बेंगलुरू, भारत - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा को युवा पेशेवरों और छात्रों से बात करने के लिए विद्यालोके द्वारा आमंत्रित किया गया था, जिसका नाम प्रज्ञा के प्रकाश को दर्शाता है और जो प्राचीन भारतीय परम्पराओं के प्रति, जिसमें बौद्ध धर्म भी शामिल है, की सराहना को पुनः जाग्रत करने के लिए समर्पित है। जब परम पावन ने सभागार में प्रवेश किया तो उनका पारम्परिक भारतीय रूप से पुष्प, धूप, संगीत इत्यादि के साथ स्वागत किया गया। तत्पश्चात उन्होंने इस अवसर का उद्घाटन करने के लिए दीप प्रज्ज्वलन में भाग लिया। वीर सिंह ने अभिवादन के कुछ शब्द कहे तथा विद्यालोके के समर्थकों को धन्यवाद दिया।
जब परम पावन ने बोलना प्रारंभ किया तो जनमानस में चुप्पी छा गई।
"भाइयों और बहनों, सर्वप्रथम मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं इन शब्दों का उपयोग इसलिए करता हूँ कि मैं आज जीवित ७ अरब मनुष्यों की एकता की भावना रखता हूँ। यदि हम एक अधिक शांतिपूर्ण विश्व का निर्माण करना चाहते हैं, जो शांतिपूर्ण व्यक्तियों से बना हो तो हमें दूसरों प्रति अधिक सोच रखने की आवश्यकता है - परोपकार। वह हमें आंतरिक शक्ति, आत्मविश्वास देता है। जब आपको दूसरों के प्रति अधिक सोच नहीं रखते और आपको लगता है कि आप ब्रह्मांड का केंद्र हैं, तो आप में बाएं और दाएं संदेह की भावनाएँ सख्त होंगी। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप कितने शिक्षित या अमीर हैं, अगर आपके चित्त में शांति नहीं है, तो आप सुखी न होंगे।
"मैं बौद्धधर्म का अभ्यासी हूँ, नालंदा परम्परा का अनुयायी और हमारा मुख्य अभ्यास सभी सत्वों के हित के लिए केन्द्रित होना है - बोधिचित्त। हम सभी सत्वों के कल्याण हेतु प्रार्थना करते हैं परन्तु अन्य आकाशगंगाओं के प्राणियों के लिए हम इतना कुछ नहीं कर सकते। यहां तक कि इस ग्रह पर भी असीमित कीड़े - मकोड़े, पक्षी और जानवर हैं, पर हम उन्हें सिखाने के लिए बहुत कम कर सकते हैं। व्यावहारिक रूप से जिन प्राणियों की हम मदद कर सकते हैं, वे मनुष्य हैं क्योंकि हमारे पास भाषा है और हम सम्प्रेषण कर सकते हैं और अपने अनुभवों को साझा कर सकते हैं।
"प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त जिनमें से अब कई जलवायु परिवर्तन से जुड़े हुए हैं, हमें बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो निश्चित रूप से स्व निर्मित हैं। सामाजिक प्राणियों के रूप में, हम अपने अस्तित्व के लिए समुदाय पर निर्भर करते हैं। हमारी सभी धार्मिक परम्पराओं में चित्त की शांति उत्पन्न करने और प्रेम, दयालुता और आत्म-अनुशासन पर बल देने की क्षमता है। इसी कारण धर्म के नाम पर, कभी-कभी एक ही धर्म के लोग न केवल संघर्षरत हैं, बल्कि एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं, यह सोच से परे है।
"जब जाति, धर्म, राष्ट्रीयता या आप धनी हैं या निर्धन जैसे गौण अंतरों बहुत अधिक बल दिया जाता है, तो एकमात्र उपाय एक गहन स्तर पर देखना है कि मनुष्य के रूप में हम मूल रूप से समान हैं। हम मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से समान हैं - यही कारण है कि मेरी पहली प्रतिबद्धता सभी मनुष्यों की एकता के विचार को बढ़ावा देना है।"
