थेगछेन छोएलिङ, धर्मशाला, हि. प्र. – आज सुबह जब परमपावन दलाई लामा अपने निवास स्थान से मुख्य तिब्बती मन्दिर के च़ुगलाखाङ के लिए पधार रहे थे तब मौसम साफ था । तकरीबन 6500 श्रद्धालुगण उनकी प्रतीक्षा में बैठे थे, जिनमें से 69 देशों के 2000 लोग आगंतुक थे और उसमें भी 855 लोग 38 एशियायी समूह से थे । थाई भिक्षुओं ने पाली में बुद्ध की वन्दना करने के बाद चीनी भाषा में ‘हृदय सूत्र’ का पाठ हुआ । परमपावन ने कहा-
“आज हम सब यहां फिर से एकत्रित हुये हैं और इस अवसर पर मैं विश्व के अनेक देशों से यहां आये आप सभी लोगों का स्वागत करता हूँ । पिछले कई वर्षों से पारम्परिक बौद्ध देशों के लोग अत्यन्त रुचि और उत्साह के साथ यहां प्रवचन के लिए आ रहे हैं । आज भी यहां प्रवचन का आयोजन हो रहा जिसके लिए मैं आयोजकों को इसे सम्भव बनाने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ ।”
परमपावन ने उल्लेख करते हुये कहा कि सभी धार्मिक परम्पराएं प्रेम, करुणा, क्षमा और संतोष का सन्देश देते हैं । हमारा जीवन मां की देखभाल और प्रेम के आश्रय के साथ प्रारम्भ होता है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते हैं । प्रेम करना और प्रेम का पात्र बनना यह मनुष्य का बुनियादी स्वभाव है । भिन्न-भिन्न धार्मिक परम्पराएं विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त को बताते हैं, लेकिन जब इसके अभ्यास की बात आती है तो सब प्रेम और करुणा पर केन्द्रित रहते हैं । हम यह कह नहीं सकते कि यह या वह धर्म सबसे उत्तम है, और न ही यह कह सकते कि यह दवा सबसे अच्छी है । यह रोगी की परिस्थिति और ज़रुरत पर निर्भर करता है । इन धार्मिक परम्पराओं में सृष्टिकर्ता ईश्वर को मानने वाले और न मानने वाले दो भेद हैं । इनमें ईसाई, ईस्लाम और यहूदी ईश्वर को मानते हैं । ये सभी परम्पराएं अपनी-अपनी अनुयायियों के लिए लाभप्रद हैं ।
“मेरे बहुत सारे ईसाई मित्र हैं जो गरीब और ज़रुरतमंदों की सेवा में समर्पित हैं । वे प्रेम और करुणा के अभ्यास में गम्भीर हैं । सन 1964 में, मैं थाईलेंड़ में था जहां मैं थाईलेंड़ के संघराज से मिला जो मठीय समुदाय का नेतृत्व करते हैं । उनसे मैंने कहा कि किस प्रकार ईसाई भाई और बहनें समाज की सेवा करते हैं, लेकिन हम बौद्ध भिक्षु ऐसे कार्यों को नहीं कर पा रहे हैं । उन्होंने उत्तर दिया कि बौद्ध भिक्षुओं को शहर और गांव से दूर एकांतवास में रहना चाहिए ।”
“कुछ दिन पहले मैं कैथोलिक शिक्षाविदों के एक सम्मेलन के लिए मैंगलुरु में था । मुझे उनके द्वारा शिक्षा के जगत में किये गये योगदान का स्मरण हो रहा है । लेकिन, मैं ऐसी परिस्थितियों से अवगत हूँ कि जहां शिक्षा के नाम पर धर्मपरिवर्तन किया जाता है । अध्यात्म के लाभ को देखते हुये, लोग चाहे किसी भी धर्म का अनुसरण करते हों, मैं धार्मिक सौहार्द को प्रोत्साहित करने के लिये कार्य करता हूँ । जब मैं तिब्बत में था तब धार्मिक सम्प्रदायों के बीच समझ और अच्छे सम्बन्ध की आवश्यकता से परिचित नहीं था ।”
