बंगलौर, कर्नाटक, भारत - ५ जनवरी २०१४ - परम पावन को बंगलौर के बिशप कॉटन स्कूल में एंग्लो इंडियन एसोसिएशन स्कूलों के प्रमुखों के ९२वें वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। आगमन पर बड़े ही विनय भाव से स्कूल प्रधानाचार्य जॉन ज़कारिया ने उनका स्वागत किया और उनका परिचय सह पैनल सदस्यों से करवाया िजनमें मुख्य अतिथि श्री नंदन नीलेकणी, जो इस स्कूल के पुराने छात्र हैं, भी शामिल थे ।
प्रातः की चर्चा के उद्देश्य और संभावनाओं की रूपरेखा देते हुए प्रधानाचार्य ज़कारिया ने परम पावन द्वारा इस वर्ष के प्रारंभ में एमोरी विश्वविद्यालय में दी गई सलाह की प्रशंसा की ः 'शिक्षा एक अधिक सुखी और शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। हमें शिक्षा की संरचना इस प्रकार करना है जो ज्ञान तथा एक स्वस्थ मन प्रदान कर सके और सभी मानवता के उत्तर के लिए करुणा की भावना पैदा कर सके।' अज्ञान के अंधकार को मानते हुए परम पावन को ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित करने में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया। उसके पश्चात नंदन नीलेकणी ने विश्व को बेहतर बनाने, साधारणतया शिक्षा के महत्त्व के बारे में और साथ ही नई खोज और निरंतर सीखने के महत्त्व की भी बात की।
"आदरणीय भाइयों और बहनों, जिनसे भी मैं बात करूँ, मैं इसी रूप में संबोधित करना पसंद करता हूँ क्योंकि एक मनुष्य होने के नाते हम सभी एक जैसे हैं। यदि मैं इस पर बल दूँ कि मैं तिब्बती, बौद्ध अथवा यदि मैं स्वयं को परम पावन दलाई लामा के रूप में प्रस्तुत करने की भावना रखूँ तो यह आपके और मेरे बीच एक दूरी उत्पन्न करता है। यह मेरे चित्त में एक प्रकार का एकाकीपन निर्मित करता है और इसका एक पाखंड की ओर जाने का खतरा है। मेरे लिए यह महान सम्मान की बात है कि मैं आप लोगों के साथ मेरे कुछ अनुभव साझा करने में सक्षम हूँ,यद्यपि आपके पास आधुनिक शिक्षा का अधिकार और अनुभव है जबकि मैंने एक भी पाठ ग्रहण नहीं किया है।"
"एक मनुष्य होने के नाते हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, हम अपने दिन सुख भरा चाहते हैं और अपने स्वप्न भी सुख से भरा चाहेंगे। और तो और हम इस प्रकार के सुख को प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं। ऐसा करने के लिए, मुझे लगता है कि हमें मानवता के एक होने की एक स्पष्ट समझ का विकास करने की आवश्यकता है, हममें आम क्या है। जिन समस्याओं का सामना हम आज कर रहे हैं उनमें से कई हमारी अपनी ही बनाई हुई हैं। हममें 'उन' और 'हम' की जो भावना है वह हिंसा और धोखे की ओर ले जाती है। यह भ्रष्टाचार की ओर भी ले जाता है। यदि आप दूसरों का सम्मान करें और उनके कल्याण के लिए चिंता रखें तो यह नहीं होगा।"
"हिंसा के संबंध में, मात्र प्रार्थना इसे समाप्त नहीं करेगी। हिंसा आती है क्योंिक हममें आंतरिक शांति का अभाव है। और स्पष्ट है कि केवल अपने आंतरिक शांति के आधार पर हम विश्व में शांति निर्मित कर सकते हैं। हमारे मन की प्रमुख व्याकुलता जिसके कारण हम सत्वों को 'उन' और 'हम' में बाँटते हैं, वह हमारी आत्म केन्द्रित प्रवृत्ति है। और आज वास्तविकता यह है कि हम अन्योन्याश्रित हैं।"
