थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - परम पावन दलाई लामा के कार्यालय के बगल के बैठक कक्ष की चहक शांत हो गई जब उन्होंने कक्ष में प्रवेश किया और उनकी प्रतीक्षा कर रहे छात्रों के चेहरों को ध्यान से देखा। उनके चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कुराहट फैली, "सुप्रभात" कहकर उनका अभिनन्दन किया और बैठ गए। वुडस्टॉक स्कूल से कक्षा ११ और १२ के ५१ छात्र थे, जो अपने अतिरिक्त पाठ्यक्रम 'गतिविधि सप्ताह' के दौरान धर्मशाला की यात्रा कर रहे हैं। परम पावन ने प्रथम बार वुडस्टॉक स्कूल के साथ मैत्री की जब निर्वासन में अपने जीवन के प्रारंभ में वह मसूरी में रहते थे, वह पर्वतीय स्थल जहां स्कूल स्थित है।
यह पूछने के बाद कि समूह में कितने तिब्बती और भूटानी छात्र थे, परम पावन जानना चाहते थे कि बाकी के छात्र कहां से आए थे। अधिकांश भारतीय थे, पर कुल सात राष्ट्रों में से आए छात्रों में फिलिस्तीन, सीरिया और अफगानिस्तान के छात्र भी थे।
परम पावन ने सूचित किया कि वह इंडोनेशिया से एक समूह से बात कर रहे थे कि शिया और सुन्नी मुस्लिमों के बीच संघर्ष को उन्हें कितने दुःख का अनुभव होता है। उनके लिए यह सोचना भी असंभव है कि जो लोग एक ही अल्लाह की पूजा करते हैं और उसी कुरान का पालन करते हैं, उनमें इतना संघर्ष होगा, जैसा दिखाई देता है।
उन्होंने उनसे कहा, "परन्तु मैंने भारत में सुन्नी और शिया अनुयायियों के बीच इस तरह के झगड़े के बारे में कभी नहीं सुना है। वास्तव में भारत अनूठा है कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म, वे जिनका जन्म इस धरती पर हुआ है, साथ ही वे जो विदेशों से आए हैं, वे सभी खुशी से यहां साथ रहते हैं। अंतर्धार्मिक सद्भाव की भारत की दीर्घकालिक परम्परा अनुकरणीय है और अब समय आ गया है कि इस अभ्यास को बाकी विश्व के साथ साझा किया जाए।"
छात्रों की ओर से उठने वाले कई प्रश्नों में से पहला परम पावन के अतीत से संबंधित था।
उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया कहा, "कि जब मैं एक बालक था तो मुझे वस्तुओं को अंजर पंजर करने में बड़ा आनन्द आता था, मैं अपने खिलौनों और घड़ियों को जांचता कि वे कैसे काम करते हैं। मैंने एक फिल्म प्रोजेक्टर, जो १३वें दलाई लामा का था, के पुरजे पुरजे अलग कर दिए और पुनः जमा किया। चूंकि मैं युवा था, इसलिए मैंने पौधे उगाने का भी आनंद लिया है। मैंने ल्हासा में नोरबुलिंगका उद्यान में खूबसूरत ट्यूलिप उगाए। इन दिनों, पर अब जब मेरी आयु अधिक हो रही है तो मुझे इन चीजों में कम रुचि है।"
एक और छात्रा यह जानना चाहती थी कि कौन निश्चित करता है कि क्या नैतिक है। परम पावन ने उसे बताया कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और आत्मानुशासन के बारे में सिखाते हैं। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम जैसी कुछ परम्पराएं एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करती हैं और हम सभी को उस ईश्वर की संतान के रूप में मानती हैं। जैन धर्म और बौद्ध धर्म जैसी अन्य भारतीय परम्पराएं स्वयं को सृजन में भाग लेता हुआ देखती हैं, तो परिवर्तन का उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है।
परम पावन ने सलाह दी, "हमें अपने आप पर मात्र ऐन्द्रिक जागरूकता को हावी नहीं होने देना चाहिए, हमें मानसिक चेतना के प्रति भी ध्यान देना चाहिए, एकाग्र चित्त का विकास करना चाहिए और आत्म की प्रकृति और यथार्थ की प्रकृति का विश्लेषण करने के लिए इसका उपयोग करना चाहिए।"
"हम जो अनुभव करते हैं वह हमारे अपने कार्यों का परिणाम है। यदि वह सुख लाता है तो हम मानते हैं कि हमने सकारात्मक किया है; पर यह दुख की ओर ले जाता है तो हम अपने काम को नकारात्मक के रूप में सोचते हैं। जिस तरह हम यह नहीं कह सकते कि सभी अवसरों के लिए एक विशेष दवा सर्वोत्तम होती है, हम यह नहीं कह सकते कि एक धार्मिक परम्परा सर्वोत्तम है। लोगों के विभिन्न प्रकृति के कारण हमें विभिन्न परम्पराओं की आवश्यकता है और इसलिए हमें सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करने की आवश्यकता है।
