नई दिल्ली, भारत – कल धर्मशाला से दिल्ली आगमन के बाद आज सुबह परमपावन दलाई लामा के वसंत विहार स्थित श्रीराम स्कूल पहुंचने पर अध्यक्ष तथा निदेशक एवं प्रधानाचार्य श्री अरुण भरत राम ने उनका स्वागत किया । 84 स्कूलों से 2400 से अधिक संख्या में सम्मिलत छात्र एवं अध्यापकों ने परमपावन का भव्य एवं गर्मजोशी से स्वागत किया । आसन ग्रहण करने के पूर्व परमपावन ने दीप प्रज्जवलन कर कार्यक्रम के आयोजकों, स्पीक मैक्ये, का धन्यवाद किया । परमपावन ने अपना सम्बोधन आरम्भ करते हुये कहा –
“सम्माननीय वरिष्ठ भाईयों एवं बहनों एवं कनिष्ठ भाईयों एवं बहनों, मेरे लिए यह परम सम्मान का विषय है कि मुझे आज यहां ईक्कीसवीं सदी के युवा छात्रों से संवाद करने का अवसर मिला है । हालांकि हम अतीत को बदल नहीं सकते हैं पर हम इससे सबक ज़रुर ले सकते हैं । इसलिए आपका भविष्य अपने हाथों में है । यदि आप एक सुखी समाज के निर्माण के लिए प्रयास करते हैं तो मुझे विश्वास है कि इसी सदी में आप वैश्विक परिवर्तन ला सकते हैं ।”
“वैज्ञानिकों का कहना है कि बुनियादी मानवीय स्वभाव करुणामय है । यह स्पष्ट है, कि हम सब एक सामाजिक प्राणी हैं और इस नाते हमें दुनिया के सभी सात अरब लोगों को हमारे अपने लोगों जैसा समझना चाहिए । केवल ‘मेरे देश’ और ‘मेरे लोग’ का यह विचार पुराना हो चुका है । 20वीं शताब्दी में ‘वे’ और ‘हम’ के विचारों की बहुलता के कारण समाज में मतभेदों का कारण बना जिससे अनेकों युद्ध और हत्याएं हुयी थी ।”
“चुंकि सभी 7 अरब लोग मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से समान हैं, आप सभी युवाओं को मानव-एकता की भावना को जागृत करना होगा । हमें जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए एक साथ मिलकर काम करना होगा । हम केवल इस धरती तथा इसके प्राकृतिक पर्यावरण का दोहन करते नहीं रह सकते, हमें इसकी देखभाल भी करनी होगी । आज हम जिन भीषण समस्याओं का सामना कर रहे हैं, इनके बारे में वैज्ञानिक कई वर्षों से हमें चतावनी देते आ रहे हैं ।”
परमपावन ने भारत में सदियों से फलफूल रहे धार्मिक सद्भाव की भावना की सराहना करते हुये कहा यहां इस देश में सैकड़ों वर्षों से सभी धार्मिक परम्पराएं एक साथ शांति से रह रहे हैं । उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक मिसाल है – कि सभी धार्मिक परम्पराएं एक साथ रह सकते हैं । इसके अतिरिक्त, भारत के धर्मनिरपेक्षता की भावना, जिसमें धर्म में विश्वास रखने वाले और न रखने वाले दोनों को सम्मान दिया जाता है । आज जब विश्व में एक अरब लोग धर्म में विश्वास नहीं रखते हैं, तो ऐसे समय में भारत का यह विचार अत्यन्त प्रासंगिक है ।
परमपावन की दृष्टि में भारतीय परम्परा का दूसरा पहलु जो आज विश्व में अत्यधिक प्रासंगिक है, वह है ‘अहिंसा’ और ‘करुणा’ की भावना । उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा भारत की आज़ादी के संघर्ष में ‘अहिंसा’ का प्रभावी रूप से प्रयोग करने का स्मरण किया और कहा- यही नहीं महात्मा गांधी से दक्षिण अफ्रिका के नेल्सन मंडेला एवं अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी प्रेरित हुये थे ।
