बेंगलुरू, कर्नाटक, भारत - ६ दिसंबर २०१५- आज प्रातः बेंगलुरु में परम पावन दलाई लामा कोनसुलर कार्प्स ऑफ कर्नाटक के अतिथि थे। मंच पर उनका स्वागत फ्रांस की अनातोले कुसश्पेता ने किया और समारोह का उद्घाटन करने हेतु दीप प्रज्ज्वलन के लिए आमंत्रित किया। बोस्निया और हर्जेगोविना के राजदूत महामहिम सबित सुबेसिक ने परम पावन का परिचय सभा से करवाया जिनमें लगभग बीस देशों के प्रतिनिधि शामिल थे और उन्हें आशा, उज्ज्वलता, न्याय और मानवता के प्रतीक के रूप में संदर्भित किया। उनके सुस्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करते हुए उन्होंने परम पावन से सभा को संबोधित करने का अनुरोध किया:
"प्रिय भाइयों और बहनों, मैं जब भी लोगों से मिलता हूँ सदैव उन्हें भाई व बहनों के रूप में मानता हूँ। प्राचीन काल में मानवता की एकता का विचार लोग अपने धार्मिक प्रार्थना में करते होंगे परन्तु यह उनके दैनिक जीवन के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं था। आज मानवता की एकता एक जीवंत यथार्थ है। जब हम अपने बीच के गौण अंतर पर बहुत अधिक सोचते हैं जैसे राष्ट्रीयता, आस्था, हम धनवान हैं अथवा निर्धन, शिक्षित हैं अथवा अशिक्षित हैं, तो संघर्ष जन्म लेते हैं। इसके स्थान पर हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम सभी इंसान हैं। हम सभी का जन्म एक माँ से हुआ और उसके दूध से हम पोषित हुए थे। यह स्टालिन और हिटलर की तरह समस्याएँ निर्मित करने वालों के लिए भी सच है। सभी स्नेह की सराहना करते हैं और दूसरों के प्रति स्नेह की अभिव्यक्ति में सक्षम हैं।
"वैज्ञानिकों ने शिशुओं पर प्रयोग किए हैं और स्थापित किया है कि स्पष्टतः उन चित्रों की ओर जिसमें दूसरों की सहायता की जा रही है, उनकी प्रतिक्रिया अनुकूल होती है और वे संकट के चित्रों से विमुख होते हैं। विभिन्न प्रयोगों ने दिखाया है कि निरंतर क्रोध और भय हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को बाधित करते हैं। इन खोजों से वे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव सकारात्मक तथा करुणाशील है, जो मुझे आशा देता है।
"हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनमें से कई अदूरदर्शिता, संकीर्ण दृष्टिकोण की विचारधारा, पक्षपात और पूर्वाग्रह का परिणाम हैं। अर्जेंटीना में एक बैठक में जीवविज्ञानी हुमबर्तो माटुराना, मेरे मित्र फ्रांसिस्को वरेला के संरक्षक, ने समझाया कि यद्यपि उनके अध्ययन का क्षेत्र जीव विज्ञान था, पर यह उचित नहीं कि वह उसके मोह में फँस जाएँ। मैंने भी चिन्तन किया कि मैं एक बौद्ध हूँ पर मुझे बौद्ध धर्म में मोहयुक्त नहीं होना चाहिए जो कि पूर्वाग्रह की भावना को जन्म देगा। आज जो महत्वपूर्ण है वह यह कि सजगता से मानवता की एकता की भावना विकसित करें क्योंकि हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं। यह स्वाभाविक रूप से सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की भावना को जन्म देता है। इस संदर्भ में विश्व में वर्तमान शरणार्थी समस्या को देखते हुए उदासीन रहना अनैतिक होगा।
"आपके विषय 'अर्थव्यवस्था के लिए शांति' में 'शांति' शब्द के संबंध में, मैं उस पर बोल सकता हूँ पर जहाँ तक 'अर्थव्यवस्था' का प्रश्न है, मैं नहीं जानता। हम सब एक मानव परिवार के हैं, को पहचानने के महत्व का एक उदाहरण है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में विचार विमर्श में, हम अब वैश्विक हित के आगे राष्ट्रीय हितों को नहीं डाल सकते। हम संवाद के माध्यम से यदि एक शांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाएँ तभी हम एक और अधिक शांतिपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण विश्व का निर्माण कर सकेंगे।"
यह पूछे जाने पर कि क्या बढ़ती असहिष्णुता का कोई एक समाधान है, परम पावन ने टिप्पणी की कि भारत सदियों के लिए एक बहु-धार्मिक देश रहा है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों में ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष शब्द धर्म के प्रति असम्मान दर्शाता है, पर यहाँ भारत में यह सभी धार्मिक परम्पराओं और उन लोगों के भी विचारों के प्रति भी जिनकी कोई आस्था नहीं है, सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है।