"हम जिन समस्याओं का सामना करते हैं, उन्हें लाने वाले हम स्वयं ही हैं क्योंकि हम क्लेशों के शिकार हैं। हम मानवता की एकता की किंचित समझ न रखते हुए 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचते हैं। और फिर भी, उदाहरणार्थ, जलवायु परिवर्तन, क्योंकि यह हम सब को प्रभावित करता है, इसका अर्थ है कि हमें एक और वैश्विक दृष्टिकोण लेना होगा। हम इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हम अन्योन्याश्रित हैं। सोच कर देखें कि कैसे तिब्बत और इसकी नदियां एशिया के अधिकांश जल का स्रोत हैं। परन्तु वैश्विक उष्णीकरण के परिणामस्वरूप बर्फबारी में बहुत कमी आई है।"
परम पावन ने एक ऐसे छात्र, जिसने पूछा था कि किस तरह उदासीनता पर काबू पाया जाए और अधिक प्रेरित हुआ जाए, को बताया कि हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार करने की आवश्यकता है। हम अपने स्वास्थ्य को संरक्षित रखने के लिए शारीरिक स्वच्छता के निर्देशों का पालन करने के आदी हैं, लेकिन हमें इसमें भावनात्मक स्वच्छता की भावना जोड़ने की आवश्यकता है। इसका मतलब है क्रोध, भय और घृणा जैसे क्लेशों से निपटना सीखना। नशीली दवाओं अथवा या शराब की ओर न जाकर, अपने चित्त का प्रशिक्षण कर, हम अपनी भावनाओं को परिवर्तित कर सकते हैं।"
प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान के पास इस विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है और यद्यपि वे कहते हैं कि आधुनिक भारत काफी भौतिकवादी है, परम पावन भारत को एकमात्र ऐसा देश मानते हैं जो आधुनिक शिक्षा और चित्त में प्राचीन भारत की समझ में अग्रणी हो सकता है।
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें कभी बुद्ध की शिक्षाओं के विषय में शंका थी, परम पावन ने उत्तर दिया कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी थी कि उन्होंने उन्हें जो कुछ सिखाया था उसे जस का तस न लें अपितु उस पर प्रश्न उठाएं और परीक्षण करें। परिणामस्वरूप सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और विशेष रूप से नालंदा परंपरा कारण और तर्क में आधारित होकर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाती है। उन्होंने समझाया कि इस आधार पर वे वैज्ञानिकों के साथ लगभग चालीस वर्षों से संवाद स्थापित कर सके हैं।
"नालंदा विश्वविद्यालय अब खंडहर में है, पर अध्ययन की जो परम्पराएं वहां फली फूलीं उन्हें शांतरक्षित ने ८वीं शताब्दी में तिब्बत में स्थापित किया। वह एक महान विद्वान और तर्कज्ञ थे, साथ ही विशुद्ध भिक्षु थे और उन्होंने हमें जो कुछ भी सिखाया उसे हमने जीवित रखा।"
बैठक की समाप्ति से पूर्व परम पावन ने २०वीं और २१वीं शताब्दी की पीढ़ियों के बीच अंतर की बात की। "मैं २०वीं शताब्दी का हूं, समय जो जा चुका है। पर आप सभी २१वीं शताब्दी के हैं और आपको अतीत की त्रुटियों को दोहराने से बचने के बारे में सोचना होगा। जहां २०वीं शताब्दी हिंसक संघर्ष से भरी थी, अब निरस्त्र होने की आवश्यकता है।
"कई वर्ष पूर्व रोम में नोबेल शांति विजेताओं की एक बैठक में, हमने आणविक शस्त्रों को समाप्त करने के महत्व पर चर्चा की थी। मैंने सुझाव दिया था कि केवल इसके बारे में बात करना पर्याप्त नहीं है। हमें एक समय सारिणी बनानी चाहिए और उसे लागू करने की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि यह किया जा सकता है क्योंकि आम तौर पर लोग हिंसा से तंग आ गए हैं।
"आणविक शस्त्रों को समाप्त करने के अतिरिक्त, हमें विसैन्यीकरण की एक व्यापक भावना की आवश्यकता है। इसकी कुंजी संवाद के माध्यम से संघर्ष और अन्य समस्याओं को हल करने का दृढ़ संकल्प है। इस तरह के कदमों के बाद, आप जिनका संबंध २१वीं शताब्दी से है, को बेहतर, अधिक शांतिपूर्ण विश्व बनाने का अवसर मिलेगा। धन्यवाद।"
छात्रों ने बड़ी उत्सुकता से परम पावन के साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया जिसके बाद परम पावन मध्याह्न के भोजन के लिए अपने निवास लौट गए।