शिलांग, मेघालय, भारत - ५ फरवरी २०१४ - शिलांग में लगभग १००० तिब्बती आवासित हो चुके हैं, जिनमें से पहले चार परिवार १९४७ में यहाँ पहुँचे थे। जब परम पावन दलाई लामा ने आवासीय अधिकारी को आज प्रातः शिलांग में राज्य केन्द्रीय पुस्तकालय में तिब्बतियों के लिए दर्शन के दौरान यह कहते सुना तो वे जानना चाहते थे कि अभी उन परिवारों में से क्या कोई सदस्य वहाँ उपस्थित थे। दो हाथ ऊपर उठे।
आवासीय अधिकारी द्वारा स्थानीय समुदाय के विषय में एक रिपोर्ट पढ़े जाने के पश्चात, जिसमें एक तिब्बती सामुदायिक केन्द्र की भी योजना शामिल थी, परम पावन ने बोलना प्रारंभ किया।
"हमें अब निर्वासन में आए लगभग ५५ वर्ष होने को हैं पर फिर भी मैं यहाँ पहले नहीं आया। इससे पूर्व मुझे अवसर नहीं मिला, पर आज मैं यहाँ हूँ और तिब्बती समुदाय से िमल पा रहा हूँ। यद्यपि कोई औपचारिक आवास नहीं है, पर आपने यहाँ अपने जीवन को जीने के मार्ग ढूँढे हैं। एक बार जब हम निर्वासन में आए तो हम यहाँ एक प्रशासन स्थापित करने में सक्षम हो सके और अब भारत में १००,००० तिब्बती हैं जो अच्छी तरह हैं।"
"जैसा आप जानते हैं, २०११ के बाद से मैंने राजनैतिक उत्तरदायित्व संपूर्ण रूप से एक निर्वाचित नेतृत्व को सौंप दिया है। न केवल मैं सेवानिवृत्त हो चुका हूँ पर मैंने स्वेच्छा से दलाई लामा के लौकिक मामलों में शामिल होने की परम्परा को भी समाप्त कर दिया है। अतीत में लामाओं द्वारा इस तरह के उत्तरदायित्वों को अपने ऊपर लेने की हमारी परम्परा थी, जैसे रडेंग रिनपोछे और तगडग रिनपोछे रीजेंट का उत्तरदायित्व निभा रहे थे। वे महान लामा थे पर जो उनके अधीन काम कर रहे थे वे अपनी शक्ति का अनुचित प्रयोग कर रहे थे। उनमें से कुछ ने अपने पदों का दुरुपयोग किया। जब मैं बच्चा था तो मैं सफाई करने वालों के साथ खेला करता था, जिनमें से अधिकांश बाहर के गाँवों से आते थे। मैं उनसे पूछता था कि क्या हो रहा है और वे स्पष्ट रूप से मुझे उत्तर देते। जब मैं उपयुक्त अधिकारियों से पूछता तो वे बात को टाल देते।"
"सन् १९५१ में, तगडग रिनपोछे ने इस्तीफा दे दिया और मैंने उत्तरदायित्व संभाला। हम डोमो के लिए निकले। जब हम १९५२ में वापस ल्हासा लौटे तो मैंने एक सुधार समिति की स्थापना की। ङफो ने इसका कार्यभार ग्रहण किया और परिवर्तन को क्रियान्वित करना प्रारंभ किया। हमने युथोग की अध्यक्षता में एक न्याय आयोग की स्थापना की। हमने कुछ सुधारों की प्राप्ति की, पर कठिनाइयों में आ गए क्योंकि चीनियों को यह अच्छा न लगा। वे किसी भी परिवर्तन को अपनी इच्छानुसार करना चाहते थे इसलिए परियोजना सफल नहीं हुई।"
परम पावन ने कहा १९५७ में वे अपनी भारत यात्रा के बाद जब तिब्बत लौटे, तो उन्होंने अपनी परीक्षा की तैयारियाँ प्रारंभ कर दी। १९५९ में उन्होंने अपनी अंतिम ल्हरम्पा की परीक्षा दी। भारत में आने के पश्चात बाकी मंत्रियों को मसूरी में पुनः कार्यभार सौंपा गया और निर्वासित प्रशासन ने विकास प्रारंभ िकया।
"जहाँ तक २०११ में मेरे अधिकार के स्थानांतरण की बात है, मैंने यह अनिच्छा से नहीं किया अपितु प्रसन्नता से और जानबूझकर किया है। अमदो का यह लड़का बहुत प्रभावी न सिद्ध हुआ हो, परन्तु कम से कम वह एक कलंक साबित नहीं हुआ। लगभग ४०० वर्ष पूर्व ५वें दलाई लामा द्वारा स्थापित गदेन फोडंग सरकार का अंत १४वें दलाई लामा द्वारा हुआ, जबकि लोगों का अभी भी इस पर विश्वास था।"
