बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - २५ दिसम्बर २०१३ - यद्यपि संपूर्ण प्रवचन सेरा जे महाविहार के आच्छादित प्रांगण में हो रहा है, परम पावन पहले सप्ताह सेरा मे, में निवास कर रहे हैं। एक विहार से होते हुए दूसरी तक संकरी गलियों के रास्ते गाड़ी से कम समय का रास्ता है, पर भीड़ के कारण, कार से उनके आसन तक पहुँचने का रास्ता लंबा है। पर आज परम पावन ने रास्ते में लोगों के साथ बातचीत कर, किसी पुराने दोस्त की दृष्टि पकड़ते, किसी अन्य की तरफ देख हाथ हिलाते, और उनकी ओर बढ़े कई हाथंों से हाथ मिलाने का आनंद लिया।
"मैं यह देखकर आज बहुत खुश हूँ कि आप इतने लोग यहाँ आए हैं", उन्होंने प्रारंभ किया। "हमने पिछले वर्ष लमरिम या पथक्रम के ग्रंथों का प्रवचन प्रारंभ किया। उनमें से कुछ हम पहले ही समाप्त कर चुके हैं। देखना है कि हम कैसे प्रारंभ करें और मेरी आँखों पर बिना ज़ोर दिए हम कितना कर पाते हैं। हम इस जीवन को अधिक से अधिक सार्थक बनाने के लिए यहाँ जमा हुए हैं जिससे एक अच्छा आगामी जीवन सुनिश्चित होगा। सबसे पहले हम शाक्यमुनि बुद्ध की स्तुति करेंगे और उसके पश्चात लमरिम परम्परा की प्रार्थना करेंगे।"
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उन्होंने सलाह दी कि प्रवचन का विषय जो भी हो, हमें एक उचित प्रेरणा निर्धारित करने की आवश्यकता है। एक कार्य सकारात्मक है अथवा नहीं वह उस प्रेरणा पर निर्भर करता है जिससे हम उसे करते हैं। यह एक बार आठ सांसारिक चिंताओं में से किसी एक से दागी हो जाए तो वह धर्म का एक उचित अभ्यास नहीं रहता।
"केवल इस जीवन के लिए हो, या अगले जीवन के लिए, यहाँ तक कि निर्वाण के लिए भी बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेना ही पर्याप्त नहीं है ः हमें पूर्ण प्रबुद्धता की प्राप्ति तक शरण लेने की आवश्यकता है। हम जिस छंद का पाठ करते हैं और जब हम यह कहते हैं कि मुझे प्रबुद्धता प्राप्त हो उसमें 'मैं' शब्द शामिल है। हमें जो करना है वह यह परीक्षण कि क्या वह मैं या स्वयं का अस्तित्व उस प्रकार का है जिस तरह से दृष्टिगोचर होता है।"
परम पावन ने कहा कि लगभग ३०,००० लोग उपस्थित हैं और १० भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है और दुख नहीं चाहता। बुद्ध ने एक अनुशासनहीन चित्त होने की कमियों और उसे वश में करने के लाभ को समझाया। हमें चित्त को वश में करने की आवश्यकता, किसी और को प्रसन्न करने के लिए नहीं, सुख की हमारी अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए है। चित्त एक गलत धारणा से घिर जाता है कि वस्तुओं का सच्चा अस्तित्व है जिस पर काबू पाने के लिए हमें नैरात्म्य को समझने की आवश्यकता है। और आत्मकेन्द्रिता पर काबू पाने के लिए करुणा पर्याप्त नहीं है, हमें बोधिचित्त के विकास की आवश्यकता है। इसलिए हमें अपनी मानवीय बुद्धि का अधिक से अधिक लाभ उठाना है और सौहार्दता का विकास करना है।
तिब्बती बौद्ध धर्म को लेकर जिन भ्रांतियों का सामना उन्होेंने किया है उसकी बात करते हुए परम पावन ने स्मरण किया कि किस तरह दिवंगत नेल्सन मंडेला ने एक बैठक में उनका परिचय लामावादी के प्रमुख के रूप में कराया था। अन्य एक अवसर पर, ऑस्ट्रेलिया में विश्व धर्म संसद की बैठक में कुछ बर्मी भिक्षुओं ने उनसे भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने स्वीकार किया कि वे एक ही शास्ता बुद्ध को मानते हैं, पर ये कहा कि उनके बीच मतभेद बना हुआ है। परम पावन सहमत थे, पर उन्होंने उन्हें निरस्त्र कर दिया जब उन्होंने कहा कि "परन्तु धर्म के अभ्यास को विनय पर आधारित करने की आवश्यकता है, जहाँ आप थेरावाद परंपरा का पालन करते हैं और हम मूलसर्वास्तिवादिन के अनुयायी हैं" क्योंकि लगा कि वे यह नहीं जानते थे कि तिब्बती बौद्ध विनय का पालन करते हैं।
