मनाली, हिमाचल प्रदेश, भारत – आज प्रवचन स्थल पर जाने से पहले परमपावन दलाई लामा ने ताईवान के हक्का टेलिविजन को साक्षात्कार दिया । साक्षात्कारकर्ता के विभिन्न विषयों पर पूछे गये सवालों में एक सवाल यह था कि क्या परमपावन पूर्व के सभी दलाई लामाओं में से सबसे अधिक आशावादी हैं तथा वे हमेशा मुस्कराते रहने में कैसे सक्षम हैं ।
परमपावन ने उत्तर देते हुये कहा “मैं एक मनुष्य हूँ और हम सब सामाजिक प्राणी हैं । विश्व के सात अरब लोग मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक रूप से समान हैं । हम सभी को एक आनन्दपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है । मुस्कराने में केवल मनुष्य ही सक्षम है जो स्वाभाविक रूप से होता है । ऐसे में मुझे 8वीं शताब्दी के आचार्य शांतिदेव की याद आ रही है जिन्होंने कहा था कि यदि हम बोधिचित्त का अभ्यास करने वाले हैं तो सदैव दूसरों के साथ मिलते समय मुस्कराते रहना चाहिए ।”
परमपावन से यह पूछे जाने पर कि क्या सभी लोग मन की शांति को प्राप्त कर सकते हैं, इस पर परमपावन ने कहा “प्राचीन काल में शिक्षा का दायित्व धार्मिक संस्थानों के पास था और वे अपने शिष्यों को आन्तरिक मानवीय मूल्यों को सिखाते थे, लेकिन आज आधुनिक शिक्षा भौतिक उन्मुख हो गया है जिससे भौतिक जीवन शैली पर अधिक ज़ोर दिया जाता है । आधुनिक शिक्षा छात्रों को भावनात्मक समस्याओं से निपटने की विधि नहीं सिखाती है । जिस प्रकार बच्चों को आंगनवाड़ी से शरीर की स्वच्छता के बारे में पढ़ाया जाता है उसी प्रकार उन्हें भावनात्मक समस्याओं से निपटने की विधि- एक प्रकार की भावनात्मक स्वच्छता के बारे में शिक्षा देनी चाहिए । इससे उनका शिक्षा सम्पूर्ण होगा ।”
परमपावन से जब यह पूछा गया कि वे श्रद्धा और वैज्ञानिक खोज में से किसको चुनेंगे, तो परमपावन ने कहा कि वैज्ञानिक कथनों को स्वीकारने के प्रति उनका अधिक झुकाव रहेगा । उन्होंने कहा कि भारतीय नालन्दा परम्परा विश्लेषण और तर्क-वितर्क पर आधारित एक वैज्ञानिक पद्धति था । हमारी विनाशकारी भावनाएं प्रायः आभासित विषयों को यथार्थ मानने से उत्पन्न होती हैं और उन्हें दूर करने के लिए सत्य को जानना आवश्यक है ।
यह पूछे जाने पर कि तिब्बती संस्कृति की विशेषता क्या है, परमपावन ने इसका उत्तर देते हुये कहा “तिब्बत के लोग बहुत बड़े क्षेत्रफल में फैले हुये हैं लेकिन वे सभी तिब्बती शास्त्रीय भाषा को पढ़ते हैं जिसे 7वीं शताब्दी में राजा सोङच़ेन गाम्पो के आदेश से निर्माण किया गया था । इसे भारतीय देवनागरी लिपि पर आधारित कर बनाया गया था । 8वी शताब्दी में भारतीय महापंडित आचार्य शान्तरक्षित ने सुझाव दिया था कि चूंकि तिब्बतियों का अपनी भाषा है इसलिए भारतीय बौद्ध ग्रन्थों को तिब्बती भाषा में अनुवाद करना चाहिए । जिसके फलस्वरूप आज यह भाषा मंगोलिया तथा अन्य हिमालयी क्षेत्रों में भी प्रयोग किया जाता है ।”
