मंच पर, परम पावन को एक पारंपरिक दुशाला और एक पौधा भेंट किया गया। उन्होंने उद्घाटन दीप प्रज्ज्वलन में भाग लिया जबकि विद्यालय के वृन्द दल ने एक वृंद गान प्रस्तुत किया। श्रीमती वाटल ने घोषणा की, कि एक शिक्षक के रूप वह और उनके सहयोगी शिक्षक यह अनुभव करते हैं कि यह उनका उत्तरदायित्व बनता है कि वे युवा मन को इस धारणा के साथ आकार दें कि करुणा सभी बुराइयों का समाधान है। उन्होंने कहा कि उन्होंने विद्यालय में परम पावन को बोलने का स्वप्न देखा था और वे इतने खुश थे कि वह सपना सच हो गया था। उन्होंने उनसे उत्सुक युवा मन और उनके शिक्षकों की सभा को संबोधित करने का अनुरोध किया।
"आदरणीय प्रधानाचार्यों, शिक्षकों, ज्येष्ठ भाइयों और बहनों और छोटे भाइयों और बहनों" परम पावन ने प्रारंभ किया। "जब भी मैं अन्य लोगों से मिलता हूँ तो मैं स्मरण करता हूँ कि मनुष्य के रूप में हम सभी एक समान हैं। एक ही प्रकार के मानव मस्तिष्क के साथ हम सब में एक ही प्रकार की क्षमता है। कभी-कभी वह क्षमता और अधिक समस्याओं का निर्माण करती जान पड़ती हैं परन्तु सामान्य रूप से हमारा आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है।"
उन्होंने वैज्ञानिकों द्वारा शिशुओं के साथ किये गए प्रयोगों की बात की थी। उन्हें ऐसी स्थितियों के सजीव चित्र दिखाकर, जिसमें कोई सहायता दे रहा है या बाधित कर रहा है अथवा अड़चन डाल रहा, और पाया कि वे सहायता वाले उदाहरण के पक्ष में हैं। उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट रूप से सामाजिक प्राणी के रूप में हमारी स्थिति के साथ मेल खाता है, जिसका अस्तित्व दूसरों पर निर्भर है। इसी कारण हम समुदाय की भावना विकसित करते हैं। और वे भावनाएँ, जो समुदाय का पालन करती हैं, वे प्रेम व स्नेह हैं, जबकि क्रोध और ईर्ष्या दूरी और अलगाव पैदा करते हैं। दूसरों के प्रति चिंता की भावना का विकास करते हुए ही हम अपनी बुद्धि का प्रयोग रचनात्मक रूप से करना सीख सकते हैं।
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"आधुनिक शिक्षा, सौहार्दता के विकास पर अपर्याप्त बल देते हुए भौतिकवादी लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करती है। यदि हमारी शिक्षा नैतिकता को छूती है तो यह साधारणतया धार्मिक आस्था के संबंध में है। उनके दार्शनिक मतभेदों के बावजूद, सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं का मुख्य अभ्यास प्रेम है। और प्रभावी ढंग से प्रेम के अभ्यास के लिए, आपको सहिष्णुता और क्षमा, आत्म अनुशासन और संतोष की आवश्यकता है। इन परम्पराओं का एक आम उद्देश्य है प्रेम के विकास में हमारी सहायता करना। यह एक सृजनकर्ता में विश्वास और यह भावना कि हम सबमें, ईश्वर की एक चिंगारी प्रेम है, के माध्यम से हो सकता है। या हम एक गैर-ईश्वरवादी परंपरा का पालन कर सकते हैं जो कार्य कारण में विश्वास रखती है कि यदि आप अच्छा करते हैं, तो आप को लाभ मिलता है, या यदि आप अहित करते हैं तो उसके नकारात्मक परिणाम होंगे। दार्शनिक रूप से जो भी मतभेद हों इन आध्यात्मिक परंपराओं का लक्ष्य एक समान है।