परम पावन ने समझाया कि वह धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं और वह भारत में जिस तरह विॆश्व की प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ साथ-साथ रहती हैं, उससे महान प्रेरणा लेते हैं।
तिब्बती के रूप में तिब्बती लोगों के प्रति उनका उत्तरदायित्व है, जिनमें से अधिकांश उन पर विश्वास रखते हैं। परन्तु २०११ से उन्होंने निर्वाचित नेतृत्व के पक्ष में अपना राजनैतिक उत्तरदायित्व सौंप दिया था। उन्होंने उल्लेख किया कि कैसे एक बच्चे के रूप में उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि तिब्बती संस्थानों को सुधार की आवश्यकता थी और यह कि बहुत कम हाथों में बहुत अधिक शक्ति थी। १९५२ या ५३ में, उन्होंने एक सुधार समिति की स्थापना की जिसकी सफलता सीमित थी क्योंकि चीनी चाहते थे कि कोई भी सुधार उनके अनुसार हो़। एक बार निर्वासन में आने पर, १९६० में, तिब्बती लोकतंत्रीकरण की दिशा में पहला कदम उठाने में समर्थ हुए।
"अब मेरा उत्तरदायित्व तिब्बती भाषा सहित तिब्बती संस्कृति के संरक्षण को सुनिश्चित करना है। नालंदा परम्परा जिसे हमने जीवित रखा है वह कारण व तर्क का उपयोग कर परीक्षण और विश्लेषण पर बल देता है। बुद्ध ने स्वयं अपने अनुयायियों को समझाया कि वे उनके शब्दों को जस का तस न लें अपितु उनकी जांच व परीक्षण करें। परिणामस्वरूप नागार्जुन जैसे शिक्षकों और उनके अनुयायियों ने घोषणा की कि बुद्ध के कुछ कथन शब्दशः नहीं लिए जा सकते है, पर वे व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं।"
परम पावन ने समझाया कि नालंदा आचार्य शांतरक्षित, जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना की थी, और उनके मुख्य शिष्य कमलशील दोनों कुशल दार्शनिक और तर्कज्ञ थे। परिणामस्वरूप प्रारंभ से ही तर्क का उपयोग तिब्बती बौद्ध धर्म का अभिन्न अंग रहा है। और तो और शांतरक्षित के प्रोत्साहन से तिब्बतियों ने संस्कृत से बौद्ध साहित्य का अनुवाद संस्कृत से भोट भाषा में करना प्रारंभ किया। इस दौरान भोट भाषा को नवीनीकृत, समृद्ध और परिष्कृत रूप मिला जिस कारण आज भोट ऐसी भाषा बनी हुई है जिसमें बौद्ध विचार को सबसे सटीक रूप से व्यक्त किया जा सकता है।
परम पावन ने आगे कहा कि तिब्बत के लिए उनकी चिंता उसके प्राकृतिक पर्यावरण तक जाती है, यह ध्यान में रखते हुए कि एशिया की अधिकांश बड़ी नदियों का उद्गम तिब्बती पठार पर है। जब तक स्थिति में परिवर्तन नहीं होता, पहाड़ों पर हो रही कम बर्फबारी से पानी की गंभीर कमी होगी।
परम पावन ने स्पष्ट किया "मेरी चौथी और सबसे हाल की प्रतिबद्धता, प्राचीन भारतीय ज्ञान में रुचि का पुनरुत्थान है विशेष रूप से चित्त और भावनाओं के कार्यों की समझ। आधुनिक भारतीय इन पर अधिक ध्यान नहीं देते पर फिर भी हर कोई अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटने की आवश्यकता को समझ सकता है। शारीरिक स्वच्छता को देखते हुए हम शारीरिक रूप से दुरुस्त रहते हैं, एक समान भावनात्मक स्वच्छता का विकास कर हमारे क्लेशों और विनाशकारी भावनाओं से निपट कर हम मानसिक रूप से दुरुस्त रह सकते हैं।
"आधुनिक शिक्षा भौतिक लक्ष्यों की ओर उन्मुख है, जो आगे भौतिकवादी जीवन का कारण बनती है। इस तरह पले लोग अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटने के बारे में नहीं जानते। यदि प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक शिक्षा के साथ जोड़ा गया तो इससे साहस, आत्मविश्वास और पारदर्शी रूप से काम करने की क्षमता बढ़ जाएगी।"
