, शरपा छोजे और जंगचे छोजे, वरिष्ठ लामाओं, अन्य गणमान्य व्यक्तियों और अतिथियों का स्वागत किया। उन्होंने सबका इस औपचारिक उद्घाटन में भाग लेने के लिए आभार व्यक्त किया। उन्होंने समझाया कि तिब्बत में टाशी ल्हुन्पो महाविहार की स्थापना सबसे पहले १४४७ में प्रथम दलाई लामा, गेदुन डुब द्वारा की गई जब वे ५७ वर्ष के थे। गेदुन ज्ञाछो के गेदुन डुब के पुनर्जन्म के रूप में पहचान के बाद उन्हें टाशी ल्हुन्पो में प्रतिष्ठित किया गया। चौथे पंछेन रिनपोछे, लोबसंग ज्ञाछो की देख रेख में महाविहार सूत्र और तंत्र दोनों के अध्ययन के लिए शिक्षा का एक केन्द्र बन गया। परिणामस्वरूप यह केंद्रीय तिब्बत में तिब्बती संस्कृति का एक गढ़ बन गया।
१९७० के दशक में कुछ टाशी ल्हुन्पो भिक्षुओं ने यहाँ बाइलाकुप्पे में इस महाविहार की पुनर्स्थापना की। तब से परम पावन की कृपा के कारण तथा दलाई लामा ट्रस्ट के समर्थन के साथ, टाशी ल्हुन्पो की सभी परम्पराओं को पुनः स्थापित कर दिया गया है। ज्ञलवा कर्मापा भी उनकी रुचि और समर्थन में उदार रहे हैं।
उपाध्याय ने बताया कि नूतन सभागार की मूर्तियों का अभिषेक १३ देव वज्रभैरव के अनुष्ठान के अनुसार गदेन ठि रिनपोछे द्वारा किया गया। उन्होंने यह भी घोषित किया कि दुरात्मा दोलज्ञल के संबंध में टाशी ल्हुन्पो के भिक्षुओं तथा समर्थकों का उसके साथ किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। और तो और भिक्षुओं के वेश में कुछ लोग, खासकर तिब्बत में पंचेन रिनपोछे के नाम पर इस बुरे अभ्यास के प्रचार की मांग कर रहे हैं। उन्होंने कहा, "हम स्पष्ट रूप से उनका विरोध करते हैं।"
उन्होंने आगे कहा कि टाशी ल्हुन्पो मध्यम मार्ग दृष्टिकोण का समर्थन करता है। सभी अतिथियों का आने के लिए धन्यवाद करते हुए, जिसमें से कई विश्व के सुदूर क्षेत्रों से आए हैं, उपाध्याय ने इस कामना के साथ समाप्त किया कि परम पावन दलाई लामा, ११वें पंचेन रिनपोछे गेदुन छोकी ञीमा दीर्घायु व स्वस्थ जीवन जिएँ।
इस वर्ष परम पावन के ८०वें जन्मदिन के अवसर पर और आभार के एक प्रतीक के रूप में महाविहार ने उन्हें ज्ञलवा गेदुन डुब की एक रमणीय चंदन प्रतिमा, एक स्वर्ण मुद्रा और एक शंख का आभूषण प्रस्तुत किया।
अपने भाषण में सिक्योंग लोबसंग सांगे ने अपने सह अतिथियों के प्रति सम्मान व्यक्त किया तथा महाविहार को उसकी पुनर्स्थापना की उपलब्धि और इस नूतन सभागार के निर्माण के लिए बधाई दी। उन्होंने ११वें पंचेन रिनपोछे को श्रद्धांजलि अर्पित की, जो परम पावन द्वारा मान्यता दिए जाने के बाद से दिखाई नहीं दिए हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन उनके रिहाई की मांग के लिए कोई अवसर नहीं छोड़ता। उन्होंने टाशी ल्हुन्पो और हिमालयी क्षेत्र के लोगों के बीच एक दीर्घ काल से आ रहे ऐतिहासिक संबंध की ओर ध्यान आकर्षित किया। अध्यक्ष पेनपा छेरिंग ने भी अपनी बधाई प्रस्तुत की।