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि भारत में सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ लंबे समय से सद्भाव से साथ साथ रही हैं। पर आज विश्व में जीवित ७ अरब मनुष्यंों में १ अरब इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उनका धर्म में कोई विश्वास नहीं है। उन्होंने कहा कि फिर प्रश्न यह उठता है कि ऐसे लोगों को प्रेम व करुणा के विषय में किस प्रकार शिक्षित िकया जाए। उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता का सुझाव दिया और यह कि भारत ने ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है जो सभी धर्मों के प्रति, यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जो िकसी भी धर्म में िवश्वास नहीं करते, एक निष्पक्ष सम्मान व्यक्त करता है।
"इसलिए मेरा यह िवश्वास है कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का विचार सभी के लिए आकर्षक हो सकता हैं। हम जैविक रूप से प्रेम और स्नेह से लैस हैं। जब हमारा जन्म होता है हम जीवित रहने के लिए अपने माँ की ममता पर निर्भर रहते हैं। प्रेम तथा स्नेह हमें स्वस्थ रूप से आगे बढ़ने में सक्षम करता है और हमें आत्मविश्वास देता है। आप में से कई युवा महिलाएँ अपने आप को प्रसाधनों से सुंदर बनाने के लिए समय और मुसीबत मोल लेती हैं, परन्तु सुखी संबंधों की, एक सुखी वैवाहिक जीवन की सही कुंजी, आंतरिक सौंदर्य है।"
"हम सब को मैत्री की आवश्यकता है और मैत्री विश्वास पर निर्मित है, जो आपसी सम्मान और दूसरों के प्रति चिंता के आधार पर आता है। एक परिवार धनवान और शक्तिशाली हो सकता है, पर यदि इसके सदस्य के अविश्वास और संदेह से चालित हैं तो वे दुखी होंगे। दूसरी ओर एक निर्धन परिवार जिसके सदस्य एक दूसरे पर विश्वास करते हैं सुखी होते हैं।"
परम पावन ने वैज्ञानिक अनुसंधान का संदर्भ िदया, जो स्पष्ट करते है कि प्रेम, करुणा और सौहार्दता के प्रशिक्षण में जो लोग एक कम से कम समय जैसे कि तीन सप्ताह के िलए भी सलंग्न हैं, उनके तनाव और रक्तचाप के स्तर में एक उल्लेखनीय कमी देखने को मिलती है। अपने मित्रों के साथ उनके संबंधों में सुधार होता है। उन्होंने इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत िकया कि वैज्ञानिक निष्कर्ष, आम अनुभव और सामान्य ज्ञान के आधार पर लोगों को शिक्षित कर पाना संभव है। आधुनिक शिक्षा की भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और यहाँ भारत में एक ऐसे पाठ्यक्रम को बनाने की ओर कार्य चल रहा है, जो धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को पोषित करता है, जो हृदय तथा चित्त को विकसित करता है।
"२०वीं शताब्दी ने कई अनोखे िवकास देखे," परम पावन ने घोषणा की, "और इसके बावजूद यह अभूतपूर्व हिंसा का भी एक युग था। कुछ आँकड़ों के अनुसार २०० करोड़ लोग हिंसा में मारे गए। अरबों डॉलर शक्तिशाली हथियारों के विकास पर खर्च किए गए, पर इसका सकारात्मक परिणाम नहीं हुआ। इस समय भी, जब हम जहाँ हैं वहाँ सुख तथा शांति है, अन्य स्थानों पर हम जैसे मनुष्य मारे और घायल किया जा रहे हैं। हम बल के प्रयोग से और अधिक शांतिपूर्ण िवश्व का निर्माण नहीं कर सकते, बल्कि इसके स्थान पर हमें आंतरिक शांति का विकास करना होगा।"
श्रोताओं की ओर देखते हुए उन्होंने कहा कि २० वर्ष से कम की आयु वाले २१वीं शताब्दी के हैं। जहाँ अतीत को बदलने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता, पर यदि यह पीढ़ी चाहे तो यह भविष्य को परिवर्तित कर सकती है। उन्होंने कहा कि केवल अपने देश के विषय में सोचना अब तारीख से बाहर है, अब समय समग्र मानवता के प्रति चिंतित होने का है। भारत अहिंसा और अंतर्धार्मिक सद्भाव की अपनी युगों पुरानी परम्परा के साथ इस ओर एक महान योगदान दे सकता है।