“हालांकि मूल नालन्दा विश्विद्यालय अब अवशेष मात्र रह गया है, लेकिन वहां का ज्ञान जिसे आचार्य शांतरक्षित अपने साथ तिब्बत लाये थे, वह तिब्बत में सुरक्षित है । चीनी बौद्ध भी नालन्दा परम्परा से अवगत हैं, क्योंकि चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने भी वहां अध्ययन किया था । लेकिन चीनी बौद्धों ने नालन्दा की तर्क और न्याय शास्त्रीय पद्धति को नहीं लिया है । भविष्य में चीनी लोग तिब्बतियों को भौतिक विकास में सहयोग कर सकते हैं और हम उन्हें आध्यात्मिक विकास में मदद करेंगे । मैं यहां भारत में चित्त और भावनाओं की क्रियाविधि के प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के साथ संयोजन कर पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ । लोग विनाशकारी भावनाओं को सामना करने में जितने अधिक सक्षम होंगे, उतने ही मात्रा में लोग मन की शांति प्राप्त करेंगे और इससे विश्वशांति की संभावना सुनिश्चित होगी ।”
परमपावन ने ग्रन्थ पर प्रवचन प्रारम्भ करते हुये कहा “बोधिचित्त विवरण का यह ग्रन्थ पर्यवसान बोधिचित्त अर्थात् शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा पर बल देता है, लेकिन इसे संवृत्ति बोधिचित्त के साथ संयोजित कर अभ्यास करने की आवश्यकता होती है । सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिए बुद्धत्व प्राप्ति की भावना ही संवृत्ति बोधिचित्त कहलाता है और यह महाकरुणा के अभ्यास से उत्पन्न होता है ।”
“चूंकि विनाशकारी भावनाएं भ्रामक दृष्टिकोण के कारण उत्पन्न होती हैं, इसलिए सभी प्राणी अज्ञानता में जकडे हुये हैं । आचार्य नागार्जुन ने अपने मूलमध्यमककारिका ग्रन्थ के अन्त में तथागत बुद्ध की स्तुति करते हुये कहा है -
“ऐसे गौतम को नमन है,
जिन्होंने अनुकम्पा द्वारा ।
ऐसे सद्धर्म की देशना की है,
जिससे सभी भ्रामक दृष्टियों का प्रहाण होता है ।”
“उसी ग्रन्थ के प्रारम्भ में बुद्ध की वन्दना करते हुये वे पुनः इस प्रकार लिखते हैं-
जिन्होंने प्रतीत्यसमुत्पन्न,
अनिरोध, अनुत्पन्न,
अनुच्छेद, अशाश्वत,
अनागम, अनिर्गम,
न अनेकार्थ, न एकार्थ
प्रपञ्च रहित शांत की देशना की है,
सम्यक् सम्बुद्ध - सभी उपदेशकों में
सर्वश्रेष्ठ को प्रणाम करता हूँ ।”
नालन्दा के 17 महापण्डितों की स्तुति पाठ के बाद परमपावन ने कहा “इस स्तुति के श्लोक तथागत बुद्ध की वन्दना करते हुये प्रारम्भ होते हैं, जिसमें बुद्ध को उनके अद्भुत सिद्धान्त की देशना करने के कारण उन्हें अनुपम वादिसूर्य कहा गया है । दूसरे श्लोक में आचार्य नागार्जुन की वन्दना है जिन्होंने प्रज्ञापारमिता की व्याख्या और प्रतीत्यसमुत्पाद पर स्पष्ट टीप्पणी की तथा वे माध्यमिक दर्शन के आचार्यों में अग्रणी हैं । आचार्य आर्यदेव एवं बुद्धपालित उनके शिष्य थे जिन्होंने माध्यमिक प्रासंगिक सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से