"पहले मैं उड़ान को लेकर थोड़ा चिंतित हुआ करता था। मैं चिंता करता था कि यदि मुझे कुछ हो गया तो तिब्बती समस्या का क्या होगा। मैं अब और उसके विषय में चिंता नहीं करता। बल्कि एक अमेरिकी राजनीतिज्ञ ने मुझे बताया कि मेरे अधिकार के स्थानांतरण ने चीनी नेतृत्व के लिए एक प्रभावशाली संदेश भेजा है। वास्तव में कई चीनी जिन्हें मैं जानता हूँ, यह आशा कर रहे हैं कि हम तिब्बतियों के इस उदाहरण के कारण चीन में लोकतांत्रिक परिवर्तन प्रारंभ हो सकता है। निश्चित रूप से मैं इस कारण सेवानिवृत्त नहीं हुआ क्योंकि मैंने आशा छोड़ दी है।"
शिक्षा के प्रश्न की ओर मुड़ते हुए परम पावन ने कहा कि विगत लगभग ५५ वर्षों में निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों ने निरक्षरता पर काबू पाया है। तिब्बत की स्थिति की तुलना में निर्वासन में लोग शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर हैं, यद्यपि सुविधाओं के अभाव में कुछ समस्याएँ हैं। उन्होंने अपने हाल ही के महाराष्ट्र के भंडारा यात्रा की चर्चा की, जहाँ स्कूल में धार्मिक प्रशिक्षक एक भिक्षुणी है जिसने डोलमा भिक्षुणी विहार से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह अब एक गेशेमा बनने की तैयारी कर रही है। उसके द्वारा उन्हें प्रशिक्षित करने के फलस्वरूप स्कूली बच्चों ने एक प्रभावशाली शास्त्रार्थ प्रदर्शन किया जो पहली बार हुआ है। पहले धार्मिक अनुदेशक सोचते थे कि उनका कार्य मात्र प्रार्थना सिखाना है, पर परम पावन ने बताया कि उनका उत्तरदायित्व वास्तव में लोगों को यह सिखाना है कि बौद्ध धर्म का वास्तव में क्या अर्थ है। बच्चों को न केवल आधुनिक शिक्षा अपितु नालंदा परंपरा की समझ की भी आवश्यकता है।
"कल विहार में मैंने कहा कि यह केवल पूजा और अनुष्ठान का स्थान नहीं होना चाहिए। यह सीखने का स्थान होना चाहिए। मैं विहार को कांग्यूर तथा तेंग्यूर का एक सेट प्रदान करूँगा, पर मैं आशा करता हूँ कि इसका उपयोग अध्ययन के लिए होगा, केवल सम्मान की एक वस्तु के रूप नहीं। हम भी कुछ ही समय में कांग्यूर तथा तेंग्यूर से निकाले बौद्ध विज्ञान के बारे में सामग्री का दो खंड के सेट के रूप में प्रकाशन करेंगे और मैं आशा करता हूँ कि आप वह भी पढ़ेंगे।"
"जब मैं एक बच्चा था तो विज्ञान में मेरी रुचि थी और जब मैं बड़ा हुआ तो मैंने निश्यच कर लिया था कि इसके विषय में और अधिक जानने के लिए मैं वैज्ञानिकों से बात करना चाहूँगा। एक अमेरिकी बौद्ध ने मुझे सचेत किया कि विज्ञान धर्म का हत्यारा है परन्तु मुझे बुद्ध की चेतावनी का स्मरण हुआ कि उनकी शिक्षाओं को केवल ऐसे ही स्वीकार न करें पर उनका परीक्षण तथा जाँच करें, उनका विश्लेषण करें और प्रयोग करें। मैंने निश्चय किया कि कोई खतरा नहीं था और ३० वर्ष पूर्व वैज्ञानिकों के साथ चर्चा प्रारंभ की।"
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"१९८९ में संयुक्त राज्य अमेरिका में माइंड एंड लाइफ बैठक में एक महिला, जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थी, ने बौद्ध भिक्षुओं के साथ चर्चा करने की संभावना को संदेह से देखा। पर उन्होंने मुझसे पूछा, अपनी परंपरा में क्या आप एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं, मैंने कहा "नहीं"। उन्होंने पूछा कि क्या हम एक आत्मा में विश्वास करते हैं, और मैंने फिर कहा "नहीं"। उन्होंने कहा कि लगता है कि जैसा वह सोचती थी हमारी बौद्ध परंपरा वैसी नहीं है। क्रमशः उसकी रुचि जाग गई और वह चाय के समय और चर्चाओं के सत्र के बीच भी लगातार मुझसे प्रश्न करती रही।"
