सेंडाइ, जापान - ७ अप्रैल २०१४ - कल भारत से जापान आगमन के पश्चात परम पावन दलाई लामा ने नारिता से आज सेंडाइ के लिए उड़ान भरी। उड़ान उन्हें उन तटीय क्षेत्रों पर लाया, जो आज से तीन वर्ष पूर्व मार्च २०११ के विनाशकारी तोहोकु भूकंप के बाद सुनामी के कारण नष्ट हो गए थे। आज उनका विमान सेंडाइ हवाई अड्डे पर उतर पाया, जो सुनामी के फलस्वरूप जलमग्न हो गया था और जिसे बंद कर दिया गया था।
परम पावन के मियागी के नमिन कैकन सभागार के मंच, जिसे एक शिंतो पूजास्थल के रूप में पुनर्निर्मित कर दिया गया था, पर आते ही, उत्साहपूर्ण करतल ध्वनि से सभागार गूँज उठा। सुश्री कावाकामी हिरोको, जो सेंडाइ स्वागत समिति की अध्यक्षा और स्वयं एक शिंतो पुजारी हैं, ने कार्यक्रम का शुभारंभ किया तथा परम पावन का परिचय कराया। उन्होंने विश्व में शांति और संवाद के लिए उनके अथक कार्य की प्रशंसा की और ऐसी आशा जताई कि उनकी उपस्थिति तोहोकु क्षेत्र के लोगों में अत्यधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए आशा और विश्वास का संचार करेगी।
उसके बाद एक व्यापक शिंतो अनुष्ठान का आयोजन था, जो यामागाटा प्रीफेक्चर देवासनज़ मंदिर और मियागी प्रीफेक्चर ताकेकोमा मंदिर के पुजारियों द्वारा संचालित किया गया। बड़े शंखनाद की ध्वनि ने विस्तृत श्वेत चोगे और सिर पर काले पगड़ी पहने पुजारियों के आगमन को सूचित किया। दुष्कर्म और अशुद्धियों को दूर करने के िलए स्वर्ग के देवताओं की सहायता माँगते हुए एक लम्बी मंगलाचरण प्रार्थना की गई। दो रीड़ वाले हिछिरिकि और बाँसुरी की मनमोहक नाद के साथ समर्पण किए गए और शुद्धीकरण अनुष्ठान हुआ जिसमें पुजारी ने पुष्प वाले सदाबहार सकाकी वृक्ष की पत्तियों को हवा में ऊर्जावान रूप से हिलाया। उचित समय पर परम पावन को भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। समारोह का समापन एक संक्षिप्त समारोह से हुआ, जिसमें सुश्री इशिगाकी कियोमि ने कोटो (जापानी वाद्य) का वादन किया जबकि इशिगाकी सेइज़ा ने शाकुहाची (बांस की बांसुरी) बजाई।
"आज लगभग तीन वर्ष से थोड़ा अधिक समय हुआ है, जब सबसे शक्तिशाली भूकंप से जापान प्रभावित हुआ था, िजसका परिणाम स्वरूप सुनामी था, जिसने व्यापक तबाही मचाई और तत्पश्चात विकिरण की समस्याएँ उठ खड़ी हुई।" परम पावन ने प्रारंभ किया। "बहुत लोगों की मृत्यु हुई, कइयों ने अपने घर खो दिए, एक व्यापक स्तर पर दुख और उदासी छा गई है। शिंतो पुरोहितों द्वारा आज किए गए शुद्धीकरण अनुष्ठान सहायता प्रदान करने हेतु हैं। उनकी सहायता करने के उद्देश्य के कारण मेरे मन में सभी धर्मों के प्रति अत्यधिक सम्मान है, क्योंकि वे लोगों को सांत्वना प्रदान करते हैं।"
उन्होंने पहले भी अपनी शिंतो मंदिरों की यात्रा और उनकी प्रार्थना में भाग लेने की बात की, पर कहा कि उन्होंने जितने भी अनुष्ठान देखे थे यह उन सभी में सबसे अधिक विस्तृत समारोह था। उन्होंने टिप्पणी की कि प्रार्थनाएँ उसी समान थी, जो उन्होंने अन्य स्थानों पर देखा था, जिसमें देवताओं को जागरूक करने, उन्हें भेंट चढ़ाने और उनसे प्रार्थना करना शामिल था। उन्होंने समझाया कि एक बौद्ध दृष्टिकोण से परा देवता हैं, जो प्रबुद्ध होते हैं और सहायक हो सकते हैं और सांसारिक देवता हैं जो अधिक शरारती हो सकते हैं।
