मनाली, हिमाचल प्रदेश, भारत – आज सुबह परमपावन दलाई लामा जब प्रवचन स्थल पर पहुँचे तब पिछले दो दिनों से लगातार हो रही बारिश जारी थी । परमपावन ने श्रद्धालुओं का अभिवादन किया और सिंहासन ग्रहण करने के बाद उन्होंने सामने बैठे भिक्षुओं को ठंड़ से बचने के लिए अपने शरीर को ढ़कने के लिए कहा ।
“परमपावन ने ‘चित्तशोधन की अष्टपदावली ग्रन्थ’ को खोलते हुये कहा आज हम इस ग्रन्थ को पढ़ेंगे जो तिब्बती, हिन्दी, अंग्रेज़ी और चीनी भाषा में उपलब्ध है । इस ग्रन्थ के रचनाकार गेशे लाङरी थाङपा बोधिचित्त की साधना के लिये जाने जाते थे । मुझे इस ग्रन्थ की व्याख्यान अनेक गुरुओं से प्राप्त हुआ है जिनमें क्याब्जे ठीजाङ रिन्पोछे भी हैं । मैं इस ग्रन्थ को बचपन से ही प्रतिदिन पाठ करता आ रहा हूँ ।”
“इस ग्रन्थ के पहले श्लोक में ‘मैं’ शब्द आया है, इस शब्द के बारे में स्वयं से पूछें कि यह क्या है । हमारे भीतर भावनाएं और संवेदनाएं हैं जो इस ‘मैं’ के लिए सुविधा का कार्य करते हैं । ‘मैं’ या ‘आत्मा’ इन संवेदनाओं का प्रयोगकर्त्ता और शरीर के नियंत्रक के रूप में कार्य करता है । अबौद्ध परम्परावादी ‘मैं’ को शरीर और चित्त के संजोजन से पृथक मानते हैं, लेकिन बौद्ध शरीर और मन से अलग ‘मैं’ की सत्ता नही मानते हैं । कुछ सिद्धान्तवादी चित्त को ‘मैं’ या पुद्गल के रूप में चिन्हित करते हैं । उदाहरण के लिए चित्तमात्र सिद्धान्तवादी आलयविज्ञान को ‘मैं’ या पुद्गल मानते हैं । लेकिन माध्यमिक सिद्धान्तवादी जिस प्रकार दूसरे वस्तुओं को हमारे चित्ताभास और पूर्वाग्रह द्वारा आरोपित मानते हैं उसी प्रकार ‘मैं’ या पुद्गल को शरीर और चित्त के संयोग पर आरोपित मात्र मानते हैं । इस तरह के सिद्धान्त का उद्देश्य निराश्रित आत्मा स्वीकारने की हमारी पूर्वधारणाओं का प्रतिकार करना है । माध्यमिक विद्वान यह नहीं कहते हैं कि सांवृत्तिक सत्ता नहीं है, वे वस्तुओं की विषय की ओर से सत्ता होने का खण्डन करते हैं ।”
“हम स्वयं को दुःखी बनाते हैं, क्योंकि हममें एक अनाश्रित आत्मा की धारणा है जिससे हम स्वार्थी बनते हैं । इसी के आधार पर हम विभिन्न प्रकार के संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं । हमारे दैनिक जीवन के अनुभव बताते हैं कि जो लोग स्वार्थी होते हैं वे अधिक चिंतित रहते हैं, जबकि वे जो दयालु और स्वाभाविक रूप से दूसरों के लिए फिक्रमंद होते हैं वे खुले विचारों वाले और तनावमुक्त होकर जीवन जीते हैं ।”
“चूंकि हम सब दुःख नहीं चाहते हैं और सुख की इच्छा रखते हैं, इसलिए हमें दुःख के कारणों को दूर करने और सुख के कारणों में वृद्धि करना चाहिए । एक मनुष्य होने के नाते हम इस तरह विचार कर सकते हैं और इसे प्रभावी बना सकते हैं । इस ग्रन्थ का पहला श्लोक यह बताता है कि हमारे सभी तात्कालिक और दीर्घकालिक उद्देश्य दूसरों पर आश्रित होकर ही पूरी होती है । हत्या, चोरी, व्यभिचार और झूठ इन सबका प्रहाण दूसरों पर निर्भर होकर ही सम्भव है । हमारी खुशी दूसरों पर निर्भर होकर ही सम्भव है । इसलिए यहां दूसरा श्लोक यह कहता है कि हमें दूसरों को सर्वश्रेष्ठ प्रियजन के रूप में देखना चाहिए ।”