परम पावन ने स्मरण किया कि १९६० के दशक में चीनी अधिकारियों ने एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें तिब्बती बौद्ध धर्म को मात्र एक अंधविश्वास के रूप वर्णित किया गया था। उन्होंने ज़ोर दिया था कि उन्हें कोई कार्रवाई करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्वाभाविक रूप से अपने आप बिखर जाएगा। उनके लिए यह आश्चर्य की बात होनी चाहिए कि ४० वर्षों के बाद भी तिब्बती बौद्ध धर्म और आधुनिक विज्ञान के बीच गंभीर चर्चा चल रही है। इसका समापन पिछले वर्ष कर्नाटक में डेपुंग विहार में एक माइंड एंड लाइफ बैठक के साथ हुआ। बौद्ध पक्ष में चित्त तथा भावनाओं को लेकर बहुत अधिक गहन ज्ञान समाया है।
इन दिनों बहुत कम तिब्बती मध्य तिब्बत से बाहर आ रहे हैं। कुछ लोग खम और अमदो से आते हैं, पर मध्य तिब्बत से लोग दुर्लभ हैं। परम पावन ने बताया कि चीनी जनसंख्या १.३ अरब है, जबकि तिब्बती केवल ६ लाख हैं। यदि कोई कार्रवाई की जाती है जो चीनियों को क्रोधित कर दे तो जिन लोगों को दुख झेलना पड़ेगा वे सीधे तिब्बत के तिब्बती होेंगे।
"यदि हम उन्हें अपना दुश्मन बना लें तो उससे कुछ अच्छा न होगा, पर यदि हम चीनियों को अपने पक्ष में कर लें तो उससे हमें सहायता मिलेगी। नए नेता शी जिनपिंग, देंग जियाओपिंग के पुराने नारे 'तथ्यों से सत्य की खोज' का उपयोग करते हैं। वे हू याओबंग के समान और यथार्थवादी प्रतीत होते हैं। हमें आशा नहीं छोड़नी चाहिए, सत्य की शक्ति की अंततः विजय होगी।"
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प्रेस के साथ एक बैठक में, परम पावन ने शिलांग यात्रा को लेकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और पत्रकारों को बताया कि उन्होंने वास्तव में अपनी यात्रा का कितना आनंद लिया है। उन्होंने उन्हें अपनी तीन प्रतिबद्धताओं के बारे में समझाया कि सबसे पहले मनुष्य होने के नाते हम सभी सुख चाहते हैं। और उस सुख का पीछा करते हुए वे लोगों को यह समझाने में सहायता करना चाहते हैं कि यद्यपि भौतिक विकास शारीरिक सुख देगा पर सच्चा सुख आंतरिक मूल्यों के विकास से आता है। एक बौद्ध भिक्षु के रूप में, जिसने यह सीखा है कि दार्शनिक मतभेदों के बावजूद, सभी धर्मों का लक्ष्य प्रेम और करुणा का विकास है, वह अंतर्धार्मिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए काम करते हैं। अंत में, एक तिब्बती के रूप में वह तिब्बती धर्म, संस्कृति और पर्यावरण के संरक्षण के लिए चिंतित है।
उन्होंने आंतरिक मूल्यों के महत्त्व को जनता को सूचित करने का उत्तरदायित्व लेने के लिए मीडिया को प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा कि अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने में उनकी भी एक भूमिका है। उन्होंने उन्हें स्मरण कराया कि जो हो रहा है उसका पता लगाने और बिना पूर्वाग्रह या पाखंड के उसके अनुसार जनता को सूचित करने में मीड़िया की विशिष्ट भूमिका है।
