परम पावन ने समझाया कि ईश्वरवादी संदर्भ में एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास रहता है, परन्तु गैर आस्तिक संदर्भ में कार्य - कारण भाव में विश्वास है। अतीत में दोनों दृष्टिकोण मानवता के लिए महान रूप से लाभकारी रहे हैं और भविष्य में भी यह निरंतर रहेगें। जो ये विश्वास करते हैं कि उनका सृजन ईश्वर ने किया है, वे प्रत्येक में ईश्वर की छवि देखते हैं। दूसरी ओर बौद्ध हर किसी में तथागतगर्भता होने की बात करते हैं। गैर आस्तिक परंपराओं में अपने स्वयं के प्रयास पर अधिक बल है। यदि हम सकारात्मक कर्म करते हैं, तो हमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। वे कर्म जो आनंद देते हैं, हम उन्हें सकारात्मक मानते हैं, वे कर्म जो दुख भड़काते हैं, हम उन्हें नकारात्मक मानते हैं। परम पावन ने कहा:
"मेरे कुछ मित्र जो डॉ. अम्बेडकर के अनुयायी हैं, उन्हें 'कर्म' शब्द अरुचिकर है क्योंकि यह प्रमुख जातियों द्वारा जाति व्यवस्था का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ आलसी और पराजित तिब्बती भी हैं, जो ये कहते हैं कि चूँकि सब कुछ कर्म पर निर्भर है, तो करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। परन्तु हमें और अधिक प्रबल कर्म जनित करने के लिए कार्य करना होगा, जिससे हम अपने नकारात्मक कर्मों को निष्प्रभावित कर सकते हैं। प्रबल सकारात्मक कार्य पहले के नकारात्मक कर्मों को परिपक्व होने से रोक सकता है। यह निर्भर करता है कि हम क्या करते हैं और इसलिए बुद्ध ने कहा कि हम स्वयं अपने स्वामी हैं।"
"हम बौद्ध, शरीर और चित्त से पृथक आत्मा में विश्वास नहीं करते। हम कहते हैं कि यद्यपि कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है, पर शरीर और चित्त पर निर्भर एक आत्मा का अस्तित्व है।"
कुछ लोग बौद्ध धर्म को एक धर्म के रूप में इतना नहीं पर अधिकतर चित्त के विज्ञान के रूप में वर्णित करते हैं। वास्तव में वे भारतीय परंपराएँ जो एकाग्रता और अंतर्दृष्टि को प्रशिक्षित करती हैं, के पास चित्त के प्रकार्यों की निधि है। इस बीच माध्यमक और क्वांटम भौतिकी एक समान दृष्टिकोण अपनाते हैं। भारतीय परमाणु भौतिकविद् राजा रामण्णा ने एक बार परम पावन को बताया कि जब उन्होंने नागार्जुन को पढ़ा और उसमें क्वांटम भौतिकी के दृष्टिकोण की प्रतिध्वनि सुनी तो उन्होंने गर्व का अनुभव किया। वे भावनाएँ जो हमारे आंतरिक शांति को नष्ट करती हैं, उनसे निपटने की जानकारी की भी सम्पदा है।
एक अलग विषय पर बोलते हुए परम पावन ने कहा कि भारत में प्रमुख धार्मिक परंपराएँ एक लंबे समय से साथ साथ रही हैं। उन्होंने श्री आडवाणी को उद्धृत करते हुए कहा कि भारत में अहिंसा और दूसरों के अधिकारों और विचारों के प्रति सम्मान होने के कारण लोकतंत्र सफल हुआ है। उन्होंने अपना विश्वास बनाए रखते हुए, दूसरों के विश्वास का सम्मान करने की सराहना की। अंतर्धार्मिक सद्भाव एक दीर्घकालीन भारतीय परंपरा है और एक जीवंत उदाहरण है कि यह संभव है। परम पावन ने कहा कि जब भी वे विदेश यात्रा पर जाते हैं तो स्वयं को भारत का संदेशवाहक मानते हैं।
यदि नैतिकता मात्र एक धार्मिक परंपरा पर निर्भर हो तो उसका प्रभाव सीमित होगा, जबकि नैतिकता को ७ अरब मनुष्यों के लिए सुलभ होना चाहिए, जिनमें ऐसे १ अरब लोग शामिल हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते। उन्होंने कहा कि इसलिए हमें धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की एक प्रणाली की आवश्यकता है और उल्लेख किया कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का एक कार्यक्रम स्कूलों में प्रयोग के लिए तैयार किया जा रहा है।