परम पावन ने आपदाओं का उदाहरण दिया जो जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हो रही है और जो बिना राष्ट्रीय और अन्य सीमाओं के अंतर के हम सभी को प्रभावित कर रही है। मानवता के एक होने की भावना के बिना हमारी मानव निर्मित समस्याएँ अधिक ही होगी।
उन्होंने कहा कि एक बौद्ध होने के नाते और एक ऐसे व्यक्ति जिसने नालंदा की परंपरा में अध्ययन और अभ्यास किया है उन्होंने हमारी अन्य धार्मिक परंपराओं के प्रति एक महान सम्मान विकसित किया है। वे सभी प्रेम, सहनशीलता, आत्म - अनुशासन और संतोष का संदेश देते हैं। वे विभिन्न दार्शनिक विचार व्यक्त करते हैं क्योंकि विभिन्न स्थानों में रहने वाले, विभिन्न परिस्थितियों में रहने वाले लोगों के स्वभाव अलग होते हैं। धार्मिक परंपराएँ सहिष्णुता और क्षमा से क्रोध और घृणा का प्रतिकार करती है। क्योंकि क्रोध प्रायः अत्यधिक इच्छा और लगाव से जुड़ा हुआ है, धर्म संतोष सिखाता है। क्योंकि उनका लक्ष्य सभी का कल्याण है अतः हमें धर्म के नाम पर हो रहे संघर्ष को समाप्त करने के प्रयास की आवश्यकता है।
भारत एक जीवंत उदाहरण है कि यह किया जा सकता है। पिछले हजार वर्षों में सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ शांति से साथ साथ इस देश में फली फूली हैं।
"इस बीच", परम पावन ने जोड़ा, "ईसाई भाइयों और बहनों ने सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में सबसे महान योगदान दिया है। कभी कभी यह मिशनरी उत्साह से प्रेरित किया गया सा लगता है। उदाहरण के लिए, मैंने देखा कि मंगोलिया में कोरियाई ईसाई मिशनरी स्थानीय लोगों को परिवर्तित करने का प्रयास कर रहे थे। मैंने उनसे कहा कि यह एक बौद्ध देश है और जहाँ यह सराहनीय है कि आप स्वास्थ्य और शिक्षा में सहायता प्रदान कर रहे हैं पर यह उचित नहीं कि यह सब धर्म परिवर्तन की कीमत पर हो। मैं विदेशों में बहुत व्याख्यान देता हूँ, उत्तर और दक्षिण अमेरिका, यूरोप इत्यादि, पर जब मैं एक जूदेव ईसाई देश में बात कर रहा हूँ, तो मैं यह स्पष्ट कर देता हूँ कि लोगों के लिए यह बेहतर है कि वे जिस धर्म में पैदा हुए थे उसी में बने रहें।"
"इस से संबंधित मैं आपको एक कहानी बताना चाहूँगा। १९६० के दशक में बहुत से तिब्बती शरणार्थियों के लिए सड़क निर्माण का एक ही काम था। यह अत्यंत कठिन था और पूर्व तिब्बती सरकार के एक अधिकारी के परिवार के लिए, जिसे मैं जानता था बहुत मुश्किल हो गया जब उसकी मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद उसकी विधवा मुझसे मिलने आई और मुझे बताया कि उसे ईसाई मिशनरियों द्वारा बहुत सहायता दी जा रही है जो उसके बच्चों की शिक्षा की देखभाल कर रहे थे 'इसलिए' उसने मुझसे कहा 'इस जीवन में मैं एक ईसाई होने जा रही हूँ, पर अगले जन्म में मैं एक बौद्ध हूँगी। ज़रा देखिए - भ्रम की एक तस्वीर।"
"हमारी धार्मिक परंपराओं के बीच आपसी सम्मान के निर्माण के लिए एक ठोस आधार है। दूसरी ओर, मैंने सूचनाएँ देखी है आज जीवित ७ अरब लोगंों में से १ अरबों का दावा है कि वे धर्म में विश्वास नहीं रखते। और स्पष्ट रूप से कहा जाए तो जो विश्वास रखने का दावा करते हैं उनका अभ्यास बहुत सच्चा नहीं है। उनका कहना है कि प्रार्थना की भावना का उनके दैनिक जीवन में प्रवेश प्रतीत नहीं होता। बस ऐसा लगता है कि उनकी दैनिक प्रार्थना है 'कृपया मुझे आशीर्वाद दें कि मेरी भ्रष्ट गतिविधियों सफल हो।'"