उनसे पूछे गए कई प्रश्नों में पहला उनकी पहली शिलांग यात्रा के विषय में था और उन्होंने उत्तर दिया कि वह एक सुन्दर स्थान है, नभ स्वच्छ तथा नीला है और वे जहाँ भी गए लोग मैत्री और सौहार्दता प्रदर्शित करते मार्ग पर खड़े थे। यह पूछे जाने पर कि वह क्या है जो तिब्बतियों को एकजुट करती है, उन्होंने कहा भाषा और संस्कृति, पर यह भी स्पष्ट किया कि तिब्बती एकता की भावना को सशक्त करने में चीनी दमन विशेष रूप से सफल रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत के लिए समर्थन जुटाने के निष्प्रभावी प्रयास और साथ ही माओ जेदंुग के कथन, कि चीन तिब्बत को एक विशिष्ट मामला मानता है, का स्मरण किया। १९४७ में चीन से बात करने की आवश्यकता पर निर्णय लिए गए और मध्यम मार्ग दृष्टिकोण की तैयारी प्रारंभ हुई। इसने धीरे - धीरे लोकप्रिय समर्थन इकट्ठा कर लिया है।
इसके विषय में कि भ्रष्टाचार को लेकर क्या किया जा सकता है, उन्होंने कहा कि लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है, पर यह भी स्पष्ट किया कि केवल भारत ही इससे प्रभावित नहीं है। भ्रष्टाचार विश्व भर में एक कैंसर की तरह है। जहाँ परम पावन ने भारतीय लोकतंत्र के विषय पर प्रश्न के उत्तर में उसके प्रति सराहना व्यक्त की, पर प्रश्न के दूसरे भाग, कि इसकी क्या बात है जो उन्हें िबलकुल अच्छी नहीं लगती, उन्होंने उत्तर दिया, "बहुत अधिक स्वतंत्रता, बिना किसी अनुशासन या उत्तरदायित्व की भावना के िबना स्वतंत्रता का उपयोग।"
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शिलांग में परम पावन का अंतिम कार्यक्रम अंतर्धार्मिक आयोजन था। तिब्बती सांसद यंगचेन डोलकर ने अवसर का परिचय देते हुए कहा कि यह बैठक परम पवन के पूजा के अन्य स्थानों के सम्मानपूर्वक यात्रा की प्रथा को ध्यान में रखकर बुलाई गई थी। विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं के प्रतिनिधियों में से प्रत्येक ने एक मोमबत्ती जलाई, मानो मैत्री को प्रकाशित कर रहे हों और मंच के समक्ष रखा। एक के बाद एक, कई ईसाई परम्पराओं के सदस्यों, इस्लाम और जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करती महिलाओं, सिख, हिंदू और बौद्ध धर्म के प्रतिनिधियों ने सामने आकर अभिनन्दन तथा प्रार्थना अभिव्यक्त की।
जब उनकी बारी आई, तो परम पावन ने सभागार में उपस्थित कई विभिन्न परंपराओं के सम्माननीय प्रतिनिधियों और अपने भाइयों और बहनों का अभिनन्दन किया। उन्होंने कहा कि जब वह १९५६ में बुद्ध जयंती समारोह में भाग लेने के लिए भारत आए तब उन्होंने पहली बार अन्य आध्यात्मिक परंपराओं के नेताओं से भेंट की थी। बाद में वे पोप और कैंटरबरी के आर्चबिशप से मिले तथा उनके विषय में जाना। उन्होंने कहा:
"सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम की बात करती है और प्रायः सृजनकर्ता की व्याख्या अनंत प्रेम के संदर्भ में करती है। इन परम्पराओं से संबंधित लोग दूसरों की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। उदाहरण के िलए ईसाई भाइयों और बहनों द्वारा स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में विश्व भर के दूरस्थ स्थानों में किए गए महान काम देखें। हम बौद्धों के पास इस प्रकार की कोई उपलब्धियाँ नहीं हैं।"
