जब उन्होंने यूक्रेन में जो हो रहा है उसके विषय में परम पावन के विचार पूछे, तो उन्होंने उससे कहा कि रूस को पश्चिम की आवश्यकता है और पश्चिम को रूस की आवश्यकता है, केवल 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचना अवास्तविक है। हमें एक दूसरे की मानव भाइयों और बहनों के रूप में आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि वह भविष्य की ओर देखते हैं और आशावादी बने रहने की आवश्यकता है। दोनों पक्षों के लिए मिलना और बात करना आवश्यक है। यह एक उदाहरण है कि २१वीं सदी को किस प्रकार संवाद की सदी होना चाहिए। बल द्वारा समस्या का समाधान करने का प्रयास गलत है। उद्देश्य और प्रेरणा अच्छी हो सकती है, पर उसके अप्रत्याशित परिणामों के कारण बल प्रयोग तारीख से बाहर है। यह देखते हुए कि जर्मनी यूरोप के केन्द्र में है और यूरोपीय संघ में इसकी अर्थव्यवस्था सबसे सशक्त है, उन्होंने स्मरण िकया कि शीत युद्ध के दौरान भी विली ब्रांट ने ब्रेजनेव का भरोसा बनाए रखा है।
सुश्री शार्टमान ने पूछा कि परम पावन क्यों चित्त की शांति के बारे में बात करते रहते हैं, और उन्होंने उत्तर दिया कि एक शांतिपूर्ण विश्व बनाने के लिए हमें पहले चित्त की शांति की आवश्यकता है। विश्व शांति क्रोध और ईर्ष्या के आधार पर नहीं बनायी जा सकती है, और न ही इस आधार पर कि 'हमें' जीतना और 'उन्हें' खोना होगा।
जर्मनी की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी डी पी ए के लिए, जेकब ब्लुमे ने प्रश्न रखा, जो उनकी इस यात्रा पर यूरोप दौरा शुगदेन के समर्थकों द्वारा परम पावन का पीछा करने से संबंधित था। उन्होंने उत्तर दिया:
"मैं भी इस आत्मा की तुष्टि करता था इसलिए वे जिस अज्ञानता के प्रभाव में कार्य कर रहे हैं, उसका मुझे अनुभव है। जब मैंने अनुभव किया कि इसके साथ कुछ गलत था, तो मैंने इसे करना बंद कर दिया। अधिक से अधिक लोगों को पता चला और उन्होंने इसके बारे में पूछा। सच बताना आवश्यक हो गया था; यह मेरा उत्तरदायित्व है कि मैं सच कहूँ, यह समझाऊँ कि किन कारणों से मैंने वह अभ्यास बंद कर दिया। मैं जो कहता हूँ उसे लोग सुनें या उस पर ध्यान दें वह उन पर निर्भर है।"
ब्लुमे ने उल्लेख किया कि पिछली बार जब वह यहाँ थे तो परम पावन ने विएसबदेन में हेस्से राज्य की संसद को संबोधित किया था। उनसे पूछा गया कि क्या वे निराश थे कि इस बार वे ऐसा नहीं कर रहे। परम पावन ने कहा कि इसी प्रकार के प्रश्न ओस्लो में उठाए गए थे, और स्पष्ट किया उनकी यात्रा पूरी तरह गैर राजनीतिक है और उनका मुख्य विषय लोगों से मानवीय मूल्यों और अंतर्धार्मिक सद्भाव के बारे में बात करना है।
परम पावन गाड़ी से तिब्बत हाउस गए जहाँ उनका स्वागत, मंत्री अध्यक्ष वोल्कर बौफ्फियर द्वारा किया गया जिन्होंने उनसे कहा:
"परम पावन हम आपसे मिलकर और आपको अपने संदेश साझा करने का अवसर देकर बहुत प्रसन्न हैं। हम दशकों से आपको और तिब्बत में शांति और स्वतंत्रता के लिए आपके कार्य के प्रशंसक रहे हैं। जर्मनी में हम आत्मनिर्णय, मानव अधिकार और शांतिपूर्ण सह - अस्तित्व का स्पष्ट रूप से सम्मान करते हैं।"
अपने उत्तर में परम पावन ने कहा:
"मैं आपके शब्दों की अत्यधिक सराहना करता हूँ। तिब्बत का प्रश्न एक न्यायपूर्ण मुद्दा है; यह हमारी समृद्ध संस्कृति से भी संबंधित है जिसका संरक्षण हमारी प्राथमिकता है। मैं आपके इस छोटे से तिब्बत हाउस में मुझसे मिलने के लिए आने की सराहना करता हूँ।"
"१९५९ में भारत आने के बाद जल्द ही हमने नई दिल्ली में एक तिब्बत हाउस की स्थापना की और बाद में एक और न्यूयॉर्क में। यहाँ के डगयब रिनपोछे नई दिल्ली में १९६४ से १९६६ तक तिब्बत हाउस के निदेशक थे और उसके बाद वह बॉन विश्वविद्यालय में काम करने के लिए जर्मनी आए। जब उन्होंने यहाँ तिब्बत हाउस की स्थापना का प्रस्ताव रखा, मैं इसकी तिब्बती संस्कृति और बौद्ध ज्ञान के संरक्षण की दृष्टि से सहमत हो गया।"
