"आज मैं आशा करता हूँ कि भारतीयों की युवा पीढ़ी प्राचीन भारतीय साहित्य में निहित चित्त और भावनाओं के ज्ञान की ओर अधिक ध्यान देगी तथा अपनी आधुनिक शिक्षा के गुणों के साथ उन्हें जोड़ेगी। मैं कभी कभी अपने भारतीय मित्रों से शिकायत करता हूँ कि मंदिर बहुत हैं पर पर्याप्त शिक्षा के केन्द्र नहीं है। परन्तु मैं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगभग ७० वर्षों में, दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले लोकतंत्र भारत के विकास को देख प्रभावित हूँ। क्या नेहरू ने भारत की तुलना एक हाथी से नहीं की, जिसे खड़े होने में समय लग सकता है, किन्तु एक बार ऐसा करने पर सशक्त तथा और स्थिर रहेगा?"
जब इस समूह ने कहा कि वे केवल परम पावन का आशीर्वाद चाहते थे, तो उन्होंने वही कहा जो उन्होंने मुंबई के एक धनी परिवार से कहा था जिन्होंने यही माँगा था। उन्होंने कहा कि उनके पास उन्हें देने के लिए ऐसा कुछ नहीं था, पर आशीर्वाद का स्रोत उनके अपने हाथों में था। वे धनवान थे और मुंबई में रहते थे जहाँ हज़ारों निर्धन और बेघर हैं। उन्होंने कहा कि यदि वे अपने धन के कुछ हिस्से को जरूरतमंदों की स्वास्थ्य और शिक्षा की सहायता में लगाएँ तो वे अपना आशीर्वाद स्वयं ही निर्मित कर लेंगे।
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दूसरा दल, जिनसे परम पावन आज मिले, वे चीनी थे और उन्होंने उनका हार्दिक अभिनन्दन किया और स्मरण दिलाया कि आज चीन में विश्व के बौद्धों की सबसे बड़ी संख्या है। पीकिंग विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या ३०० अरब से अधिक है जिनमें से अधिकांशतः शिक्षित लोग हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री शी जिनपिंग ने बौद्ध धर्म को चीन के महत्त्वपूर्ण परंपराओं में से एक होने की घोषणा की है। यह महत्त्वपूर्ण है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चार पुराने के विरुद्ध अभियान के समय बौद्ध धर्म को नष्ट करने के प्रयासों के बाद, चीनी नेताओं की पांचवीं पीढ़ी अब इसके महत्त्व को स्वीकार करते हैं।
"आज, चीन में धनवानों और निर्धनों के बीच एक बड़ा अंतर है। मैं गाँवों के किसानों से मिला हूँ जो बताते हैं कि उनकी कितनी कठिनाइयाँ हैं और उनकी सहायता करने के िलए कोई नहीं है। स्थानीय अधिकारियों को केवल अपने पैसे और सत्ता की ही चिन्ता है। इसलिए जब तीसरे प्लेनम के दौरान शी जिनपिंग ने कृषकों की आवश्यकता तथा चीनी न्यायपालिका में सुधार की बात की, तो मैं बड़ा प्रोत्साहित हुआ। एक चीनी विद्वान, जिनसे मैं न्यूयॉर्क में मिला था, ने बताया कि नैतिक ह्रास के वातावरण में बौद्ध धर्म का बड़ा योगदान हो सकता है।"
परम पावन ने १९६० के दशक से प्रचार के एक अंश का स्मरण किया, जिसमें कहा गया था कि बौद्ध धर्म केवल अंधविश्वास का एक विषय था, जो वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के साथ गायब हो जाएगा। जिसने भी यह लिखा हो, वह विख्यात आधुनिक वैज्ञानिकों में बौद्ध धर्म और चित्त तथा भावनाओं के बारे में और प्राचीन भारतीय खोज के प्रति जो रुचि और सम्मान है, उसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाएगा।
"इन दिनों मैं बौद्धों को २१वीं सदी का बौद्ध होने की सलाह देता हूँ, जिसका अर्थ यह जानने के लिए कि वास्तव में बौद्ध धर्म क्या है उन्हें अध्ययन की आवश्यकता है। कल मैं एक दो बौद्ध ग्रंथों पर प्रवचन दूँगा और उसमें आने के लिए आप का स्वागत है।"