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"मैं एक शरणार्थी के रूप में ५५ वर्षों से इस देश रह रहा हूँ," परम पावन ने कहा। "मैं स्वयं को प्राचीन भारतीय सोच का एक दूत मानता हूँ। मैं भी कभी कभी अपने को भारत का एक बेटा कहता हूँ क्योंकि नालंदा परम्परा के एक छात्र के रूप में वह मेरे समूचे ज्ञान का स्रोत है। इस बीच, मेरा शरीर भारतीय चावल और दाल द्वारा पोषित हुआ है। भारतीय संस्कृति गीत और नृत्य के बाहरी रूप में नहीं रहता, पर यहाँ हृदय में होता है। यदि आप उस पर ध्यान दें तो वह प्रभावी होगा। कृपया अपनी आधुनिक शिक्षा को गंभीरता से लें, पर यह भी स्मरण रखें कि प्राचीन भारत हमें वास्तविकता और हमारे चित्त और भावनाओं की प्रकृति के विषय में क्या शिक्षा दे सकता है। यह ज्ञान, यह भारतीय निधि, आज विशेष रूप से प्रासंगिक है, जैसा कि हम कई आधुनिक वैज्ञानिकों से प्राप्त इसकी प्रशंसा के रूप में देखते हैं।"
श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने समझाया कि प्रतिस्पर्धा, जो सभी प्रतिभागियों की सफलता को सुनिश्चित करता है, सहायक है, पर वो प्रतिस्पर्धा जो कुछ के पक्ष में है और दूसरों को नष्ट करती है, सहायक नहीं है। उन्होंने कहा कि कड़ी कार्रवाई का प्रयोग सकारात्मक रूप से िकया जा सकता है, उदाहरण के िलए उस शिक्षक के द्वारा, जो पूरी तरह से अपने या अपने छात्र के कल्याण को लेकर चिंतित है। यह पूछे जाने पर कि क्या वह फिल्में देखते हैं, उन्होंने उत्तर दिया कि ६० दशक के पूर्वार्ध में वह सिनेमा जाते थे पर अब टेलिविज़न अथवा फिल्में नहीं देखते।
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यह प्रश्न िकए जाने पर कि क्या बुद्ध एक देवता थे, उन्होंने कहा नहीं, वह एक मानव थे जो स्वयं के प्रयासों से एक प्रबुद्ध बुद्ध बन गए। उन्होंने अपने श्रोताओं को बताया कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती नागार्जुन द्वारा सिखाई गई शून्यता और प्रतीत्य समुत्पाद को समझना था। उनके स्वप्न के विषय में जब वे छोटे थे, उन्होंने कहा कि वे केवल यहाँ वहाँ भागना चाहते थे और उनकी अध्ययन में कम रुचि थी पर आज लगभग ८० वर्ष की आयु में उन्हें पढ़ना तथा अध्ययन करना अच्छा लगता है। और स्नेह पूर्वक नीचे श्रीमती रजनी कुमार की ओर देखते हुए, उन्होंने उनके समान ९० या १०० वर्ष की आयु तक जीने की आशा व्यक्त की।
यह पूछे जाने पर कि उनके प्रेरणा के स्रोत कौन थे, उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के नागार्जुन और शांतिदेव जैसे नालंदा आचार्यों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि शांतिदेव के ग्रंथों की व्याख्याओं को सुनने से उनका जीवन परिवर्तित हो गया। कुछ समकालीन व्यक्तियों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने महात्मा गांधी और भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, जिनके ज्ञान और विनम्रता ने उन्हें गहन रूप से प्रभावित किया था, का नाम लिया। अंत में उन्होंने टिप्पणी की, कि दूसरों को सुखी करने का अर्थ अपने सुख को त्याग करने का प्रश्न नहीं है। दूसरों को सुखी करने का प्रयास, यहाँ तक कि जब हम सदा सफल नहीं होते संतुष्टि का एक महान स्रोत है। उन्होंने समाप्त करते हुए कहा कि क्रोध और घृणा दुर्बलता के संकेत हैं, जबकि करुणा शक्ति का निश्चित संकेत है।