परमपावन ने कहा कि एक मानव होने के नाते हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए । यदि ऐसी स्थिति में भी कि जब कोई हमारी फायदा उठाता हो फिर भी हमें हमारे करुणा में कमी आने नहीं देना चाहिए । हमें उन सभी चीज़ों का प्रतिकार करना चाहिए जो विनाशकारी भावनाओं को उत्तेजित करते हैं ।
“जब भी लोग दुःख और पीड़ा में दिखाई देते हैं तो उन्हें अपना बड़प्पन जताने के बजाय प्रेम और करुणा से व्यवहार करना चाहिए । उदाहरण के लिए, जब किसी बिखारी को हम भीख देते हैं तो आदरपूर्वक देना चाहिए । आदरपूर्वक दान देना उन सोलह तत्त्वों में है जो सुगति में उत्पन्न होने के कारण हैं । पांचवें श्लोक में इस प्रकार लिखा है- ‘मुझे हार स्वीकार्य हो’ । जब कादाम्पा परम्परा के एक अनुयायी को किसी ने निंदा की तो उसने अपने मित्रों से कहा कि इसका प्रत्युत्तर न देना, ‘मैं इस हार को अपने ऊपर ले लूंगा’ । इसके बाद का श्लोक यह शिक्षा देता है कि यदि किसी की हम बहुत मदद करते हैं और वह व्यक्ति उस मदद के लिए हमारी प्रशंसा नहीं करता है, तो भी हमें उस व्यक्ति को एक गुरु समान देखना चाहिए ।”
“सातवें श्लोक के पंक्तियां- ‘मैं अपनी सारी खुशियां और सहयोग मेरी माताओं को दे दूँ, और उनके सारे कष्ट और दर्द गुप्त रूप से मैं अपने ऊपर ले लूँ’, - यह देने और लेने के अनुष्ठान साधना को संक्षेप प्रतिपादित कर रहे हैं । जब आप सांस लेते हैं तो विचार करें कि आप दूसरों के सभी दुःख-दर्दों को ले रहे हैं और जब सांस छोड़ते हैं तो विचार करें कि आप उन्हें खुशी दे रहे हैं । जब सन् 2008 को ल्हासा में आन्दोलन के समाचार ने मुझे आशंकित किया तब मैंने यह साधना की थी । मैंने ऐसी कल्पना की कि मैं चीनी अधिकारी जो उस घटना में सम्मिलत थे उनके क्रोध और शत्रुता को अपने ऊपर ले रहा हूँ और उन्हें शांति और खुशी दे रहा हूँ । अन्तिम श्लोक हमें यह शिक्षा देती है कि जब भी हम इस तरह की साधनाएं करते हैं तो हमें लोकधर्म में नहीं फंसना चाहिए जैसा कि- अच्छे नाम और ख्याति की इच्छा नहीं रखनी चाहिए ।”
परमपावन ने ‘सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्म’ पर प्रवचन देते हुये कहा कि भगवान बुद्ध द्वारा उपदेशित त्रिपिटक – विनय, सूत्र एवं अभिधर्म पिटक साधकों के व्यक्तिगत साधना के लिए उद्देशित हैं । जिनकी बुद्धि क्षमता कम है वे सुगति प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं । जिनकी बुद्धि मध्यम है वे इस संसार से मुक्ति की कामना करते हैं और जो उच्च स्तरीय बुद्धि क्षमता वाले हैं वे बुद्धत्व की प्राप्ति कर समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं ।
“आचार्य आर्यदेव के चतुशतक में उन्होंने साधना मार्ग में उन्नति के तीन स्तर बताये हैं-
सर्वप्रथम पापों का प्रहाण करना चाहिए ।
मध्य में (स्थूल) आत्मा का खण्डन करना चाहिए ।
अन्त में सभी मिथ्या दृष्टियों का निराकरण करना चाहिए ।
जो इसको जानता है वह विद्वान् है ।
