चण्डीगढ़, भारत – परमपावन दलाई लामा कल धर्मशाला से चण्डीगढ़ तक सड़क मार्ग से पहुंचे । आज सुबह चितकारा विश्वविद्यालय में 11वें ग्लोबल वीक समारोह का उद्घाटन करने के लिए विश्वविद्यालय के प्रतिनिधिगण परमपावन को राजपुर स्थित परिसर तक लेने के लिए आये । ग्लोबल वीक समारोह के दौरान चितकारा विश्वविद्यालय के छात्रों को लघु-अवधि प्रशिक्षण देने के लिए दुनिया भर से अध्यापक आते हैं जिससे बच्चों को एक वैश्विक स्तर की जागरुकता और अध्ययन के अनुभव प्राप्त होते हैं ।
परमपावन दलाई लामा के सम्मान में आयोजित स्वागत समारोह के पश्चात् परमपावन ने विश्वविद्यालय के कुलपति एवं उपकुलपति के संग विद्या की देवी सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्जवलन किया । परमपावन ने सभा को सम्बोधित करत हुये कहा-
“सम्माननीय वरिष्ठ भाईयों एवं बहनों एवं कनिष्ठ भाईयों एवं बहनों, हम वास्तव में भाई और बहनें हैं । ईश्वरवादी धार्मिक परम्परा के अनुसार हम सब उस विधाता द्वारा निर्मित हैं जो अनन्त प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं । अनिईश्वरवादी धार्मिक परम्परा की दृष्टिकोण में हमारा जीवन अनादि काल से विद्यमान है । हम जन्म-जन्मांतरों में मनुष्य के रूप में पैदा हुये हैं और आज हम सब मानव परिवार में भाई और बहनें हैं ।”
“कुछ समस्याएं, जैसा कि प्राकृतिक आपदाएं, हमारे नियंत्रण से बाहर हैं । लेकिन दूसरी समस्याएं, जिसमें दूसरों को धोंस दिखाना, उनका शोषण करना तथा उनके साथ छल-कपट करना इत्यादि ये सब हमारे द्वारा बनाये गये हैं । तथापि, वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रमाण दिये हैं जिससे यह साबित होता है कि मनुष्य का स्वभाव करुणामय है । उनका यह भी कहना है कि निरन्तर क्रोध या फिर भय में रहने से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) कमज़ोर हो जाती है, जिससे यह स्पष्ट है कि आत्मीय भावना को जागृत करना हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहतर है ।”
“बचपन में स्कूल जाने से पूर्व हम सब खुले विचार के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं, लेकिन जैसे ही स्कूल में जाते हैं हम अपनी भावनाओं के प्रति कम ध्यान देते हैं । वर्तमान शिक्षा प्रणाली पश्चिम से प्रेरित है, लेकिन यहां भारत में सदियों से अहिंसा, करुणा, शमथ एवं विपश्यना की ज्ञान परम्परा रही है । जैन और बौद्ध दोनों ही इस परम्परा के उपज हैं । आज हमें मन और भावनाओं की क्रियाशैली को समझाने वाली ऐसी ही शिक्षण व्यवस्था की आवश्यकता है, अन्यथा हम केवल भौतिक उपलब्धि के दौड़ में लगे रहेंगे ।”
“हमें हानिकारक भावनाओं से सामना करने की विधियों को जानना होगा । यदि हम ऐसा करते हैं तो इस बात को समझ पायेंगे कि आत्मीयता का भाव विश्वशांति का आधार है । वे लोग जो केवल भौतिक शिक्षा का ज्ञान अर्जित करते हैं उनकी दृष्टिकोण भी भौतिक पदार्थों तक ही केन्द्रित रहता है, जिसके परिणास्वरूप उनके पास समस्याओं का सामना करने के लिए सिमित ही विचार होते हैं । जिस प्रकार हम बच्चों को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखते हुये उनका पालन-पोषण करते हैं, उसी प्रकार हमें उन्हें भावनाओं में शुचिता लाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे वे दूसरों के प्रति क्रोध और इच्छाओं पर काबू कर आत्मीय भावनाओं को जागृत कर सके ।”