“आधुनिक शिक्षा, जिसे ब्रिटिशों ने लागु किया है वह भौतिक उद्देश्यों पर केन्द्रित है । भौतिक उन्नति आवश्यक है लेकिन हमें भारत की पुरातन विद्या और उसके मन और भावनाओं की कार्यशैली को समझने की विधियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । यदि हम इस पुरातन विद्या को आधुनिक शिक्षा के साथ संयोजन करते हैं, तो हम हानिकारक भावनाओं को दूर कर मन की शांति प्राप्त कर सकते हैं । मुझे इस पर विचार करना अत्यन्त उपयोगी लगता है कि हमारे अन्दर जो कलुषित भावनाएं हैं वे तथ्यों पर आधारित नहीं हैं, जबकि करुणा का भाव हेतु पर आधारित है । इन्हीं विचारों से मुझे मेरे जीवन में विभिन्न जटिल समस्याओं को शांतिपूर्वक सुलझाने में मदद मिली है ।”
परमपावन ने श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर देते हुये कहा कि पुनर्अवतार का विषय शारीरिक नहीं हैं बल्कि चित्त-संतति से जुड़ा हुआ है । हमारे क्षणिक-चित्त का उपादान कारण उसके पूर्व का क्षणिक-चित्त है । परमपावन ने कहा कि वे ऐसे भारतीय एवं तिब्बती बच्चों से मिले हैं जिन्हें अपने पूर्व जन्म की स्पष्ट स्मरण था ।
उन्होंने स्पष्ट करते हुये कहा कि कर्मफल का तात्पर्य कार्य करने और उसके फल से है । उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में कहा कि जब उन्हें भूख लगती है और वे विस्कुट खाते हैं, तो उनका भूख मिट जाता है । मनुष्य जन्म का मिलना एक पुण्य कर्म का फल है । हमारे अन्दर स्व-केंद्रित रवैया होने के कारण कलुषित भावनाएं उत्पन्न होती हैं ।
परमपावन से जब यह पूछा गया कि उनका सबसे प्रिय मित्र कौन हैं, तो उन्होंने उत्तर देते हुये कहा कि उनके अनेक मित्र हैं । लेकिन, जो उनके सबसे करीब थीं, वह उनकी माँ थीं । वे उनकी करुणा के प्रथम गुरु थीं, जो कभी भी क्रोध नहीं करती थी । उन्होंने कहा कि चूंकि वे सदैव मानव-एकता का स्मरण रखते हैं, जहां भी जाते हैं और जिनसे भी मिलते हैं सभी को भाई या बहन जैसा मानते हैं ।
पुनर्अवतार से सम्बन्धिक एक और प्रश्न के उत्तर में परमपावन ने प्रथम दलाई लामा के जीवनी से जुडी एक प्रसंग को कहा- जब उनके एक शिष्य ने उनसे कहा कि वे तो निश्चित ही शुद्ध-क्षेत्र में पैदा होंगे, तो इसके जवाब में प्रथम दलाई लामा ने कहा था कि उनकी ऐसी कोई इच्छा नहीं है, वे ऐसे क्षेत्र में पैदा होना चाहते हैं जहां दुःख हो जिससे वे दूसरों का कल्याण कर सकें । परमपावन ने अपने सम्बोधन के अन्त में बोधिचर्यावतार से अपने प्रिय प्रार्थना का पाठ किया-
जब तक आकाश स्थित हो,
जब तक सत्त्व स्थित हो ।
तब तक मैं भी स्थित रहकर,
प्राणियों के दुःख दूर करुँ ।
छात्रों के एक प्रतिनीधि ने परमपावन को यहां पधारकर अपने सारगर्भित सम्बोधन से अभिप्रेरित करने और उनमें नयी दृष्टि जागृत करने के लिए धन्यवाद किया । परमपावन ने प्रस्थान करते हुये लोगों का हाथ हिलाकर अभिवादन किया तथा लोगों ने भी उसके प्रत्युत्तर में मुस्कराकर एवं हाथ हिलाकर उन्हें विदा किया ।