"भारतीय बौद्धाचार्य नागार्जुन कहते हैं यदि आप स्वयं को उदास रखते हैं तो आप उन समस्याओं पर काबू नहीं पा सकते जो आपके समक्ष मुँह बायें खड़ी है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि आप अपना उत्साह बनाए रखें और विश्वास कायम रखें कि आपने जिस काम का बीड़ा उठाया है उसे करने में आप सक्षम हैं।"
उन्होंने कहा कि जो प्रत्यक्ष रूप से भूकंप और सुनामी से प्रभावित हुए थे, वे अपने हाथ ऊपर उठाएँ और उन्होंने सभी पीड़ितों के प्रति अपनी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त की। उन्होंने २०११ के उत्तरार्ध में पीड़ितों को सांत्वना देने और उनकी पीड़ा को बाँटने के लिए िकए गए अपनी फुकुशिमा की यात्रा का स्मरण किया। जब वे रो रहे थे तो उनका दिल भी भर आया पर उस के बावजूद उन्होंने उन्हें सलाह दी थी कि निराशा से भरे रहने पर उन्हें कुछ प्राप्त न होगा। संकट के समय नैराश्य मात्र उसे अधिक करता है। उन्होंने कहा कि वे प्रायः एक प्रेरणात्मक अनुकरणीय रूप में जर्मन और जापान के लोगों का उदाहरण देते हैं कि किस अनोखेपूर्ण ढंग से उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध की राख से अपने देशों का पुनर्निर्माण किया। आत्मविश्वास, दृढ़ता और एक दृढ़ संकल्प ही इसकी कुंजी है।
"यदि त्रासदी का आक्रमण हो तो आशा मत खोओ। वस्तुओं को बेहतर बनाने के लिए उसे एक अवसर में परिवर्तित कर लो।"
उन्होंने कहा कि परिवार और मित्रों को खोना बहुत दुख की बात है पर सुझाव दिया कि यदि हम कल्पना कर लें िक वे हमें, स्वर्ग से या जहाँ कहीं भी हों, देख सकते हैं तो अपने प्रियजनों को निराश और उदास देख कर वे भी केवल उदासी से भर उठेंगे। हमें आशावादी और आशा से भरा देख कर वे प्रसन्न होेंगे। अपने स्वयं के अनुभव को आधारित कर उन्होंने कहा:
"१६ वर्ष की आयु में मैंने अपनी स्वतंत्रता खो दी और २४ वर्ष की आयु में मैंने अपना देश खो दिया। मैं ५५ वर्षों से एक शरणार्थी के रूप में रहा हूँ पर फिर भी मैंने आशा नहीं छोड़ी और न ही निराशा को घऱ करने दिया। मनुष्य के रूप में हम सभी के भाई और बहनें हैं जो हमारी सहायता के लिए आते हैं। आप जापानी, आज जीवित ७ अरब लोगों का एक अंग हैं जिनकी भावनाएँ और अनुभूतियाँ आपके ही समान हैं।"
उन्होंने उल्लेख किया कि जब तिब्बती शरणार्थियों व्यवस्थित करने के लिए भारत के विभिन्न भागों में भूमि दी गई तो उसमें से अधिकांश अदम्य जंगल था। विशेष रूप से एक स्थान बहुत गर्म भी था। प्रारंभ में वहाँ लोगों ने अनुरोध किया कि उन्हें कहीं अन्यत्र स्थानांतरित किया जाए और कहा कि वहाँ इतनी अधिक गर्मी है कि निश्चित रूप से उनकी मृत्यु हो जाएगी। परम पावन ने सलाह दी कि स्थिति को सरलता से लें, जब धूप प्रचंड हो तो छाया में रहें और एक वर्ष पश्चात जब वे वहाँ गए तो उनकी मृत्यु नहीं हुई थी। समय रहते वह एक सफल आवास बन गया जिसकी हाल ही में उन्होंने यात्रा की थी। उन्होंने दोहराया कि दृढ़ता और दृढ़ संकल्प पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