तीन प्रकार के इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अध्ययन और साधना की आवश्यकता है । इस ग्रन्थ का पहला श्लोक यह सिखाता है कि हमें दिन-रात अनवरत श्रवण, चिंतन एवं भावना में समय व्यतीत करना चाहिए । हमें मानवीय जीवन मिला है जो सही और गलत के बीच अन्तर करने का अवसर देता है । यदि हम इस अवसर को खो देते हैं तो हमारी बहुत क्षति होगी । यदि हम इस जीवन का सही उपयोग कर पुण्य संचयन करते हैं तो हमारे मन पर सकारात्मक संस्कार रहेंगे । मृत्यु के समय हमारे द्वारा किये गये पुण्य कर्म ही हमारे सहायता करते हैं ।”
“हमें एक करुणावान, सत्यवेता, ज्ञानी, वाक्पटु, सर्वगुण सम्पन्न एवं योग्य धर्मगुरु की खोज करना चाहिए । तिब्बत के महान गुरु आचार्य जे-च़ोखापा ने कहा है कि हमें एक ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेना चाहिए जो शील, समाधि और प्रज्ञा का पालन करता हो । हमें मृत्य और अनित्यता का बार-बार स्मरण करना चाहिए- कौन जाने कल और अगला जन्म में से कौन पहले आयेगा । इस बहुमूल्य मानव जीवन और इसके बड़े आसानी से खो जाने का विचार हमें साधना उन्मुख होने में प्रोत्साहन देता है ।”
“देवी-देवताओं को शरण स्थान न मानकर धूप जलाते हैं तो ठीक है लेकिन वास्तविक शरण-स्थान बुद्ध, धर्म एवं संघ हैं । बुद्ध हमारे गुरु हैं, धर्म हमारे वास्तविक रक्षक हैं और संघ हमारे मित्र हैं । बुद्ध हमारी अज्ञानता को दूर करते हैं और मोक्ष की ओर ले जाते हैं ।
बुद्ध जल द्वारा पापों का प्रक्षालन नहीं करते हैं,
और न ही सत्त्वों के दुःखों को हाथ से दूर करते हैं ।
वे स्वयं के ज्ञान को दूसरों में स्थानांतरण नहीं करते हैं,
धर्मता के सत्यबोध कराकर (सत्त्वों को) विमुक्त करते हैं ।
संघ उन्हें कहा जाता है जिन्होंने शून्यता को प्रत्यक्ष रूप से अवबोधन किया हो ।
परमपावन ने सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्म ग्रन्थ के श्लोंको को एक के बाद एक कर समझाया और उसके अन्त में कहा कि आप लोगों को इस ग्रन्थ को बार-बार पढ़ना चाहिये, इससे आप सबको अत्यंत लाभ मिलेगा । परमपावन ने श्रद्धालुओं को बुद्ध, आर्यअवलोकितेश्वर, मञ्जुश्री और आर्यतारा का मुखागम दिया । उन्होंने कहा कि वे यहां मनाली में प्रवचन देकर आनन्दित हैं और हिन्दी, अंग्रेज़ी और चीनी भाषा के अनुवादकों ने प्रवचनों का अनुवाद किया है जिसके लिए वे उनका आभारी हैं ।
“धर्म का हमारे जीवन में प्रभाव होगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर है कि हम अपने मन में परिवर्तन लाने में कितना सक्षम हैं । आप लोगों ने मुझसे प्रवचन सुना है और अब यह आपके ऊपर निर्भर है कि एक प्रभावी परिवर्तन लाने में आप कितना प्रयास करते हैं । यदि आप सही मायने में धर्म अभ्यास करते हैं तो उसका प्रभाव आपके पड़ोसियों को दिखाई देना चाहिए । प्रार्थना करें कि आर्यअवलोकितेश्वर जन्मों-जन्मों तक आपका ख्याल रखें ।”
आयोजक मण्डल के एक प्रतिनिधि ने वित्तीय विवरण प्रस्तुत किया । परमपावन वहां से होन ङारी मठ में लौट आये ।