कोयासन, जापान - १४ अप्रैल २०१४ - कल के विपरीत आज की प्रातः उज्जवल थी जब दलाई लामा ने कोयासन विश्वविद्यालय सभागार में प्रवेश किया। वैरोचन - अभिसम्बोधि दीक्षा जो वे देने वाले थे उसके िलए वे प्रारंभिक अनुष्ठान करना था ।
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नमज्ञल विहार के भिक्षुओं का एक दल उनकी सहायता के लिए उपस्थित था जिसमें विहाराध्यक्ष और लोपोन शािमल थे, जिनका नेतृत्व पूर्व विहाराध्यक्ष जदो रिनपोछे कर रहे थे। यह दल इस महीने पहले ही पहँुच चुका था और दीक्षा के िलए एक विस्तृत रेत मंडल का निर्माण करने में कई दिनों से कार्यरत् था। आज प्रातः वे परम पावन के साथ बैठ वे आत्म दीक्षा और प्रारंभिक अनुष्ठान का जाप कर रहे थे जिसके साथ विस्तृत मुद्राएँ भी थी।
प्रातः सत्र के शेष समय में, परम पावन ने 'चित्त शोधन की अष्ट कारिका' की एक संक्षिप्त व्याख्या की।
"जैसा मैंने कल कहा था," उन्होंने प्रारंभ किया, "बुद्धत्व का मुख्य कारण बोधिचित्त है। यदि आप में बोधिचित्त है तो आप बुद्धत्व की प्राप्ति होगी। हृदय सूत्र में यह कहा गया है कि भूत, वर्तमान और भविष्य के बुद्ध पूरी तरह से प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए प्रज्ञा पर आश्रित रहते हैं। यदि आप में शून्यता की समझ है, किन्तु आप मुक्ति के िलए प्रेरित हैं तो यह आपको वहाँ तक ले जाएगा, यदि आप में बोधिचित्त है तो तभी वह आप को बुद्धत्व तक ले जाएगा। बोधिचित्त के दो अंग हैं, दूसरों के हित की कामना करना और बुद्धत्व प्राप्ति की कामना।"
"बुद्धत्व सर्वज्ञता का पर्याय है, जो कि आवश्यक है क्योंकि यदि आप नहीं जानते कि उन्हें क्या आवश्यक है तो आप गलती कर सकते हैं और उन्हें हानि पहुँचा सकते हैं। और सर्वज्ञता को प्राप्त करने के लिए हमें ज्ञान के अवरोधों पर काबू पाने की आवश्यकता है। चन्द्रकीर्ति का 'प्रसन्नपदा' इन्हें नकारात्मक भावनाओं द्वारा अंकित अव्यक्त क्षमता के रूप में परिभाषित करता है। जब तक इनकी उपस्थिति है, अद्वैत दृश्य बना रहता है। भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी बुद्ध बोधिचित्त और शून्यता की समझ के आधार पर प्रबुद्ध हुए हैं।"
परम पावन ने दोहराया कि प्रबुद्धता की प्राप्ति के लिए बोधिचित्त अनिवार्य है। पर उच्चतर जन्म प्राप्त करने के लिए भी इससे बड़ा कोई और कारक नहीं है, क्योंकि यह स्वाभाविक रूप से हत्या और अन्य हानिकारक कार्यों पर संयम लाता है जो निम्न जन्मों की ओर ले जाता है। नागार्जुन अपनी 'रत्नावली' में परात्मपरिवर्तन के अभ्यास की प्रशंसा करते हैं और शांतिदेव कहते हैं सुख का कोई और बड़ा कारण नहीं है। बोधिचित्त स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए जो अच्छा है, उसका स्रोत है। दूसरी ओर, परम पावन ने कहा, आप जितने और अधिक स्वार्थी होेंगे, आप उतना अधिक दूसरों को 'मैं' और 'उन' कहकर देखते हुए स्वयं को दूसरों से दूर करेंगे।