उन्हें उत्सुकता से सुन रहे लोगों में से िकए गए प्रश्नों में परम पावन से अंग दान के विषय में पूछा गया। उन्होंने खंगसर रिनपोछे का उल्लेख किया, जिन्होंने विशेष रूप से कहा था कि अंतिम संस्कार करने के बजाय उनके शरीर को पक्षियों को खिलाया जाए क्योंकि वह चाहते थे कि यह दूसरों के लिए काम आए। अंग दान के सिद्धांत की प्रशंसा करते हुए, परम पावन मृत्यु से पूर्व अंगों को निकालने को लेकर चिंतित थे। उन्होंने फालुंग गोंग के बंदी सदस्यों साथ ऐसा होने की सूचना के बारे में सुना है।
उन मरणासन्न लोगों के लिए जो चिंतित हैं, उन्होंने कहा, मृत्यु आएगी। यदि आपने अपने शरीर, वाणी और मन का प्रयोग सार्थक उपयोग के लिए किया है तो आप एक अच्छे पुनर्जन्म के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं। उन्होंने एक तिब्बती कहावत को उद्धृत करते हुए कहा कि, श्रेष्ठ बौद्ध अभ्यासी मृत्यु का स्वागत करते हैं; मंझले लोग दुखी नहीं होते और यहाँ तक कि निम्नतम श्रेणी के अभ्यासी भी मृत्यु से बिना पश्चाताप के मिलते हैं। इसलिए, सबसे अच्छा यही है कि मृत्यु के विषय में चिंता न करें अपितु एक अच्छा जीवन जिएँ।
एक महिला ने परम पावन को बताया कि वह काम करने के साथ साथ अध्ययन भी कर रही है, जबकि उसके नियोक्ता इसे लेकर कठोर हैं, तो वह क्या करे। उन्होंने प्रथमतः उसे मंजुश्री मंत्र के जाप की सलाह दी और फिर उनके सामने एकत्रित लोगों को तत्काल मंजुश्री आशीर्वाद देने का निश्चय किया।
उन्होंने उनसे मंजुश्री की कल्पना करने के लिए कहा, जिनके दाहिने हाथ में प्रज्ञा की एक ज्वलंत तलवार थी तथा दूसरे में वे कमल की डंठल पकड़े थे जिस पर एक पुस्तक धारित थी, उन के शीर्ष पर, उनकी भौंहों, ग्रीवा और हृदय से झरता प्रकाश उन्हें आप्लावित कर रहा था। उन्होंने कहा कि वे उनके पीछे मंत्र को दोहराएँ और कहा कि इससे उन्हें व्यापक, स्पष्ट, गहन और प्रत्युत्पन्न प्रज्ञा का विकास करने में सहायता प्राप्त होगी। उन्होंने उनसे प्रत्येक दिन प्रातः उस मंत्र का जाप करने की सलाह दी और कहा कि एक साँस में वे जितनी बार धी का उच्चारण कर सकते हों, करें। उन्होंने उनसे कहा इस अभ्यास को वह बाल्यकाल से ही करते थे और जिसका अच्छा प्रभाव था। इसके अतिरिक्त उन्होंने २१ अथवा १०० की गिनती तक अपनी साँस पर ध्यान देते हुए जागरूकता के विकास की सलाह दी।
एक प्रश्न के उत्तर में, जो दूसरा मुद्दा उन्होंने उठाया वह तिब्बती बौद्ध अनुयायियों के बीच सांप्रदायिकता का था। उन्होंने कहा कि यह अज्ञान का परिणाम है और कई तिब्बती आचार्यों के नाम गिनाए जिन्होंने एक व्यापक और सांसारिक दृष्टिकोण अपनाया था, जिनमें जे चोंखापा, गेदुन ज्ञाछो, द्वितीय दलाई लामा और अधिक हाल ही में जमयंग खेनचे वंगपो, दिलगो खेनचे रिनपोछे और ठुलशिग रिनपोछे थे। उन्होंने टिप्पणी की, कि अंततः सभी तिब्बत की बौद्ध परंपराओं का स्रोत नालंदा रहा है।
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तीसरे दल, जिनके साथ परम पावन ने भेंट की, वे सोतो ज़ेन परंपरा के भिक्षु और समर्थक थे, एक सामाजिक रूप से जागरूक समूह, जो अपने बौद्ध अभ्यास के अतिरिक्त जेल के लोगों के लिए आध्यात्मिक सलाहकार का भी कार्य करते हैं। वे उन लोगों के लिए भी अपने समर्थन में सक्रिय थे, जिनका जीवन बड़े तोहोकू भूकंप और उसके परिणामों से ध्वस्त हो गया था। उनका नारा है: 'मानव अधिकारों के प्रति सम्मान, शांति की स्थापना और पर्यावरण की सुरक्षा।'