उन्होंने आगे कहा- “आन्तरिक मन की उपेक्षा कर केवल भौतिक वस्तुओं के विकास पर ध्यान केन्द्रित करना मशीन के एक अंग जैसा होना है । 20वीं शताब्दी के अन्त में वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया कि चेतना मस्तिष्क का कार्य मात्र नहीं, बल्कि इससे बढ़कर है । न्यूरोप्लास्टिसीटी से यह साबित होता है कि चेतना मस्तिष्क को परिवर्तित करने में सक्षम ।”
“बुद्ध ने वाराणसी में प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन किया था जो पाली और संस्कृत दोनो परम्पराओं में अभिलिखित हैं । इस धर्मचक्र के विषय- शील, समाधि और प्रज्ञा हैं, तथा अनात्मता की विस्तृत व्याख्या है । उन्होंने राजगीर के गृद्धकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन में प्रज्ञापारमिता की देशना की थी जो संस्कृत परम्परा में अभिलिखित है । इसमें शारिपुत्र और आर्यावलोकितेश्वर द्वारा वस्तुओं की वास्तविक स्थिति के विषय में संवादात्मक शैली में किये गये परिचर्चा का विवरण - ‘हृदय सूत्र’ सम्मिलित है ।”
“आचार्य नागार्जुन ने कहा है कि बुद्ध की देशना दो सत्यों पर आधारित है जो वस्तुओं की वास्तविक स्थिति और आभासित दृष्टि के मध्य का अन्तर बताते हैं । क्वांटम भौतिक विज्ञान जो चेतना को स्वीकार नहीं करता है तथा भौतिक विषयों पर कार्य करता है, वह इस सिद्धान्त को नकारता है कि वस्तुओं की विषय की ओर से कोई सत्ता होती है । यह बौद्धधर्म के चित्तमात्र वैचारिकों के सिद्धान्त के अनुरूप है, जो यह मानते हैं कि केवल चित्त ही सत्य है तथा बाह्य अस्तित्व नहीं होते हैं । सभी वस्तु केवल चित्त की प्रतिबिम्ब मात्र हैं । इसी तरह योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक भी न केवल बाह्य पदार्थ की अस्तित्व का खण्डन करते हैं बल्कि चित्त की स्वभावसत्ता को भी स्वीकार नहीं करते हैं ।”
“भगवान बुद्ध ने प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में संवृत्ति और परमार्थ इन दो सत्यों पर आधारित चार आर्यसत्य के विषय को बताया था- दुखः, दुःख की उत्पत्ति, निरोध और निरोधगामी मार्ग । बुद्ध ने दुःख को चार विलक्षणों के सन्दर्भ में उपदेश दिया - अनित्य, दुःख, शून्य, नैरात्म्य । यहां अनित्य का अर्थ वस्तुओं का सूक्ष्म परिवर्तन से है । मृत्यु होना अनित्यता का स्थूल स्वरूप है । हम देखते हैं कि वस्तुएं साल दर साल बदलते रहते हैं, लेकिन आणविक स्तर पर वस्तुएं क्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होते हैं । मैंने माइक्रोस्कोप में इन्हें देखा है ।”
“जीवन का परिवर्तनशील होना ही दुःख है । हम, जो वस्तु दुःखदायी है उसे एक सुखकर समझकर उसके प्रति आसक्त रहते हैं । हमारे कर्म और क्लेश के द्वारा ही इस शरीर और चित्त का संयोजन होता है जो दुःख के भागी हैं । इस कर्म और क्लेश के बन्धन से छुटकारा पाने के लिए बुद्ध ने नैरात्म्य की देशना की है । बुद्ध ने गम्भीर निरीक्षण करने के पश्चात् यह पाया कि ऐसी कोई आत्मा नहीं है जो नित्य, एकाकी और स्वतंत्र हो ।”