'चित्त शोधन की अष्ट कारिका' जो मूलतः बोधिचित्त के अभ्यास के विषय में है, के लेखक गेशे लंगरी थंगपा, गेशे पोतोवा के प्रमुख शिष्यों में से एक थे, जो अतीश के प्रमुख शिष्य डोम तोनपा के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। परम पावन ने इंगित किया कि मूल तिब्बती में प्रत्येक पद की भावना जानबूझकर ऐसा कहना है कि, 'मैं ऐसा करूँगा ... ' या 'मैं ... वैसा करूँगा' पर जब इसका उपयोग एक पाठ के ग्रंथ के रूप में होता है तो हम ऐसा कहते हैं कि 'मैं ऐसा करूँ ...' या 'मैं वैसा करूँ …।'
पहले पद से प्रारंभ करते हुए परम पावन ने समझाया कि दूसरों का ध्यान रखना, उन्हें निम्न स्तर पर देखना और उन्हें अपने से अधिक महत्त्वपूर्ण समझना नहीं है। इसमें ऐसी स्वीकृति है कि सभी सांसारिक सफलताएँ अन्य सत्वों पर निर्भरता होकर आती हैं। उच्चतर पुनर्जन्म अन्य प्राणियों पर निर्भरता होकर प्राप्त होता है। सर्वज्ञता अन्य प्राणियों पर निर्भर होकर आती है। प्रश्न यह उठता है कि हम बुद्ध के प्रति सम्मान क्यों अभिव्यक्त करते हैं, पर अन्य प्राणियों के प्रति नहीं। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि सत्वों के प्रति करुणा, बीज और फसल दोनों हैं। चूँकि सत्व हमारे प्रति दयालु हैं, हमें कृतज्ञ होना चािहए और उन्हें परम समझ कर ध्यान रखना चाहिए।
यह सुझाव देते हुए कि हमें इस बात की ओर ध्यान देना है कि किस प्रकार अपने भाषा के प्रयोग से हम दूसरों को बाहर कर देते हैं, उन्होंने कहा:
"मैं स्वयं से कहता हूँ कि एक बौद्ध भिक्षु, बुद्ध के अनुयायी शुद्ध प्रामाणिक नालंदा की परंपरा का अनुयायी के रूप में यदि आप दूसरों के प्रति ध्यान देने में असमर्थ हैं तो आप को स्वयं को निम्नतम समझना चाहिए।"
चूँकि हम अपने आप को सच्चे अस्तित्व से चिपकाए रखते हैं और अपना ही ध्यान करते हैं, हम क्लेशों से प्रभावित हो जाते हैं। चौथे पद में नकारात्मक संदर्भित लोगों में, परम पावन ने सुझाया कि हम गंभीर बीमारी से आक्रांत लोगों को शामिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि हाल ही उन्होंने दिल्ली में एक कुष्ठ रोग क्लिनिक की यात्रा की थी जहाँ सासाकावा नाम के एक जापानी बीमारी से पीड़ित लोगों को सहायता और समर्थन प्रदान करते हैं।
"ये लोग प्रायः लांछित होते हैं और उन्हें दुर्भावना का सामना करना पड़ता है, पर जैसे मैंने वहाँ भारतीय अधिकारियों से कहा कि वे मनुष्य हैं, हम जैसे लोग हैं, पर फिर भी उन्हें बाहर कर दिया गया है।"
जब कोई आपका अपमान करे या आपसे बुरा व्यवहार करे तो उसके बदले भला करना बहुत कठिन है, विशेषकर यदि आपने पहले भी उनकी सहायता करने का प्रयास किया था। धैर्य का अभ्यास करना बहुत महत्त्वपूर्ण है और आप को उनके प्रति आभारी होना चाहिए कि वह आपको ऐसा करने का अवसर दे रहे हैं। परम पावन ने समझाया कि परात्मपरिवर्तन का अभ्यास का वर्णन, 'मैं अपनी माताओं के लिए सभी सहायता दूँ और उनकी सभी नकारात्मकता मुझ पर परिपक्व हों' संभवतः उनकी सहायता नहीं कर सकता पर यह आपका साहस और आत्मविश्वास निर्मित करता है।