व्याख्या की । उनके दूसरे शिष्य आचार्य भावविवेक ने सांवृत्तिक सत्य में वस्तुओं की विषय की और से सत्ता को प्रतिपादित किया । लेकिन आचार्य चन्द्रकीर्ति ने वस्तुओं की परस्पर निर्भरता की सिद्धान्त को कहा जो शाश्वतान्त और उच्छेदान्त के दो अन्तों से विमुक्त है । यही आभासित और वास्तविकता की असमानता को समझने का आधार है । इसी प्रकार उन्होंने सम्पूर्ण सूत्र एवं तन्त्रों की व्याख्या की । आचार्य चन्द्रकीर्ति के बाद आचार्य शान्तिदेव की स्तुति है, जिन्होंने अपने ग्रन्थ बोधिचर्यावतार में अत्यन्त ही गूढ़ और विस्तृत रूप से बोधिचित्त की व्याख्या की । इसके जैसा दूसरा ग्रन्थ नहीं है ।”
“बच्चपन में मुझे बोधिचित्त में कुछ हद तक रुचि थी, लेकिन मुझे लगता था कि इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है । लेकिन मेरे गुरु ताड़ाग रिन्पोछे ने मुझे निराश होने नहीं दिया और उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि उन्हें बोधिचित्त की कुछ अनुभूति होती है । निर्वासन में आने के बाद जब मैंने बोधिचर्यावतार का अध्ययन किया और तब से मुझे लगने लगा कि यदि मैं प्रयत्न करुँगा तो बोधिचित्त के समीप पहुंच पाऊंगा ।”
“मैंने नालन्दा के 17 महापण्डितों की इस स्तुति ग्रन्थ को लिखा है, क्योंकि आठ भारतीय आचार्यों की स्तुति तो पहले से थी लेकिन मुझे यह ज्ञात था कि उन आठ आचार्यों के अलावा भी ऐसे अन्य भारतीय आचार्य हैं जिनके ग्रन्थों का हम अध्ययन करते हैं । स्तुति के इस क्रम में आचार्य शान्तरक्षित हैं जिनका हम इसलिए अत्यन्त ऋणी हैं क्योंकि उन्होंने तिब्बत में तर्क और युक्तिओं पर आधारित अध्ययन परम्परा की स्थापना की । उनके शिष्य आचार्य कमलशील ने भावनाक्रम की रचना की है ।”
“आर्यअसंग चित्तमात्र दार्शनिकों के संस्थापक थे । उनके छोटे भ्राता आचार्य वसुबन्धु अभिधर्म पर अत्यन्त निपुण थे । आचार्य वसुबन्धु के शिष्य आचार्य दिग्नाग तर्कविद्या के आचार्य थे और उनके अनुचर आचार्य धर्मकीर्ति हेतुविद्या के आचार्य थे । हालांकि आचार्य विमुक्तिसेन उनके शिष्य थे लेकिन उन्होंने प्रज्ञापारमिता का माध्यमिक दर्शनानुसार व्याख्या की थी । आचार्य हरिभद्र भी प्रज्ञापारमिता के बहुत ही प्रसिद्ध व्याख्याकार थे । अनेकों बौद्ध छात्रों ने उनके ग्रन्थों को याद किया है । मुझे याद है कि नेपाल में स्थित कोपन मठ की भिक्षुणियों ने उनके ग्रन्थों को याद किया था और मैंने उनसे कहा था कि इस मामले में वे मुझसे आगे हैं । आचार्य गुणप्रभा और शाक्यप्रभा दोनों विनयशास्त्र के आचार्य थे । अन्त में आचार्य अतिश दीपंकर श्रीज्ञान की स्तुति है, जिन्होंने बौद्धधर्म को तिब्बत में प्रसारित करने में अहम भूमिका निभाई थी ।”