"मैं एक क्यूबा शरणार्थी भक्त से मिला जिसने मुझसे कहा कि वह हर दिन प्रार्थना करता कि भगवान जितना शीघ्र हो सके फिदेल कास्त्रो को स्वर्ग ले जाओ। संभवतः हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि वह भ्रष्टंों को भी जल्द से जल्द स्वर्ग में ले जाए।"
परम पावन ने एक बार पुनः भारत की धर्मनिरपेक्ष धरोहर के प्रति अपनी प्रशंसा व्यक्त की। वह धर्मनिरपेक्षता, जो सुखवादी परम्परा - चारवाक के शून्यवादी के शिक्षको को भी ऋषि या साधु के रूप में स्वीकार करता है। चूँकि यह एक बहुधर्मीय समाज है इसका धर्मनिरपेक्ष संविधान है जो बिना किसी पक्षपात के सभी धर्मों के प्रति सम्मान व्यक्त करता है। उन्होंने कहा कि इस तरह का एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण आज धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार होना चाहिए।
उन्होंने सलाह दी कि हम अपने सामान्य ज्ञान और अपने आम अनुभव पर विचार करें। हम सब का जन्म अपनी माँओं से हुआ और उसके स्नेह से हम लाभान्वित हुए। हममें से जो इस तरह के स्नेह से पोषित हुए हैं वे सुखी, विश्वास से भरी भावना से बड़े होते हैं, जबकि जो इस प्रकार के स्नेह से वंचित रहते हैं वे अपने बाद के जीवन में असुरक्षा, भय और अविश्वास की भावना रख सकते हैं। उन्होंने कहा कि हममें दूसरों के लिए स्नेह और चिंता दिखाने की क्षमता है क्योंकि हमने स्वयं प्रारंभ में ही स्नेह का अनुभव किया है।
वैज्ञानिक खोज भी यह दिखाते हैं कि भय, क्रोध और घृणा, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करते हैं जबकि सौहार्दता हमारे शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार लाती है।
परम पावन ने सुझाव दिया कि हम केवल शिक्षा के माध्यम मानवता को बदलने और एक अधिक सुखपूर्ण और करुणाशील विश्व का निर्माण कर सकते हैं। इसलिए वह धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की भावना को प्रोत्साहित करने पर महत्त्व देते हैं।
"मुझे लगता है कि यह आधुनिक शिक्षा बहुत कुछ भौतिकवादी है और भौतिक मूल्यों को बढ़ावा देती है। ऐसी शिक्षा के माध्यम से हम चतुर दिमाग विकसित करते हैं पर हमें एक अच्छे हृदय को भी विकसित करने की आवश्यकता है ताकि हमारी शिक्षा, बहुत अधिक आत्म केन्द्रित न हो जाए।"
उन्होंने आगे कहा कि भ्रष्टाचार आधुनिक विश्व का कैंसर है। इसे उपेक्षित या अनदेखी नहीं, अपितु इसका समाधान करने की आवश्यकता है। उन्होंने स्मरण किया कि वह उड़ीसा में एक सांसद से बात कर रहे थे और गरीबों के लिए दिए जा रहे सहायता की कमी का रोना रो रहे थे। सांसद ने उन्हें बताया कि प्रावधान किया जाता है, पर अधिकांश धन अन्य लोगों की जेबंों में चला जाता है। उन्होंने कहा कि चीन में भी यही बात है।
"समाज की भलाई के लिए हमें अाधारभूत आंतरिक मूल्यों के बारे में लोगों को शिक्षित करना होगा। यह अहिंसा की एक लंबी परंपरा वाला देश है। हमें यह समझना है कि भ्रष्टाचार हिंसा का एक रूप है।"