अपने संबोधन में गदेन ठि रिनपोछे ने दलाई लामा और पंचेन लामा का संकेत पिता और पुत्र के रूप में दिया। उन्होंने आगे कहा कि ठिजंग रिनपोछे ने डेपुंग लोसेलिंग के शास्त्रार्थ प्रांगण में एक बार टिप्पणी की थी कि जहाँ जहाँ बुद्ध की शिक्षाएँ प्रसरित होंगी वहाँ शांति और सुख होगा और वह परम पावन दलाई लामा पर निर्भर करता है।
चूंकि मुख्य अतिथि कर्नाटक के राज्यपाल के आगमन में विलम्ब था, परम पावन ने जनमानस को सम्बोधित करना प्रारंभ किया। उन्होंने महाविहार के पर्यावरणीय स्थिति और इसके शिक्षा के एक केंद्र रूप की सराहना की। उन्होंने टिप्पणी की कि धर्म के अध्ययन में संलग्न होना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जहाँ बौद्ध धर्म तिब्बत के कोने-कोने में फैला, पर अभी भी जनता बहुत शिक्षित नहीं थी। हिमालयी क्षेत्रों में वे लोगों से मिले हैं जो शरणगमन के लिए शब्द का जाप करते हैं पर वे स्पष्ट रूप से नहीं जानते कि बुद्ध, धर्म और संघ क्या हैं।
|
"चूँकि हमें इस समझ के साथ कि बुद्ध ने क्या शिक्षा दी २१वीं सदी के बौद्ध होने की आवश्यकता है, हमें और अधिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। सभी धार्मिक परंपराएँ अच्छी हैं क्योंकि वे लोगों की सहायता करती हैं। चीन, कोरिया और जापान भी नालंदा परंपरा का अनुपालन करते हैं, परन्तु मात्र तिब्बतियों में ही आप एक कठोर अनुशासनयुक्त और विस्तृत अध्ययन पाएँगे जिसका पालन हम अपने शिक्षण केन्द्रों में करते हैं। अब हमें उस ज्ञान को दूसरों तक संप्रेषित करने के लिए और अधिक सक्षम लोगों की आवश्यकता है। भारत और अन्य स्थानों में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि बढ़ रही है।"
राज्यपाल श्री वजूभाई रुधाभाई वाला का आगमन हुआ और परम पावन उनसे मिलने नीचे गए। दोनों साथ साथ सीढियाँ चढ़े और एक साथ दीप प्रज्जवलित किया। परम पावन ने महाविहार की ओर से राज्यपाल को एक स्मृति चिन्ह प्रस्तुत किया।
"भाइयों और बहनों, मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ," हिंदी में बोलते हुए राज्यपाल ने कहा। "यह बहुत महान सम्मान है। आप सभी को शुभकामनाएँ।
"तिब्बती एक लंबे समय से यहाँ कर्नाटक में हमारे अतिथि रहे है, आपने सुंदर बौद्ध मंदिरों का निर्माण किया है जो रुचि रखने वाले पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। भारत बुद्ध की धरा है और हमारा तिब्बत के साथ राजा सोंगचेन गमपो के बौद्ध धर्म में रुचि लेने के समय से सम्पर्क रहा है। मैं यहाँ भी बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा को देख बहुत खुश हूँ।
"पर साथ ही मुझे खेद है कि पंछेन रिनपोछे यहाँ हमारे साथ नहीं है। परम पावन द्वारा १९९५ में उनकी मान्यता की घोषणा के बाद से ही वे देखे नहीं गए। उनके पूर्ववर्ती, १०वें पंछेन रिनपोछे ने तिब्बत के लोगों के कल्याण के लिए अथक काम किया था।
"मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि हिमालयी क्षेत्रों के कई छात्रों का यहाँ टाशी ल्हुन्पो में स्वागत हुआ है। मैं आपको बताना चाहूँगा कि हम भारतीय सदैव आपके साथ हैं, तिब्बतियों और भारतीयों को एक साथ काम करना है। तिब्बत मुक्त होगा और आपको अपना अहिंसक दृष्टिकोण बनाए रखना है जैसा कि गांधी जी ने हमारे लिए किया था। हिम्मत न हारें, कभी आशा न छोड़ें।"
जब राज्यपाल मुस्कुराते हुए बैठे तो जनमानस ने उनका अभिनन्दन किया और तालियाँ बजाईं। उनके उत्साह भरे वक्तव्य के उत्तर में परम पावन ने महामहिम राज्यपाल, भिक्षुओं और अन्य विशिष्ट अतिथियों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया।
"धर्म मित्रों, मैं आप सबका यहाँ आने के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा। १९६० के दशक में प्रधानमंत्री, पंडित नेहरू ने विभिन्न राज्य सरकारों को पत्र लिखा कि क्या कोई तिब्बतियों को आवासित करने के लिए भूमि प्रदान कर सकता है। सबसे सम्पूर्ण प्रतिक्रिया तत्कालीन मैसूर के राज्य और उसके नेता श्री निजलिंगप्पा से आई। हमने मुंडगोड, कोल्लेगल और यहाँ बाइलाकुप्पे में आवास का कार्य शुरू किया। हम कर्नाटक की दया नहीं भूलेंगे और निजलिंगप्पा को अपनी प्रार्थना में याद करेंगे।
"हमने करुणा तथा अहिंसा की हमारी संस्कृति को एक हजार से अधिक वर्षों से जीवित रखा है और अब इसे जीवंत रखना हमारी प्राथमिकता है। हमने आवासों में विद्यालयों की स्थापना की ताकि तिब्बती बच्चे आधुनिक और तिब्बती दोनों शिक्षा प्राप्त कर सकें। इन वर्षों में परिणाम अच्छे रहे हैं।
"आज तिब्बती बौद्ध धर्म, जिसकी जड़ें नालंदा परम्परा में हैं, सबसे विशद बौद्ध परम्परा है। और यद्यपि बौद्ध धर्म का अभ्यास वास्तव में केवल बौद्धों के लिए रुचि रखता है पर तर्क और ज्ञान-मीमांसा की परम्पराएँ, साथ ही चित्त का विज्ञान, हर किसी के लिए रुचिकर हो सकता है। हमारे शिक्षा के महान केन्द्रों में से कइयों की यहाँ कर्नाटक में पुनर्स्थापना हुई है जिसमें यहाँ बाइलाकुप्पे में सेरा, टाशी ल्हुन्पो और नमडोलिंग महाविहार हैं।
"मैं पुनः राज्यपाल को आज यहाँ आने के लिए और युवा पंछेन रिनपोछे के प्रति आपने जो चिंता व्यक्त की है उसके लिए धन्यवाद कहना चाहूँगा।"
तत्पश्चात कृतज्ञता ज्ञापन के शब्दों की अभिव्यक्ति हुई और सभी अतिथियों को मध्याह्न का भोजन प्रस्तुत किया गया।
भोजनोपरांत नूतन सभागार में पुनः एकत्रित होने पर सत्र प्रार्थनाओं से प्रारंभ हुआ, जिसमें 'प्रज्ञा पारमिता सूत्र' और '१७ नालंदा पंडितों की स्तुति' का सस्वर पाठ शामिल था।
"जब भी हम धर्म प्रवचन देने में अथवा सुनने में लगे हुए हों तो हमारी प्रेरणा शुद्ध होनी चाहिए" परम पावन ने प्रारंभ किया। "शिक्षाएँ दिखावे के लिए नहीं हैं अपितु दूसरों की सहायता के लिए हैं। हमें सीखना है कि अभ्यास में किस प्रकार का व्यवहार करें और अष्ट लौकिक धर्म के साथ उसे मिलाए नहीं। यदि हमारे अभ्यास को धर्म का अभ्यास बनना है तो उसे त्रिरत्न में शरणगमन पर आश्रित होना होगा, जो पवित्र प्रतिमाओं की स्थापना अथवा उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने से कहीं अधिक है। हमारे चित्त को काबू में किया जाना चाहिए। जब हम शरणगमन और बोधिचित्तोत्पाद के पदों का पाठ करते हैं, हमें बुद्ध, धर्म और संघ में शरणागत होने की आवश्यकता है, यह स्मरण रखते हुए कि बुद्ध सत्वों के अकुशल कार्यों को जल से धोते नहीं और न ही उनके दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं। उनकी दया है कि वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।
|
"हम अधिकतर उन्होंने जो देशना दी उसमें शरण लेते हैं, धर्म रत्न, जो सच्चे निरोध, विमुक्ति, दुख से परे की स्थिति को प्रकट करता है। हमें अपने अनियंत्रित चित्त को वश में करने की आवश्यकता है जो कि क्लेशों से भरा हुआ है। इसलिए, मैं बुद्ध की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान के अंधकार को दूर करते हैं।
"आज मैं तर्क और ज्ञान-मीमांसा से संबंधित प्रवचन देने जा रहा हूँ, जो मुख्य रूप से संस्कृत परम्परा से सम्बद्धित है। बुद्ध ने अलग अलग समय पर, अलग-अलग स्थानों में अलग अलग शिक्षाएँ दीं। उनकी देशनाओं में प्रज्ञा पारमिता सूत्रों को शब्दशः लिया जा सकता है, पर अन्य जैसे सन्धिनिर्मोचन सूत्र अंतिम नहीं और व्याख्या के अधीन आते हैं। बुद्ध अपने शिष्य के स्वभावानुसार शिक्षा देने में कुशल व करुणाशील थे। जैसा कि उन्होंने सलाह दी, तर्क तथा कारण का उपयोग हमें यह निर्णय करने में सक्षम करता है कि कौन सी शिक्षाएँ निश्चित हैं और कौन सी अन्तिम हैं।
"धर्मकीर्ति ने तर्क और प्रमाण के सात महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। वे और सक्या पंडित के समान तिब्बती आचार्यों के अन्य ग्रंथ भोट भाषा में उपलब्ध हैं। चीनी परम्परा ने मात्र एक ग्रंथ को संरक्षित किया है जो धर्मकीर्ति द्वारा है।
"मुझे धर्मकीर्ति के प्रमाणवर्तिक कारिका की व्याख्या किन्नौर के एक अच्छे लामा रिगज़िन तेनपा से प्राप्त हुई। लिंग रिनपोछे ने भी मुझे एक रूपरेखा दी। रिगज़िन तेनपा को संचरण एक शरचे गेशे से मिला।
"जे रिनपोछे ने गेदुन डुब को प्रमाण पर केंद्रित रहने हेतु प्रोत्साहित किया, अतः मैंने सोचा कि चूँकि हम टाशी ल्हुन्पो में एकत्रित हुए हैं, मैं इस पर प्रवचना प्रारंभ करूँगा। अब जब मैं यहाँ हूँ, तो मुझे बोधिपथक्रम के ग्रंथो पर प्रवचन को पूरा करना है पर यदि अब हम इसे प्रारंभ करें तो हम इसे एक अन्य समय में पूरा कर सकते हैं।"
परम पावन ने दिङ्नाग के 'प्रमाण समुच्चय' से पढ़ना प्रारंभ किया। फिर वे धर्मकीर्ति के 'प्रमाण वार्तिक कारिका' की ओर मुड़े। यह लेखक के ग्रंथ की रचना करने के निश्चय के प्रारंभ होता है, जिसमें पंक्तियाँ हैं 'मैं ऐसा कोई विचार नहीं रखता कि ग्रंथ किसी भी रूप में लाभकर होगा।' भारत की भाषा और तिब्बत की भाषा में ग्रंथ के शीर्षक का उल्लेख हुआ है, जिसके बाद युवा मंजुश्री के प्रति वंदना है। ग्रंथ में चार अध्याय हैं। इस बिंदु पर परम पावन रुके। कल, बोधिपथ क्रम पर प्रवचन जारी रहेंगे।