खिलखिलाते हँसी के साथ परम पावन ने जापानियों की प्रशंसा की, जो अपने हर कार्य पर इतना अधिक ध्यान देते हैं। उन्होंने आगे कहा कि १९६७ में अपनी पहली यात्रा से ही उन्होंने देखा कि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अच्छा उपयोग करते हुए, जापान में अभी भी शिंतोवाद और बौद्ध धर्म के रूप में सशक्त आध्यात्मिक परंपरा है। भौतिक विकास को आध्यात्मिक या आंतरिक मूल्यों के साथ जोड़ने की क्षमता है। वयोवृद्धों के प्रति सम्मान और बच्चों का अपने माता - पिता के प्रति सम्मान जैसी परंपरा संरक्षण योग्य हैं। परन्तु उन्होेंने उल्लेख किया कि बहुत अधिक गंभीरता और एक कृत्रिम मुस्कान में पाखंड की ओर बहाव का संकट है। तत्पश्चात फिर से हँसते हुए वे बोले कि उन्हें एक ही शिकायत है और वह यह कि जापानी भोजन प्रायः देखने में बहुत सुंदर होता है तथा उत्कृष्ट सामग्री से बना होता है पर पेट भरने हेतु पर्याप्त नहीं होता।
"आप को यह परीक्षण करना चाहिए कि जो आप करना चाहते हैं वह वास्तव में संभव है। अपने लक्ष्य को लेकर खोज करो और एक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाओ। श्रेष्ठ की आशा रखो पर सबसे बुरे के लिए तैयार रहो। ईमानदार, सच्चे और दूसरों के कल्याण के लिए चिंतित रहो। इसके स्थान पर आत्म - केन्द्रित होना भय और संदेह की ओर ले जाता है, जो अधिकांशतः एकाकीपन पर समाप्त होता है।"
प्रार्थना के विषय में उन्होंने कहा कि ऐसी परम्पराओं में जो सृजनकर्ता पर विश्वास करते हैं, ईश्वर से प्रार्थना करने में कुछ अर्थ है। परन्तु बौद्ध दृष्टिकोण से उदाहरणार्थ, हृदय सूत्र में प्रार्थना से अधिक वास्तविकता का वर्णन है। और वास्तविकता को समझ कर ही हम अज्ञान का मुकाबला करते हैं। प्रज्ञा एक प्राथमिक कारक है जिसके आधार पर बौद्ध श्रद्धा और करुणा का विकास करते हैं।
ऐसी महिला से जिसने तीन वर्षों की कठिन परिस्थितियों से जूझने की कठिनाइयों को वर्णित किया, परम पावन ने शांतिदेव का उद्धरण दिया कि यदि किसी समस्या का समाधान है तो उस पर चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं और यदि नहीं है तो चिंता से कोई लाभ न होगा। पुनर्जन्म की व्याख्या करने का अनुरोध करते हुए एक प्रश्न पर उन्होंने कहा कि इसके लिए उन्हें एक सप्ताह लगेगा और इस पर और जानने के लिए पुस्तकें पढ़ना बेहतर होगा। यह पूछे जाने पर कि वह क्या है जिसने उन्हें सुख दिया है परम पावन ने उत्तर दिया:
"एक भिक्षु होना, एक बौद्ध भिक्षु होना और नालंदा परंपरा का अनुयायी होना। किसी विषय कोे पढ़ते हुए जब मैं एक नई समझ की अनुभूति करता हूँ तो वह मुझे बहुत संतोष देता है। बोधिचित्त और शून्यता के चिंतन से मुझे सच्चे आनंद की अनुभूति होती है।"
उन्होंने शांतिदेव कृत 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अपने प्रिय श्लोक का पाठ करते हुए समाप्त किया:
जब तक अाकाश स्थित है
और जब तक सत्त्व रहे।
तब तक मेरी भी स्थिति बनी रहे
प्राणियों के दुखों का नाश करने हेतु।।