बुद्ध के इस कथन 'अप्प दीपो भव' के अर्थ के विषय में प्रश्न पूछे जाने पर परम पावन ने कहा कि हमें स्मरण रखना है कि हमें शांति और सुख का आनंद लेने का अधिकार है और दोनों का परम स्रोत आंतरिक शांति है।
सुश्री थोराया अल अवधी ने स्वपरिचय देते हुए कहा कि वे संयुक्त अरब अमीरात में दुबई से हैं और उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में परम पावन का समर्थन मांगा। परम पावन ने उनसे कहा कि जब उन्होंने वाशिंगटन डी सी में ११ सितम्बर की घटना की पहली वर्षगांठ स्मारक सेवा में भाग लिया तो उन्होंने मुसलमानों और इस्लाम का बचाव किया था। उन्होंने घोषित किया था कि कुछ मुस्लिम पृष्ठभूमि वाले लोगों द्वारा किए गए गलत कार्य के आधार पर सम्पूर्ण समुदाय का सामान्यीकरण करना काफी गलत था। उन्होंने कहा कि सभ्यताओं के टकराव के रूप में जो हो रहा था उसे देखना खतरनाक था। यूरोप में शरणार्थी संकट के संबंध में उन्होंने अपने विचार दोहराए कि जिस भूमि से वे भागे हैं वहाँ शांति बहाल करने की दिशा में अधिक प्रयास होना चाहिए।
परम पावन ने समझाया कि किस तरह प्रारंभिक मानव समुदायों में शायद ही कोई नेता था पर जब उनके लिए एक आवश्यकता आन पड़ी तो कसौटी शारीरिक बल था जिसके चलते पुरुष चुने गए। आजकल शिक्षा के कारण वह अंतर गौण हो गया है। फिर परम पावन ने कहा कि वे सोचते हैं कि पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भाग लेने वाले, जिनमें अभी लगभग ९०% पुरुष हैं, यदि ५०% महिलाएँ होती तो विश्व और अधिक तेजी से एक सुरक्षित स्थान बन जाएगा।
आगे और विस्तार रूप से बताते हुए उन्होंने सुझाया कि जहाँ पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में सम्मिलित कई लोग जानते थे कि क्या किया जाना चाहिए पर उसे प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। उन्होंने इस बात को ध्यान में रखने की सिफारिश की कि जलवायु परिवर्तन केवल एक वैश्विक मुद्दा नहीं है, पर यह कुछ ऐसा है जो भविष्य की पीढ़ियों, बच्चों और आज के युवा लोगों के पोते पोतियों को प्रभावित करेगा।
इस सुझाव पर कि ऊपर ईश्वर से की गई प्रार्थना से नीचे आशीर्वाद टपकते हैं, परम पावन ने टिप्पणी की ,कि आंतरिक शांति के विकास में प्रार्थना की एक भूमिका है, पर जब विश्व में शांति की बात आती है तो वह अप्रभावी होता है। वहाँ जिस वस्तु की आवश्यकता है वह काम करने की है। आणविक शस्त्रों के बारे में उन्होंने कहा कि विगत वर्ष रोम में हुई नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं की बैठक में उनके वास्तविक प्रयोग से जुड़े भयानक विनाश की एक स्पष्ट रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। बैठक में निश्चय किया गया कि सभी परमाणु हथियारों को कम करने और अंततः उनका उन्मूलन करने हेतु एक समय सारिणी निर्धारित की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि उन्होंने जापान को, जो उनके उपयोग के कट्टर विरोधी थे उस अभियान का नेतृत्व करने हेतु प्रोत्साहित किया था।
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मध्याह्न में परम पावन मोटर गाड़ी से नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (एन आइ ए एस) गए जो वृक्षों और बांस के वन के परिसर में स्थित है। एन आइ ए एस उच्च शिक्षा के एक केंद्र है जो प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, कला और मानविकी में अंतःविषय और बहुविषयी क्षेत्रों के अनुसंधान में रत है और जेआरडी टाटा द्वारा स्थापित किया गया है। एन आइ ए एस के वर्तमान निदेशक, एक वैज्ञानिक और प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ बलदेव राज द्वारा परम पावन का स्वागत किया गया। परम पावन ने एक पौधारोपण किया, जो उनकी यात्रा के एक स्मारक के रूप में रहेगा।
एन आइ ए एस सभागार में डॉ बलदेव राज ने श्रोताओं से परम पावन का परिचय कराया और उनसे प्रथम एन आइ ए एस प्रतिष्ठित अध्येता व्याख्यान देने के अनुरोध करने से पूर्व उन्हें एक पारम्परिक दुशाला प्रस्तुत किया। परम पावन ने यह कहते हुए प्रारंभ किया कि उनके लिए यह एक महान सम्मान की बात थी कि उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया गया।