श्रोताओं की ओर से कई प्रश्नों का उत्तर देते हुए परम पावन ने सुझाया कि प्रभावी होने के लिए एक शिक्षक को अपने छात्रों के आजीवन कल्याण के बारे में चिंतित होना चाहिए। उसे अपने स्वयं के आचरण में सौहार्दता का एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। उन्होंने एक और शिक्षक को सलाह दी जिसने अपने छात्रों को सिखाने के लिए मंत्र पूछा था, कि वे उन्हें ऊँ अरपचन धी जो प्रज्ञा के बोधिसत्व, मंजुश्री का मंत्र है, सिखाएँ। उन्होंने १५वीं शताब्दी के तिब्बती गुरु को उद्धृत करते हुए भारत-तिब्बती संबंधों को चित्रित किया, जिन्होंने कहा था कि जब तक भारत का प्रकाश तिब्बत तक नहीं पहुंचा उसके हिम भूमि होने के बावजूद वहाँ अंधकार था।
उसी प्रश्नकर्ता ने पूछा कि क्या बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के प्रति घृणा पर आधारित था। परम पावन ने उनसे कहा कि दोनों परम्पराओं में तीन प्रशिक्षण, शील , शमथ और विपश्यना आम हैं। यहां बैंगलोर में एक स्वामी के साथ हुई बातचीत को उद्धृत कर उन्होंने समझाया कि जहाँ दो परम्पराएं अंतर रखती हैं, वह उनके आत्मा के विचार को लेकर है। यद्यपि परम पावन ने स्वामी से कहा आप अत्मा में विश्वास करते हैं, मैं अनात्मा में विश्वास करता हूँ - यह व्यक्तिगत निर्णय का विषय है।
क्रोध से निपटने के उपायों को लेकर कई प्रश्न थे। परम पावन ने संकेत करते हुए कहा कि जब आप क्रोधित होते हैं तो समस्याओं का समाधान देखना कठिन होता है। सही और गलत का अंतर करना भी और कठिन हो जाता है। उन्होंने शांतिदेव के 'बोधिसत्चर्यावतार' को पढ़ने की सलाह दी जो अब कई भाषाओं में उपलब्ध है। अध्याय ६ और ८ में क्रोध और संकीर्ण चित्त की आत्म-केंद्रितता से निपटने के सर्वोत्तम उपाय हैं।
परम पावन ने पर्यावरण को लेकर चिंतित एक युवा बालक से कहा कि २१वीं सदी की पीढ़ी के सदस्य के रूप में वह विश्व के भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने आगे कहा कि यदि पर्यावरण की रक्षा के लिए इस समय कदम उठाए गए तो ३० या ४० वर्षों में विश्व एक बेहतर स्थान हो सकता है। परम पावन ने कहा कि विसैन्यीकरण, जिसमें आणविक शस्त्रों का उन्मूलन शामिल है, एक योग्य लक्ष्य है, पर उसे प्राप्त करने के लिए व्यापक आंतरिक निरस्त्रीकरण की आवश्यकता होगी।
एक ऐसे शहर में जहां कई लोग सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों के लिए काम करते हैं, परम पावन ने घोषणा की कि इस तरह की तकनीक का स्रोत मानव मस्तिष्क है। यह स्मरण रखना महत्वपूर्ण है कि प्रौद्योगिकी के उपयोगी होने के लिए, मनुष्य इसे नियंत्रित करें।
सुबह का अंतिम प्रश्न जीवन के उद्देश्य के बारे में था। परम पावन ने स्पष्ट रूप से कहा कि जीवन का उद्देश्य सुख तथा आनन्द ढूंढना है। कुछ भी निश्चित नहीं है, पर हम आशा में जीते हैं। जब आशा खो जाती है तो हमारे पास कुछ भी शेष नहीं रहता और आत्मघाती हो सकते हैं। तो, स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि जीवन का उद्देश्य सुख और आनन्द है। इस बिंदु पर उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि मध्याह्न के भोजन का समय हो गया है और श्रोताओं की ओर से तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी।
कल परम पावन विद्यालोके के अनुरोध पर एक अधिक आम सार्वजनिक व्याख्यान देंगे।