नई दिल्ली, भारत – अटलांटा, अमेरिका में स्थित एमोरी विश्वविद्यालय में विकसित किया गया सामाजिक, भावनात्मक तथा नैतिक शिक्षण (सी-शिक्षण) कार्यक्रम का विश्वव्यापी प्रमोचन के लिए परमपावन दलाई लामा दिल्ली में हैं । इन कार्यक्रमों के प्रारंभ में वेंकट कृष्णन जो दान उत्सव – दान का त्योहार के संस्थापक हैं, उन्होंने ने परमपावन से अनुरोध किया कि वे इस वर्ष 2 से 8 अक्तूबर तक आयोजित होने वाले दान का आनन्द सप्ताह में भाग लेने वालों के लिए एक सन्देश प्रदान करें । कृष्णन ने परमपावन से कहा “हम लोगों को यह अवगत कराना चाहते हैं कि दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखने से हम दुःखी नहीं बल्कि सुख का अनुभव करते हैं” परमपावन ने इसके प्रत्युत्तर में कहा “हम एक सामाजिक प्राणी हैं जो प्राकृतिक रूप से करुणा पर अपेक्षित हैं, जब तक हम करुणावान बने रहते हैं तब तक हम शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं । इसे अब वैज्ञानिक भी समझ रहे हैं । इसके प्रति लोगों को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना ही सर्वोत्त्म उपाय है जिससे व्यक्ति विशेष, परिवार, समाज और मानव मात्र को सुखी बनाया जा सके । इस प्रकार के दान का आनन्द त्योहार मनाना आवश्यक है क्योंकि उस दौरान हमें करुणा का अनुस्मरण होगा, लेकिन वास्तव में इस तरह का त्योहार वर्ष भर होना चाहिए”
उसके पश्चात् परमपावन दलाई लामा ने दक्षिण एशियाई देशों से आये हुये 80 छात्रों एवं शिक्षकों से मुलाकात की, जो 300 ऐसे छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जिन्होंने सार्वभौम मूल्यों एवं धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के कार्यशालाओं में भाग लिया था । इन कार्यशालाओं का आयोजन करने वाली संस्था फॉउंडेशन फॉर युनिवर्सल रस्पोन्सीबिलिटी के सचिव श्री राजीव मेहरोत्र ने इस बारे में परिचय दिया ।
उन्होंने कहा कि इस प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन करने का लक्ष्य युवाओं में करुणा, सार्वभौम दायित्व और विविधताओं का सम्मान करने की क्षमता को विकसित करना है । इन कार्यशालाओं में सार्क देशों के छात्रों को ऐसी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो श्रद्धा और संशयवादी परम्परा दोनों का समान रूप से स्वीकार करते हुये धार्मिक एवं जातीय विभाजन के मुद्दों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लें । उन्होंने कहा कि, चुंकि वैयक्तिक ग्रहणशीलता में अन्तर होते हैं इसलिए विसर्जित करने वाले कार्यक्रमों की आवश्यकता पड़ती है जिससे एक व्यापक बदलाव को लाया जा सके ।
श्री मेहरोत्र ने आगे कहा कि आन्तरिक गुणों की शिक्षा एक जीवन भर की प्रक्रिया है तथा उन्होंने सुझाव दिया कि इस सन्दर्भ में विद्यालय और महाविद्यालय एक उपचारात्मक स्थान के रूप में कार्य कर सकते हैं जिससे भय और घृणा को बढ़ने से रोक जा सके ।
“जब मुझे नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ” परमपावन ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा, “मैंने उस पुरस्कार का आधा धनराशी बाबा आम्टे के उत्कृष्ट कार्य को सहयोग करने के लिए दिया, जो अपने आश्रम में कुष्ठ रोगियों की मदद करते थे । उस धनराशी का दूसरा हिस्सा मैंने फॉउंडेशन फॉर युनिवर्सल रस्पोन्सीबिलिटी को दिया और राजीव से इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन करने को कहा ।” परमापावन ने मनुष्य के नैसर्गिक स्वभाव पर प्रकाश देते हुये कहा कि “नन्हे बच्चे भिन्न धर्म और भिन्न देश की परवाह नहीं करते हैं, लेकिन जैसे ही वे शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश करते हैं वे ऐसे भेदभाव सीख जाते हैं ।
आज की शिक्षा के क्षेत्र में आन्तरिक मूल्यों से सम्बन्धित विशेष कुछ कहने को नहीं है । जैसे भी हो, इस देश का अहिंसा और करुणा के क्षेत्र में सदियों की परम्परा रही है । इसी प्रकार शमथ और विपश्यना की साधना द्वारा मन को किस प्रकार नियंत्रित किया जाये उसके अववोधन में विकास हुआ है । वर्तमान शिक्षा पद्धति भौतिक विकास के क्षेत्र में अदभुत कार्य करती है, लेकिन यह मानवीय ज्ञान के स्वरूप का उपेक्षा करती है ।”