“निरोध के चार आकार हैं – निरोध, शान्त, प्रणीत, निर्याण । हमारे चित्त में क्लेश स्वतंत्र आत्मा की अस्तित्व का भ्रम होने के कारण उत्पन्न होते हैं, लेकिन जब इस भ्रामक बुद्धि का निराकरण किया जाता है तब ये पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं । हमें अज्ञानता – एक ऐसा भ्रामक दृष्टिकोण जो नित्य, एकाकी और स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व को मानता है - उसका निराकरण करना है । यही सभी क्लेशों का का जड़ है । वस्तुओं की सत्ता होती है, लेकिन वैसे नहीं जैसे वे हमें दिखाई देते हैं । आचार्य चन्द्रकीर्ति ‘मध्यमकावतार’ में कहते हैं, यदि वस्तुओं की सत्ता वैसे होते जैसे वे हमें दिखाई देते हैं, तो अन्वेषण करने पर उनकी सत्ता प्राप्त होना चाहिए, लेकिन हमें प्राप्त नहीं होता है । हमारी अज्ञानता के कारण ही हममें अतिश्योक्तिपूर्ण दृष्टि पनपी है । शून्यता का अवबोधन इस भ्रामक विचार का परिहार करता है । जैसाकि आचार्य नागार्जुन मूलमध्यमककारिका में कहते हैं –
कर्म और क्लेशों के उन्मूलन से मुक्ति है,
कर्म और क्लेश विकल्पों से निर्मित होते हैं ।
ये सब भी प्रपञ्चों से उत्पन्न होते हैं,
और शून्यता के भाव से इनका अन्त होता है ।
नालन्दा परम्परा जो हेतु और कारणों पर आधारित अभ्यास है, वैज्ञानिक पद्धति के अनुकूल है । मैंने पिछले 40 वर्षों में समकालीन वैज्ञानिकों के साथ संवाद स्थापित किया है और इससे दोनों को लाभ हुआ है । बुद्ध ने अपनी अनुयायियों को विश्लेषण करने के लिए प्रोत्साहित किया है –
‘हे भिक्षुओं अथवा विद्वानों ! जिस प्रकार स्वर्ण को तपाकर, काटकर तथा रगड़कर उसकी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार मेरे वचनों को भी श्रद्धा मात्र से नहीं बल्कि भलीभांति परीक्षण करने के पश्चात् ही स्वीकार करना चाहिए । ’ नालन्दा के आचार्यों ने इसे शब्दशः लिया और बुद्ध की देशनाओं का विश्लेषण किया और उन्हें नीतार्थ और नैयार्थ दो खण्डों में विभाजित किया ।”
परमपावन ने कहा कि राग, द्वेष और क्लेश हमारे स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते हैं, जबकि दया और करुणा स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाते हैं । राग और द्वेश हमारे आत्म-पोषित रवैया के कारण उत्पन्न होते हैं और इसे बोधिचित्तोत्पाद से परिष्कृत किया जाता है । बोधिचित्त के अभ्यास और शून्यता के अवबोधन से हमारा यह उद्दण्ड चित्त को वश मैं किया जा सकता है ।
परमपावन ने श्रद्धालुओं को 21वीं सदी के बौद्ध बनने के लिए आग्रह किया जो बुद्ध की शिक्षाओं को बखूबी जानता हो । उन्होंने ने ज़ोर देकर कहा कि श्रद्धा मात्र का होना पर्याप्त नहीं है । यदि बौद्ध अनुयायी बुद्ध के शिक्षाओं का विश्लेषणात्मक चिंतन करते हैं तो बौद्धधर्म आने वाले कई वर्षों तक स्थित रहेगा । परमपावन ने कहा कि आज उन्होंने बौद्धधर्म का परिचय दिया है । कल वे आचार्य नागार्जुन के बोधिचित्त विवरण पर प्रवचन देंगे ।