"मैं प्रायः स्वयं से प्रश्न करता हूँ कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है और निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि जीवन का उद्देश्य सुखी होना है। हमारे पास कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में क्या होगा, पर हम आशा में जीते हैं। यही हमें बनाए रखता है। आम धारणा के विपरीत सुख का परम स्रोत भौतिक वस्तुओं की सम्पदा में नहीं है परन्तु आनन्द की मानसिक अनुभूति में है। कभी कभी ऐन्द्रिक चेतना और मानसिक चेतना के बीच अंतर की अपर्याप्त समझ होती है। भौतिक वस्तुएँ कुछ संतुष्टि प्रदान करती हैं, पर साधारणतया यह अल्पकालीन होती हैं। इस तरह की संतुष्टि व्याकुलता और भय को दूर करने के लिए अल्प रूप से सहायक हैं। दूसरी ओर, मानसिक आनन्द स्वयं में पूर्णता रखता है।"
परम पावन ने बार्सिलोना, स्पेन के निकट मोंटसेराट में एक कैथोलिक भिक्षु के साथ हुई अपनी भेंट की कहानी सुनाई। साधु ने केवल चाय, रोटी और पानी से किंचित अधिक पर जीवित रह पहाड़ों में अकेले ध्यान कर पाँच वर्ष बिताए थे। उसके अभ्यास के बारे में पूछे जाने पर भिक्षु ने उत्तर दिया कि वह प्रेम पर ध्यान करता था और जब उसने यह कहा तो परम पावन ने उसकी आँखों में एक चमक देखी जो उसके आंतरिक आनन्द को स्पष्ट कर रही थी।
"मैं इससे जो निष्कर्ष निकालता हूँ वह यह कि मानसिक अनुभव ऐन्द्रिय अनुभव की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी है। अतः सुखी रहने के लिए हमें आंतरिक शक्ति और आत्म विश्वास की आवश्यकता है। और मुझे लगता है कि सौहार्दता उस आंतरिक शक्ति का स्रोत है।
"इस संदर्भ में प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान अत्यधिक विकसित था, आधुनिक मनोविज्ञान की तुलना में बहुत अधिक। परन्तु आज भारतीय इस परम्परा की ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते, ज्ञान जो हम तिब्बतियों ने संरक्षित और जीवित रखा है। मेरा मानना यह है कि यदि चित्त के इस विज्ञान को आधुनिक शिक्षा में शामिल किया जाए तो यह बहुत लाभकारी होगा।"
सभा की ओर से पूछे गए प्रश्नों में, परम पावन से पूछा गया कि व्यस्त आधुनिक विश्व में ध्यान के लिए आवश्यक एकांत कैसे प्राप्त किया जाए। उन्होंने उत्तर दिया कि यदि वे चाहें तो अधिकांश लोग दिन में एक घंटा या आधा घंटा निकाल सकते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि ध्यान के दो प्रमुख प्रकार के होते हैं। शमथ या एकाग्रता के लिए एक शांत स्थान और एक निश्चित मुद्रा की आवश्यकता होती है परन्तु विपश्यना या विश्लेषणात्मक ध्यान, वस्तुओं के विषय में चिन्तन करना और उनका विश्लेषण करना इस तरह की आवश्यकताओं की मांग नहीं करता।
एक अन्य व्यक्ति जानना चाहता था कि यदि सभी धर्म करुणा तथा क्षमा का एक आम सकारात्मक संदेश देते हैं तो धर्म के नाम पर इतनी बुरी चीजें क्यों हो रही हैं। परम पावन ने उत्तर दिया जब आस्था मोह के साथ मिला दी जाती है तो ऐसा प्रतीत हो सकता है। जब किसी अन्य ने सुझाया कि करुणा तथा क्षमा का अभ्यास आपको किसी अन्य द्वारा लाभ उठाने के लिए खुला छोड़ देता है, उन्होंने कहा कि क्षमा के संबंध में बुरे कार्य तथा उसके कर्ता के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है। सहिष्णुता और क्षमा का अर्थ किसी किए गए गलत कार्य को स्वीकारना नहीं है पर इसमें कर्ता के प्रति करुणा दिखाना शामिल है।
अंत में, आधुनिक विश्व में लोगों के लिए एक संदेश के बारे में पूछे जाने पर, परम पावन ने कहा कि भारत ने दीर्घ काल से अहिंसा और अंतर्धार्मिक सद्भाव की परंपराओं को बनाए रखा है और आज जो महत्वपूर्ण है वह यह कि और अधिक सकारात्मक विकास के लिए इन परंपराओं को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा जाए।
जब यह बात उनके ध्यान में लाई गई कि महान वैज्ञानिक की विधवा श्रीमती राजा रामण्णा, जो एन आइ ए एस की संस्थापक निदेशक भी हैं, सभा में उपस्थित हैं तो परम पावन ने उनसे कहाः
"मैं वास्तव में आपके पति का प्रशंसक था। उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि यद्यपि क्वांटम भौतिकी ज्ञान का एक नए पक्ष का प्रतिनिधित्व करता था, पर उन्हें देखकर प्रसन्नता व आश्चर्य हुआ कि इसके दो हज़ार वर्ष पूर्व इसी प्रकार की अंतर्दृष्टि नागार्जुन के लेखन में थी। उन्होंने मुझसे कहा कि एक भारतीय के रूप में इस बात ने उन्हें गौरवान्वित कर दिया।"