उन्होंने एक पत्रकार का उल्लेख किया जो अयातुल्ला खुमैनी के समय में ईरान में था। उसने उन्हें बताया कि यद्यपि विदेशी प्रेस में अयातुल्ला का समग्र दृष्टिकोण नकारात्मक था, पर उसने कहा कि किस तरह उसके मार्गदर्शन में मुल्लाओं को दान प्राप्त हुआ है और उन्होंने गरीबों की सहायता के लिए उसे पुनः वितरित किया।
"यह थॉमस मर्टन थे, जिन्होंने वास्तव में मेरा परिचय ईसाई धर्म के मूल्यों से कराया। हमने कई दिन चर्चाओं में बिताए, विचारों का आदान प्रदान किया। हमने अपने अभ्यासों में कई समानताएँ देखी, जो मुझे स्मरण कराती है फ्रांस में मेरे एक मठ की यात्रा की, जहाँ मैंने उन भिक्षुओं से कहा जो अपना जीवन प्रार्थना में बिताते हैं कि मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हो रहा था कि हमारी भिक्षु परम्पराएँ एक आम स्रोत से उत्पन्न हुई हैं। मर्टन की दैनिक जीवन की शैली मेरी अपनी जैसी थी। मैं ३ः०० के आसपास उठता हूँ और वह २ः०० बजे उठते थे, एक घंटे पहले। मेरी तरह वह शाम को जल्दी सो जाते थे।"
"मार्टिन लूथर किंग और उनका नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष एक और प्रेरणा स्रोत है, और निश्चित रूप से महात्मा गांधी। वह एक हिंदू थे, पर उन्होंने सभी धार्मिक परम्पराओं के लिए एक गहरा सम्मान पोषित किया। धर्मों के बीच संघर्ष का कोई आधार नहीं है, उन के बीच के संबंध सद्भाव द्वारा नियंत्रित किए जाने चाहिए।"
"जब हम कहते हैं कि धार्मिक परंपराओं का एक आम संदेश है, पर मैं मानता हूँ कि उनके बीच महत्त्वपूर्ण अंतर भी हैं। दार्शनिक विचारों के संदर्भ में मतभेद हैं, लेकिन उनके उद्देश्य या प्रयोजन एक ही हैं प्रेम के अभ्यास की रक्षा। ये एक ही लक्ष्य रखते हुए विभिन्न उपाय हैं। इसीलिए मैं पूरी तरह से धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने हेतु प्रतिबद्ध हूँ।"
"तिब्बती परंपरा अध्ययन और अभ्यास की परम्परा के अंतर्गत आती है, जिसे हमने नालंदा, भारत की प्राचीन विश्वविद्यालय की परंपराओं से ली थी। हम मूल ग्रंथ को कंठस्थ कर प्रारंभ करते हैं, जो सरल नहीं होता जब आप उन्हें समझ नहीं पाते, फिर हम उनके भाष्य पढ़ते हैं और हमने जो समझा उस पर शास्त्रार्थ करते हैं। इस तरह २०- ३० की अवधि में ४० संस्करणों का अध्ययन करते हैं। इस तरह के अध्ययन के आधार पर हम आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद करने में सक्षम हैं क्योंकि जहाँ विज्ञान के पास भौतिक विश्व के कार्य का बहुत ज्ञान है, पर इस प्राचीन भारतीय परंपरा में चित्त के कार्य का असीम ज्ञान निहित है।"
"इस ज्ञान की प्रासंगिकता आज महान है। मैं आप भारतीयों से चेतना और भावनाओं काे अनुभव लिए अपने देश की प्राचीन धरोहर में एक धर्मनिरपेक्ष रुचि लेने का अनुरोध करता हूँ।"
"मैं इस कार्यक्रम के आयोजकों का धन्यवाद करना चाहूँगा और आप सब को आने के लिए धन्यवाद करना चाहूँगा।"
प्रतिकुलपति ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने परम पावन की उपस्थिति की विशेष रूप से सराहना की। कार्यक्रम का समापन मेघालय संस्कृति और कला संस्थान के छात्रों, एक तिब्बती मंडली, ना रिम्पेइ और सेरेनिटि वंृद द्वारा प्रस्तुत कई संगीत तथा नृत्य प्रदर्शन के साथ हुआ। राजभवन लौटने से पूर्व परम पावन ने व्यक्तिगत रूप से, धार्मिक प्रतिनिधियों में से प्रत्येक से विदा ली। वे कल तड़के ही गुवाहाटी के लिए निकलेंगे, जहाँ से वे दिल्ली और फिर धर्मशाला के लिए उड़ान भरेंगे।