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चूँकि तिब्बत के सम्राट सोंगचेन गमपो ने एक चीनी और एक नेपाली राजकुमारी से विवाह किया और दोनों ही अपने अपने साथ बुद्ध की एक प्रतिमा लाई थी, सम्राट सोंगचेन गमपो चीन से बौद्ध ज्ञान ले सकते थे पर उसके स्थान पर वे भारत की ओर मुड़े। इन दिनों इस को लेकर मतांतर है कि क्या थोनमी संभोट ने भारतीय बौद्ध साहित्य का तिब्बती में अनुवाद करने के लिए एक नई लिपि बनायी अथवा उपलब्ध लिपि में सुधार किया। उनके बीच सम्राट ठिसोंग देचेन, उपाध्याय शांतरक्षित और निपुण पद्मसंभव ने मिलकर तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित किया। यह एक परम्परा बन गई जिसमें बुद्ध की संपूर्ण शिक्षा शामिल है जो कड़े अभ्यास और अध्ययन से संरक्षित की गई है।
७वीं, ८वीं और ९वीं शताब्दी में पूरा तिब्बत एक संयुक्त रूप में था और दस्तावेज हमें तीन साम्राज्यों के बारे में बताते हैं, होर या मंगोलिया, चीन और तिब्बत। तिब्बत के खंडित होने के बाद ग्यारहवीं शती में ङरी के राजा, येशे यो तिब्बत में विक्रमशिला से दीपांकर अतिश को आमंत्रित करना चाहते थे और उनके भतीजे ने उनकी इच्छा पूरी की। कदमपा के आचार्य, जो अतीश का अनुपालन करते थे, ने तंत्र के विपरीत सूत्रयान के पथक्रम तथा चित्त शोधन की परम्पराओं पर बल दिया। डोमतोनपा ने अतीश की विभिन्न परंपराओं को तीन आर्य बंधुओं में लिखित परम्परा, मौखिक प्रसारण और केन्द्रीय निर्देश के रूप में विभाजित किया। जे चोंखापा ने बाद में सभी तीनों को प्राप्त किए और उन्हें पथक्रम के तीन पुरुषों के रूप में पुनः संकलन किया।
परम पावन ने घोषणा की कि आज वे तीसरे दलाई लामा सोनम ग्याछो के 'परिशोधित स्वर्ण सार' का पाठ प्रारंभ करेंगे। उन्होंने कहा:
"मुझे इस ग्रंथ का प्रसरण बोधगया में खुनु लामा तेनजिन ज्ञलछेन से प्राप्त हुआ। उन्होंने मुझे इसके विषय में बताया और उस रात मुझे एक स्वप्न आया कि ज्ञलवा सोनम ज्ञाछो के एक परिजन ने मुझे एक नीला दुपट्टा दिया जिसे रिनपोछे ने एक अनुकूल संकेत माना। दूसरे और तीसरे दलाई लामा महान आचार्य थे जिन्होंने केन्द्रीय तिब्बत और मंगोलिया में बुद्ध की शिक्षाओं का प्रसार किया। चूँकि यह पाठ पूर्व दलाई लामा द्वारा है इसलिए मैं इसके बहुत निकट अनुभव करता हूँ। इसलिए हम 'परिशोधित स्वर्ण सार' और 'मंजुश्री का मुखागम' और उसके बाद नवांग ़डगपा का 'सुवचनों का सार' का पाठ करेंगे।"
उन्होंने सुबह के सत्र का समापन करते हुए कहाः
"मार्ग ही हमें प्रबुद्धता की स्थिति तक लाता है। हम इसे अपने चित्त में लागू करना होगा।"
प्रवचन क्षेत्र में बैठे लोगों को आयोजन समिति द्वारा व्यवस्थित सादा सरल दोपहर का भोजन दिया गया। दोपहर का सत्र एक आध्यात्मिक आचार्य के गुणों की चर्चा के साथ प्रारंभ हुआ। साधारण स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षक की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। उसमें सौहार्दता की भावना होनी चाहिए जो छात्रों का ध्यान आकर्षित करेगा।