“मैं चित्त और भावनाओं की क्रियाविधि के प्राचीन भारतीय ज्ञान के प्रति लोगों की रूचि को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ, मेरा मानना है कि आज के युग में भारत ही एक ऐसा देश है जहां पर ऐसी पुरातन शिक्षा को आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के साथ संयोजन किया जा सकता है । जिस प्रकार महात्मा गांधी ने 20वीं शताब्दी में अहिंसा को प्रदर्शित किया ठीक उसी प्रकार इस सदी में भारत देश हानिकारक भावनाओं का सामना कर मन की शांति स्थापित करने की आवश्यकता को प्रदर्शित कर सकता है । धर्म जो एक व्यक्तिगत मसला है, लैकिन सार्वभौमिक नैतिकता मानव मात्र के लिए है । इसलिए, यदि मन की शांति के लिए सार्वभौमिक मार्ग अपनाते हैं तो उसका प्रभाव व्यापक स्तर पर होगा ।”
परमपावन ने आनन्दमय जीवन के विषय का उल्लेख करते हुये कहा कि यदि हम इस बात को समझ जायें कि हमारी खुशियों का स्रोत पैसा और ताकत नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर से आता है, तो इससे हम एक शांतमय समाज का निर्माण कर सकेंगे । उन्होंने नालन्दा आचार्यों को याद करते हुये कहा कि नालन्दा के आचार्य बुद्ध वचनों को भी कसौटी पर कसकर मूल्यांकन करते थे, और जब कभी उन्हें बुद्ध वचन तर्क और हेतुओं से विरोध में दिखाई देते थे तब वे बुद्ध द्वारा इस प्रकार उपदेश करने की प्रयोजन का विश्लेषण करते थे ।
परमपावन ने स्वास्थ्य से जुड़े एक प्रश्न का उत्तर देते हुये कहा कि शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना जितना आवश्यक है उतना ही मन की शांति को बनाये रखना भी है । मन की शांति हमें किसी भी परिस्थिति में संयमित रखता है । इसी के आधार पर, 8वीं शताब्दी के भारतीय आचार्य शान्तिदेव ने कहा है कि हमारे शत्रु ही हमारे सबसे श्रेष्ठ गुरु हो सकते हैं । एक स्व-केंद्रित रवैया हमें दूसरों के प्रति भय और शंका से भर देता है, इसके विपरीत जब हम दूसरों को अपने भाई और बहन के रूप में देखने लगते हैं तब भय समाप्त हो जाता है ।
परमपावन ने अपने अनुभव को साझा करते हुये कहा कि जब भी वे किसी प्रकार की समस्या का सामना करते हैं, तो सबसे पहले उस समस्या को विभिन्न नज़रिये से परखते हैं और यह देखते हैं कि उस समस्या को दूर किया जा सकता है या नहीं । यदि उसे दूर किया जा सकता है तो चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है और यदि नहीं किया जा सकता है तो चिंता करने से क्या लाभ होगा । पहले जो हमें एक समस्या के रूप में दिखाई देती है प्रायः वह एक अवसर में बदल जाता है । आज के युवा जब भी किसी चुनौती का सामना करते हैं तो उन्हें उन समस्याओं को एक नये नज़रिये से देखना चाहिए जिससे विश्व में खुशहाली एवं शांतमय वातावरण का निर्माण हो । स्व-केन्द्रित रवैया हमारे मन को संकुचित कर भय उत्पन्न करता है जबकि परोपकारिता और दूसरों के लिए चिंतित रहने से हमारे भीतर आत्मविश्वास का संचार होता है ।
उन्होंने कहा कि हमारी हानिकारक भावनाएं अज्ञानता के कारण उत्पन्न होते हैं, एक ऐसी अज्ञानता जो पदार्थ जैसे दिखाई देते हैं उस रूप में समझना है – अर्थात् पदार्थों का स्वाभाविक सत्तात्मक मान्यता । पदार्थों का भ्रामक रूप में दिखाई देना एक विश्लेषक के ऊपर निर्भर है, इस तथ्य को समझने से मुक्ति मिलती है ।