उन्होंने आगे कहा कि तिब्बती संस्कृति एक बौद्ध संस्कृति है और जहाँ बौद्ध भाग एक व्यक्तिगत स्तर पर अधिकांश रूप से बौद्धों के लिए रुचिकर है, संस्कृति, समुदाय से संबंधित है। उन्होंने संकेत दिया कि तिब्बत के मुसलमान विशुद्ध रूप से अपनी परम्परा िनभाते हैं, पर साथ ही तिब्बती संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि हज, मक्का की तीर्थयात्रा के एक भाग में पशु बलि शामिल है। उन्होंने याद किया कि किस प्रकार एक वयोवृद्ध मुसलमान तिब्बती ने उनसे यह बात कही, तथा तिब्बतियों की पशुओं के जीवन के प्रति चिंता को स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित करते हुए क्षमा याचना की। परम पावन ने कहा कि शांति और करुणा के संस्कृति के रूप में, तिब्बती संस्कृति के संरक्षण के योग्य है। उन्होंने आगे कहा कि वह बर्फीले प्रदेश की भूमि की नाजुक प्राकृतिक पर्यावरण की स्थिति के बारे में बहुत चिंतित हैं जिसको जलवायु परिवर्तन के महत्त्व के कारण तीसरे ध्रुव के रूप में संदर्भित किया जा रहा है।
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परम पावन ने कहा कि तिब्बती बौद्ध धर्म का मूल, भारत के नालंदा विश्वविद्यालय में था यह टिप्पणी करते हुए कि नालंदा एक महाविहार से कहीं अधिक था, यह गहन अध्ययन का केन्द्र था।
परिणाम स्वरूप तिब्बती बौद्ध परंपरा चित्त और भावनाओं का समृद्ध ज्ञान रखती है जिसका रूप विगत ३० वर्षों से बौद्ध और आधुनिक वैज्ञानिकों के बीच हो रही चर्चा मे दिखाई देता है। इस संवाद के अंतर्गत संयुक्त राज्य अमेरिका में जो द माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट स्थापित किया गया है, अब यूरोप में सक्रिय होता जा रहा है। इस तिब्बत हाउस की तरह एक छोटा स्थान भी ऐसी बैठकों के लिए एक स्थल हो सकता है। श्री वोल्कर की ओर मुड़ते हुए हँसी में उन्होंने कहा:
"राजनेताओं को चित्त और मानव मनोविज्ञान के बारे में अधिक जानना चाहिए।"
उन्होंने समझाया कि कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रह में निहित बौद्ध साहित्य भी एक ओर बौद्ध विज्ञान और दर्शन से संबंधित है, दूसरी ओर बौद्ध धार्मिक अभ्यास के साथ। यह देखते हुए कि एक स्वतंत्र शैक्षिक दृष्टि से विज्ञान और दर्शन के वर्ग महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं, उन्हें अलग पुस्तकों में उपलब्ध बनाने के उद्देश्य से बौद्ध विज्ञान और बौद्ध दर्शन की सामग्री को निकालने का कार्य चल रहा है। पहला संग्रह जो कि बौद्ध सूत्रों से ली गई विज्ञान सामग्री से सम्बद्धित है, पूरा हो चुका है और उसका अंग्रेजी में अनुवाद भी प्रारंभ हो चुका है।
परम पावन से जो प्रश्न पूछे गए, उनमें एक था कि तिब्बतियों और चीनियों के बीच के संवाद का क्या हुआ। उन्होंने समझाया कि जब १९७९ में देंग जियाओपिंग ने यह संकेत दिया कि वे संवाद के लिए राजी थे, तो १९७४ में ही यह निर्णय लेने के कारण कि अंततः उन्हें चीनियों से बात करनी होगी और वे स्वतंत्रता की माँग नहीं रखेंगे, तिब्बती तैयार थे।
"हम १९८० के दशक में हू याओबांग के साथ सकारात्मक प्रगति को लेकर आशावान थे, पर उसके बाद त्यानआनमेन घटना हुई और कट्टरपंथियों ने नियंत्रण हाथ में ले लिया। १९९३ में जियांग जेमिन के नेतृत्व में सम्पर्क प्रारंभ हुआ और २००२ के दौरान पुनः शुरू किया गया। यहाँ केलसंग ज्ञलछेन बैठकों की प्रतिनिधियों में से एक थे। परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। चीनी अभी भी हम पर अलगाववाद का आरोप लगाते हैं। अंतिम बैठक २०१० में हुई थी।"