अंतिम पद संदर्भित करता है कि आपका अभ्यास सांसारिक चिंताओं से मलिन न हो, जैसे प्रशंसा और पुरस्कार की कामना। समाधान है, कि सभी वस्तुओं को मायोपम मानकर देखना। परम पावन ने टिप्पणी की कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में पुद्गल नैरात्म्य का संदर्भ दिया गया है, परन्तु द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन, प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ समझाती है कि वस्तुएँ आंतरिक अस्तित्व से शून्य होती है। चूँकि फिर भी वस्तुएँ आंतरिक अस्तित्व लिए जान पड़ती हैं, यद्यपि आप जानते हैं कि वे नहीं है, तो उन्हें मायोपम माने। यह उस दृश्य से चिपकने से बचने के लिए है जो कि क्रोध और राग जैसी भावनाओं के उत्पन्न होने का आधार है। सभी क्लेशों में अज्ञान व्याप्त है। अज्ञान पर काबू कर हम अपने क्लेशों पर काबू कर पाएँगे। परम पावन ने निष्कर्ष रूप में कहा:
"लंगरी थंगपा का यह ग्रंथ बोधिचित्त के अभ्यास पर बल देता है। इसे और 'अनुभव गीत', जो कल मैंने समझाया था, को कंठस्थ करना अच्छा होगा ताकि वे जो शिक्षा दे रहे हैं उनको आप नित्य प्रति जीवन में व्यवहार में ला सकें। अब, यह लगभग मध्याह्न है और अब समय है भोजन दीक्षा का।"
मध्याह्न भोजनोपरांत, परम पावन ने यह संकेत देते हुए प्रारंभ किया कि महायान में पारमितायान, वज्रयान आते हैं। पारमितायान का पालन करते हुए आप मार्ग का विकास करते हैं, चार मार्गो से विकास करते हुए पाँचवे पर पहुँचना, जो बुद्धत्व है। वज्रयान में, वर्तमान में आप बुद्धत्व की चार विशुद्ध अवस्थाओं का विकास करते हैं - विशुद्ध काय, विशुद्ध वातावरण, विशुद्ध स्रोत और विशुद्ध गतिविधि और मार्ग का पालन करते हैं। वज्रयान का अभ्यास गुह्य रूप से होता है, इसे गुह्य रूप से संदर्भित किया जाता है क्योंकि बुद्ध ने मात्र चुने शिष्यों को इसकी शिक्षा दी थी। कुछ मंडलों में वे भिक्षु रूप में दिखाई दिए, पर अधिकांशतः वे मंडलेश्वर के रूप में प्रकट हुए। मंत्र, परम पावन ने समझाया, मन के परिरक्षण के रूप में समझा जा सकता है; साधारण दृश्य से परिरक्षण।
उन्होंने टिप्पणी की कि वैरोचन - अभिसम्बोधि दीक्षा का संबंध तंत्र की द्वितीय श्रेणी, क्रिया तंत्र से है, जो उन्होंने धर्मशाला के चुगलगखंग में लिंग रिनपोछे से प्राप्त किया था और उसके बाद उन्होंने एकांतवास योजना की। अंत में उन्होंने कहा कि लक्ष्य सभी सत्वों के अस्थायी और परम उद्देश्यों को पूरा करना है और महत्त्वपूर्ण बात करुणा का विकास और शून्यता की समझ है।
इसके साथ वह पास के कोंगो बू जी मंदिर में अपने कमरे में लौट आए। टोक्यो की यात्रा से पहले, कल वह एक सार्वजनिक व्याख्यान और जनता को प्रश्न पूछने का अवसर देने के लिए सभागार लौटेंगे।