धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत - ४ दिसंबर २०१४ - उस समय ठंड तथा अंधेरा था, जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा चेनेरेज़िग ज्ञलवा ज्ञाछो - अवलोकितेश्वर जिनसागर का अभिषेक, जो वे प्रदत्त करने वाले थे, की तैयारी हेतु थेगछेन छोलिंग चुगलगखंग पहुँचे। मंदिर और उसके चारों ओर के अहाते तथा उद्यान शनैः शनैः लोगों से भरने लगे, जब तक कि अनुमानतः ५००० एकत्रित हो चुके थे। वे ओम मणि पद्मे हुँ का जाप करते हुए मौन भाव से बैठे थे तथा परम पावन के प्रवचन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
"ऐसी मान्यता है कि बुद्ध की देशना में पारमितायान तथा वज्रयान शािमल हैं," परम पावन ने प्रारंभ किया । "पारमितायान में हम बोधिचित्तोत्पाद का विकास करते हैं तथा पारमिताओं का अभ्यास करते हैं। हम पंच मार्गों तथा दश भूमि का अनुसरण करते हैं। वज्रयान में अन्य प्रकार्य सम्मिलित हैं जैसे महासुख का विकास तथा सूक्ष्म चित्त और वायु ऊर्जा का प्रयोग। इन सबसे हम तथागत काय की प्राप्ति करते हैं। नागार्जुन ने कहा कि प्रबुद्धता का अर्थ चित्त तथा काय की समरसता है। तथा ऐसी आवश्यकता है उसे प्रशिक्षण के स्तर पर विकसित किया गया हो। अभ्यास की विभिन्न परम्पराओं में इस चित्त और काय की समरसता के विभिन्न नाम हैं। ज़ोगछेन में इसे इंद्रधनुषी काय तथा कालचक्र में रूप शून्यता के काय से संदर्भित किया जाता है।"
परम पावन ने बताया कि कितने लोग धन या दीर्घायु की कामना, यहाँ तक कि अपने शत्रुओं पर काबू पाने की इच्छा से अभिषेक प्राप्त करते हैं। इससे उनके इस जीवन की वस्तुओं से अति व्यस्तता प्रकट होती है। यह बुद्ध की देशनाओं का उद्देश्य नहीं है। यहाँ तक कि सद्गति की प्राप्ति भी बुद्ध के शिक्षण का विशिष्ट उद्देश्य नहीं है, क्योंकि यह तो अधिकांश धार्मिक शिक्षाओं के अनुसरण से प्राप्त हो सकता है। बुद्ध के निर्देश का विशिष्ट लक्ष्य मुक्ति है। और हम मुक्ति को शून्यता की समझ के आधार पर ही प्राप्त कर सकेंगे।