सभागार से आया एक प्रश्न था कि परम पावन आंतरिक शांति के महत्त्व की बात करते हैं : "उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?" उन्होंने कहा कि इसके लिए शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता है। ऐसी समझ की आवश्यकता है कि क्रोध किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। यह हमारे मन की शांति को नष्ट कर देता है और स्पष्ट रूप से सोचने के लिए हमारी क्षमता को अंधा कर देता है। क्रोध और मोह ऐसी भावनाएँ हैं जो वास्तविकता के हमारे दृष्टिकोण को विकृत कर देती है। उन्होंने उल्लेख किया कि एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ने एक बार उन्हें बताया कि जब लोग क्रोधित होते हैं तो वे अपने क्रोध की वस्तु को पूरी तरह से नकारात्मक रूप से देखते हैं यद्यपि इस का ९०% मात्र मानसिक प्रक्षेपण है। इस तरह के एक अवास्तविक दृष्टिकोण अपनाने का सुखी परिणाम नहीं होता।
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परम पावन ने अपने अनुभव से एक अवसर का स्मरण किया जब उन्होंने मानसिक प्रशिक्षण को लागू करना व्यक्तिगत रूप से उपयोगी पाया था। १० मार्च २००८ में, १९५९ ल्हासा विद्रोह की वर्षगांठ पर, उन्हें खबर मिली कि तिब्बत में प्रदर्शन हो रहे थे। उन्होंने कहा कि संभावित प्रतिहिंसा को लेकर उन्होंने आशंकित और असहाय अनुभव किया। उन्होंने एक उपाय का प्रयोग किया जिसमें उन्होंने सम्बद्धित चीनी अधिकारियों से क्रोध, घृणा और हिंसा लेने और उन्हें प्यार तथा करुणा देने की कल्पना की। उन्होंने कहा कि जहाँ एक ओर ज़मीन पर इसका कोई व्यावहारिक प्रभाव नहीं पड़ा पर उन्हें अपने चित्त की शांति बनाए रखने में सहायता मिली।
उन्होंने ८वीं सदी के भारतीय बौद्ध आचार्य शांतिदेव को उद्धृत किया िजनकी व्यावहारिक सलाह, सामना कर रहे संकट का विश्लेषण करने की थी। यदि आप देखते हैं कि कोई समाधान है तो चिंता करने की आवश्यकता नहीं। दूसरी तरफ यदि आप देखते हैं कि कोई समाधान नहीं है तो चिंता किसी काम की नहीं है। उन्होंने इसे एक उदाहरण के रूप में रखा कि हमें किस प्रकार अपनी बुद्धि और सामान्य ज्ञान का उपयोग करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि परिवर्तन व्यक्ति के साथ शुरू होता है।
"अपने आप को बदलें, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचें, अपने परिवार और पड़ोसियों के साथ इस दृष्टिकोण को बाँटे। शिक्षा के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाने की आशा है। यह ऐसा नहीं है जो किसी सरकार या अन्य संगठनों द्वारा किया जा सके, यह व्यक्तियों के साथ प्रारंभ होता है।"
अंत में, परम पावन ने एंग्लो इंडियन विद्यालयों ने भारत के लिए जो योगदान दिया है उसकी सराहना की। उन्होंने कहा कि भारत विश्व का सबसे विशाल और सबसे अधिक जनसंख्या वाला लोकतंत्र है, और उसके लोकतंत्र, कानून का शासन, भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता ने अपने कई पड़ोसी देशों की तुलना में उसे एक अधिक स्थिर देश बनाया है। उन्होंने अपना विश्वास व्यक्त किया कि आत्मविश्वास, ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ, भारत एक सफल भविष्य का निर्माण करेगा।