“आज विश्व में अधिकतर समस्याएं हम लोगों के द्वारा ही निर्मित हैं । सभी सुख चाहते हैं और दुःख कोई नहीं चाहता । आज विश्व के चन्द लोगों द्वारा शक्ति का संचालन कर बहुसंख्यक लोगों का शोषण करने वाली सामंती राज पुराना हो चुका है, और हम लोकतांत्रिक जगत में रह रहे हैं जहां सम्पूर्ण शक्ति जनता के पास है । इसलिए, ऐसे में यह अनैतिक है कि दूसरों को लड़ाई में जाकर युद्ध करने का आदेश दिया जाये । चुंकि हम एक वैश्विक समुदाय में रहते हैं इसलिए मनुष्यों के बीच जो भेदभाव हैं उन्हें वार्तालाप के माध्यम से ही दूर करना होगा । हम सब वैश्विक अर्थव्यवस्था का समान रूप से भागी हैं और जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहे हैं ।”
इसके पश्चात् परमपावन दलाई लामा पत्रकार सम्मेलन में पहुंचे और उन्होंने कहा “वर्तमान शिक्षा पद्धति विश्व में लोगों की खुशहाली सुनिश्चित नहीं करती है, क्योंकि अन्ततोगत्वा करुणा ही खुशी का मुख्य कारण है । वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आत्मीयता को सम्मिलित करने की आवश्यकता है । आज से लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व से ही भारतीय परम्परा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का अस्तित्व रहा है । इसलिए आज यह ज़रुरी है कि किंडरगार्टन से ही बच्चों को न केवल भौतिक शिक्षा अपितु आन्तरिक मानवीय मूल्यों को सुदृढ़ बनाने की शिक्षा भी दी जाये । मैं प्रायः कहता हूँ कि शरीर की स्वच्छता के साथ-साथ मन की स्वच्छता का भी होना अत्यावश्यक है ।
प्राचीन मिस्र सभ्यता, चीनी सभ्यता, सिन्धु घाटी सभ्यताओं में सिन्धु घाटी सभ्यता के अन्तर्गत अत्यंत ही समृद्ध ज्ञान का विकास हुआ है जिसमें मन और वास्तविक सिद्धांत पर विशेष कार्य किया गया है । भारत में सदियों से ही अहिंसा और करुणा का सिद्धांत रहा है, इसलिए भारत यह क्षमता रखता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली और प्राचीन ज्ञान परम्परा को सयोंजित कर मानव जगत के सहयोग में बहुमूल्य योगदान दें । भारतीय प्राचीन ज्ञान परम्परा मुख्य रूप से मानसिक सुख से सरोकार रखता है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली शारीरिक सुखोन्मुखी है । अतः विश्व में प्रभावी रूप से भारतीय प्राचीन ज्ञान परम्परा को प्रसारित करने के लिए सर्वप्रथम भारत को अपनी उस खोयी हुयी ज्ञान परम्परा को पुनर्जिवित करना होगा । इसलिए भारत के नवयुवकों को हज़ारों वर्ष पुरानी ज्ञान परम्परा पर ध्यान देने की आवश्यकता है । वर्तमान शिक्षा प्रणाली एक सुखी समाज, खुशहाल जगत के निर्माण करने में अपर्याप्त है । आज जितनी भी समस्याएं हैं वे सब मानवजनित हैं और उनका निराकरण भी मानवीय उपायों से होना चाहिए ।
तकनीक का प्रयोग अपने आप में अदभुत है, लेकिन यह इसका उपयोग करने वाले पर निर्भर है कि वह इसका सदुपयोग करता है या दुरुपयोग । हम सब क्रोध से दूर भागना चाहते हैं और करुणा से जुड़े रहना चाहते हैं । इसलिए, अब समय आ गया है कि हमें गभीरतापूर्वक सोचना होगा कि कैसे हम ईक्कीसवीं सदी को एक शांतिमयी और करुणामयी सदी के रूप में निर्माण करें । यह सम्भव है ।”
“भारत में हज़ारों वर्षों से धार्मिक सहिष्णुता रही है । मैं इसके उदाहरण के लिए प्रायः मुम्बई जैसे बड़े शहर में रह रहे पारसी समुदाय का सन्दर्भ देता हूँ जो उनकी अपेक्षा कई गुणा ज्यादा संख्या वाले अन्य समुदायों के बीच रहते हैं । उनकी संख्या एक लाख से भी कम है, लेकिन वहां रहने वाले मेरे पारसी मित्र कहते हैं कि उन्हें वहां रहने में किसी भी प्रकार का भय महसूस नहीं होता है । भारत ने दुनियां के सभी प्रमुख धर्मों की परम्परा को बनाये रखा है, इसलिए भारत को सक्रिय रूप से दुनिया को धार्मिक असहिष्णुता का पाठ पढ़ाना चाहिए, विशेषकर ऐसे देशों में जहां धार्मिक संघर्ष एक समस्या का रूप धारण किये हुये हैं ।”