मध्याह्न भोजन के अंतराल के पश्चात परम पावन ने पुनः प्रारंभ किया, यह स्पष्ट करते हुए कि कुछ, ईसाई और मुस्लिम मित्रों ने विरोध किया है कि धर्मनिरपेक्षता, नास्तिकता, धर्म विरोधी जैसी प्रतीत हो सकती हैं। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय समझ के अनुसार एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण वह है, जो भी सभी धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता है और उनका भी जो किसी में विश्वास नहीं करते। उन्होंने जारी रखा:
"यदि हम सच्चे, ईमानदार और दूसरों के कल्याण के प्रति सच्ची चिंता, उनके प्रति सम्मान की भावना रखते है, तो वहाँ धमकाने, शोषण करने या धोखा देने का कोई स्थान नहीं होता। एक अधिक करुणाशील चित्त अपने साथ आत्मविश्वास लाता है जो ईमानदारी, सच्चाई और पारदर्शिता को जन्म देता है। इसलिए, धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का वास्तविक अर्थ, सौहार्दता की भावना है। यह आवश्यक नहीं है कि यह सौहार्दता किसी धार्मिक विश्वास से आता हो, अपितु यह स्नेह की हमारी नैसर्गिक भावना से आता है। उदाहरणार्थ कुत्ते और बिल्ली सच्चे स्नेह को समझते हैं। वे अपने ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जैसे यद्यपि कुत्ते मुस्कुरा नहीं सकते पर वे अपनी दुम हिलाते हैं, जबकि बिल्लियाँ म्याऊँ करती हुई अपने पंजे पीछे करती हैं।"
हम सभी अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, अतः हमें स्नेह की आवश्यकता है। परन्तु यह जैविक कारक केवल मित्रों और सगे संबंधियों पर लागू होता प्रतीत होता है। यह समझने के लिए हमारी बुद्धि की आवश्यकता होती है कि एक दुश्मन भी एक मनुष्य, एक मानव भाई या बहन होता है, जिसके प्रति हम प्रेम और करुणा बढ़ा सकते हैं। केवल मनुष्य ऐसा कर सकते हैं। परम पावन ने समझाया कि करुणा सुख का स्रोत है, जबकि आत्मकेन्द्रिता अंततः हिंसा की ओर ले जाती है। यह उल्लेख करते हुए कि कई मामलों में भ्रष्टाचार भी हिंसा का एक रूप है, उन्होंने सलाह दी कि अहिंसा के अभ्यास में ईमानदार और सच्चे होने को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमारे कार्यों की गुणवत्ता, फिर वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, हमारी प्रेरणा पर निर्भर करती है। इसी कारण हमें अपने चित्त को परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
बुद्ध की शिक्षा के संबंध में, उन्होंने एक अनुरोध के प्रत्युत्तर में शिक्षा दी। वाराणसी में उन्होंने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी, प्रकृति के संदर्भ में उन्हें तीन बार समझाया - कि दुख है, उसका कारण, निरोध और मार्ग, प्रकार्य के संदर्भ में - कि हमें दुख को जानना चाहिए, उसके हेतुओं पर काबू पाना चाहिए और मार्ग का अनुशीलन करते हुए निरोध प्राप्त करना चाहिए, और परिणाम के संदर्भ में - हेतुओं को नष्ट करने के बाद, दुख पर काबू पाया जा सकता है, मार्ग का अनुशीलन कर हम निरोध को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि दुख को समझने के पश्चात कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता, हेतुओं को नष्ट करने के बाद, कुछ नष्ट करना शेष नहीं रह जाता, निरोध प्राप्ति के बाद कोई और प्राप्ति शेष नहीं रह जाती, तथा मार्ग का विकास करने के बाद, कुछ और विकसित करना नहीं रह जाता।