एक दूसरा प्रश्न यह था कि ऐसे बच्चों को मानवीय मूल्यों के बारे में कैसे बताया जाये जिनके पास जीवन यापन की मूलभूत सुविधा तक नहीं है । परमपावन ने इसके जवाब में दुःख प्रकट करते हुये कहा कि आज वैश्विक स्तर पर अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई है । यहां भारत में जातपात एक समस्या है, जो कि आज गतप्रयोग हो चुका है । लगभग दो हज़ार से अधिक वर्ष पहले तथागत बुद्ध ने जाती आधारित भेदभाव का खण्डन किया था । यह प्रथा एक सामंती विचारधारा से जुड़ा हुआ है तथा इसमें शिक्षा के द्वारा बदलाव लाया जा सकता है । उन्होंने भारत में विकसित बहुलवाद एवं अनेकतावाद की प्रशंसा करते हुये कहा कि हम सब एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए हमें एक दूसरे के प्रति आदर तथा प्रेम की आवश्यता होती है ।
परमपावन ने वैश्विक तापमान और जलवायु संकट पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि यह अत्यन्त गम्भीर समस्या है । उन्होंने ग्रेटा थुनबर्ग द्वारा इस दिशा में लोगों को जागरूक करने के पर्यासों की प्रशंसा की । परमपावन ने कहा कि यह समस्या उनकी आयु के लोगों को इतना प्रभावित नहीं करेगा लेकिन इससे निश्चित ही आज के युवा प्रभावित होंगे और इसलिए हमें इस पर तत्काल आवश्यक निर्णय लेने होंगे ।
एक दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुये परमपावन ने कहा कि इन समस्याओं के बावजूद भी आशावादी बने रहने का आधार है । 20वीं शताब्दी युद्ध और खुन-खराबा का युग था लेकिन युरोपीय संघ के विचार, जिसमें सर्वहित को सर्वोपरि रखा जाता है, मानव की परिपक्वता और आशा का प्रतीक है । अब इस भावना को अफ्रीका, लेटिन अमेरिका और एशिया में अनुकरण करने की आवश्यकता है । ऐसे परिवर्तन होने पर सैन्य खर्चों में बारी कटौती होगी और इस प्रकार संवाद के माध्यम से विवादों को दूर करने में मदद मिलेगी जिसके परिणामस्वरूप यह सदी शांतमय और असैन्यकृत सदी बनेगी ।
“हम यदि व्यक्तिगत रूप से शांत रहेंगे तो इससे एक शांतयम समाज का निर्माण होगा और जिसके फलस्वरूप विश्व में शांति स्थापित होगी । हम सब सुख चाहते हैं और इसके लिए हम जीवन में कुछ अच्छा हो इसकी आशा रखते हैं, लेकिन उसके लिए हमें हमारी बुद्धि का सत्प्रयोग करना होगा । वास्तविक सुख हमारे इन्द्रिय बोध पर नहीं बल्कि मन के ऊपर निर्भर है । और ऐसे होने के लिए हमें मन और भावनाओं की प्रक्रियाओं को समझना होगा, जिसका प्राचीन भारत में सम्पूर्ण रूप से विश्लेषण किया जाता था ।”
परमपावन के सम्बोधन के पश्चात् चितकारा विश्वविद्यालय की ओर से परमपावन को उनके द्वारा मानवता के हित के लिए विश्वशांति और शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय एवं बहुमूल्य योगदान को अभिलक्षित करते हुये डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (डीलिट) की उपाधि प्रदान की गयी । इसके बाद चितकारा विश्वविद्यालय के कुलपति ने धन्यवाद ज्ञापन किया ।
सभागार के बाहर परमपावन ने हैप्पीनेस सेन्टर की पटिया का अनावरण किया तथा उनके यहां पधारने के यादगार में पौधारोपण किया । अपने होटल में लौटन से पहले दोपहर भोजन के लिए कुलपति एवं उपकुलपति ने उन्हें सड़क किनारे ढ़ाबानुमा बनाये गये एक कमरे में आमंत्रित किया ।