“इस स्तुति के अन्त में इस प्रकार लिखा है- मेरी चित्त सन्तति परिपक्व होकर मुक्ति में अधिष्ठित हो, मोक्ष के मार्ग में दृढ़तापूर्वक अधिष्ठित हो, अकृत्रिम बोधिचित्त अभ्यास में अधिष्ठित हो, प्रज्ञापारमिता और तन्त्रयान के शास्त्रों में सहज शीघ्र ज्ञान की प्राप्ति में अधिष्ठित हो । यहां मैंने पाद टिप्पणी में ज़ोर देकर कहा है कि हमें बुद्ध की शिक्षाओं को निष्पक्ष और उत्सुकतापूर्ण होकर विश्लेषण करना चाहिए । मैंने इस स्तुति को ट्रुलशिक रिन्पोछे के अनुरोध पर रचना की थी ।”
“केवल श्रद्धा और पूजा-पाठ तक हमें सीमित नहीं रहना चाहिए और दो सत्य और चार आर्यसत्यों पर आधारित बुद्ध की शिक्षाओं को समझना चाहिए । यदि हम नालन्दा परम्परा और तर्क पर आधारित होकर बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन करेंगे तो बौद्धधर्म चिरकाल तक रहेगा ।”
परमपावन ने बोधिचित्त विवरण ग्रन्थ के श्लोकों को पढ़ना आरम्भ किया और कहा कि हम यह सोचते हैं कि वस्तुएं अपनी ओर से सत्ता में हैं लेकिन जब हम उनका परीक्षण करते हैं कि हमें क्या आभासित होती है, तो हम किसी भी चीज़ को निर्धारित नहीं कर पाते हैं । इसलिए कोई भी चीज़ विषय की ओर से सत्ता में नहीं है, ये सभी आरोपित मात्र से या सांवृत्तिक रूप से अस्तित्व में हैं । चित्त की क्षणिता को भी निर्देशित नहीं किया जा सकता है ।
भोटी भाषा में बुद्धत्व शब्द को जाङ-छुब - ऐसे दो भागों में अनुवाद किया गया है । जाङ का अर्थ प्रतिपपक्ष का प्रयोग कर मन के आवरणों को शुद्ध करना तथा छुब का अर्थ है जब सभी आवरण दूर हो जाते हैं तब मन की प्रकृति स्वतः स्पष्ट हो जाती है और ज्ञान का प्रस्फुटन होता है । तब साधक वस्तुओं की वास्तविकता को यथार्त रूप में देखने में सक्षम हो जाता है ।
अभिसमय अलंकार ग्रन्थ की एक टीका में लिखा है कि बोधिसत्त्व सभी प्राणियों को करुणामय दृष्टि से देखते हैं । करुणा भी ऐसी जो न केवल सत्त्वों के दुःखदुखता, विपरिणाम दुःखता बल्कि संस्कार दुःख से मुक्ति की कामना करते हैं । इसे प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह अंग के सन्दर्भ में कहा गया है । यदि अविद्या का अन्त होता है तो अन्य 11 अंग भी समाप्त हो जाते हैं, और यह शून्यता को जानने वाली प्रज्ञा के बल पर निर्भर करता है ।
परपावन ने स्वार्थ और परहित की भावना में तुलना करते हुये पेन्छेन लोब्ज़ाङ छोएग्यान द्वारा रचित ‘कल्याणमित्र को अर्पण’ नामक ग्रन्थ से इस श्लोक को उद्धृत किया –
स्वकेन्द्रित का यह दीर्घकालिक रोग,
अनिच्छित दुःखों का कारण है ।
मेरी माँ स्वरूप सत्त्वों का ध्यान रखना और उनके सुख सुनिश्चित करना,
अथाह पुण्य का द्वार है ।
इसलिए बोधिचित्त उत्पाद करना स्वयं को दूसरों की सेवा में सपर्पित करना है । इस ग्रन्थ की समाप्ति पर परमपावन ने कहा कि कल के बाद के प्रवचनों के बीच में विश्राम का समय रखा जायेगा । 17 अगस्त, रविवार के दिन आर्यअवलोकितेश्वर अभिषेक के अलावा ‘चित शोधन के अष्टपदावली’ और ‘सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्म’ पर प्रवचन देंगे ।