अगला विषय एकाग्रता अथवा शमथ के विकास का था। परम पावन ने श्रेष्ठ सप्त बिंदु आसन, सिर की थोड़ी झुकी स्थिति ,दाहिना हाथ बाँए हाथ की हथेली पर टिकी हुई, दोनों अँगूठे आपस में एक दूसरे को छूते हुए का वर्णन किया। उन्होंने श्वास को देखने और गिनती के अभ्यास की सराहना की और अपने उन मित्रों का उदाहरण दिया जो बिना रुके १००० श्वास की गिनती करते हैं यद्यपि उन्होंने यह माना कि एक बार में २१ बार श्वास की गणना अधिक व्यावहारिक हो सकती है। उन्होंने जे चोंखापा को उद्धृत करते हुए कहा कि विश्लेषणात्मक और शमथ का संयोजित ध्यान बहुत उत्पादक है।
उन्होंने कहा कि इस जीवन में मिले स्वतंत्रता तथा भाग्य के साथ हमें इसे अधिक से अधिक सार्थक बनाना है। उन्होंने विस्तृत रूप में बताया कि जब वे प्रातः उठते हैं उनका पहला विचार बुद्ध की दया तथा करुणा का स्मरण है जो उन्हें सुख और शांति की भावना प्रदान करता है। उन्होंने ५वें दलाई लामा का उद्धरण देते हुए कहा कि उन्होंने जो कुछ सीखा था वह उनके द्वारा किए गए प्रयास का परिणाम था। इसी तरह परम पावन नागार्जुन और अन्यों के कार्य को पढ़ते और सोचते हैं।
परम पावन ने उल्लेख किया कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है जो अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। संभवतः चूँकि वे बहुत बुद्धिमान हैं, अतः समुदाय की उपेक्षा कर आत्मकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाते से लगते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि बच्चे ऐसे नहीं होते, उनमें जातीय या वर्ग भेद कम होता है जो लगता है कि जैसे जैसे हम बड़े होते हैं उन्हें ग्रहण करते चले जाते हैं। हमें और ज़िम्मेदारी से कार्य करना चाहिए।
जीवन मूल्यवान है पर हमारी त्रुटियों में से एक उससे चिपके रहना है जैसे मानो यह स्थायी हो।
समाधान इसके तीन मुख्य शीर्षकों के साथ नौ बिंदु विश्लेषण के बारे में सोचना है: मृत्यु का निश्चित रूप, मौत का आघात कब होगा यह अनिश्चित है, और मृत्यु के समय हमारे धर्म का अनुभव मात्र ही कुछ मूल्य रखता है। जीवन की अनुकूल स्थितियाँ भी परिवर्तित हो सकती है और मृत्यु का कारण बन सकती है।
"यदि आप दिन में अनित्यता, मृत्यु और बोधिचित्तोत्पाद के विषय में सोचें तो संभव है आप अपने स्वप्न में उनके बारे में सोचेंगे। यह मेरी आशा है कि जब मृत्यु का आघात हो तो कम से कम बोधिचित्त के विषय में सोचने के लिए सक्षम हो सकूँ। पश्चिमी देशों कई लोग मृत्यु शब्द तक को सुनना नहीं चाहते जबकि कुछ डॉक्टरों को अपने रोगियों को यह बताने में कठिनाई होती है कि उन्हें कैंसर है। वास्तव में हमारे लिए यह सोचना आवश्यक है कि हम किसी भी क्षण मर सकते हैं। मैं प्रतिदिन अपने अभ्यास की प्रक्रिया में पाँच या छह बार मृत्यु की प्रक्रिया की कल्पना करता हूँ। मैं यह डींग मारने की इच्छा से नहीं, पर आपको भी मृत्यु के विषय में सोचने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए बता रहा हूँ। जो मैं जानता हूँ वह यह कि जब मेरी मृत्यु होगी तो मैं केवल अदृश्य नहीं होऊँगा, अगला जीवन होगा जिसके लिए मुझे तैयारी करनी होगी।”
चूँकि आज परम पावन के वरिष्ठ शिक्षक, क्याब्जे लिंग रिनपोछे के निधन की ३०वीं वर्षगांठ थी, दोपहर का सत्र एक छोग अर्पण उत्सव के साथ समाप्त हो गया। परम पावन ने समझाया कि लिंग रिनपोछे की मृत्यु पर उन्होंने कितना दुख और अभाव का अनुभव किया था, पर उन्होंने यह निश्चय कर उस परिस्थिति को परिवर्तित कर दिया कि यह एक ऐसा अवसर था जब वे अपने पूरे सामर्थ्य से गुरू की इच्छाओं को पूरा कर पाएँगे।