सुमुर, नुबरा घाटी, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा समतेनलिंग प्रवचन स्थल के ऊपर बने मंच पर पहुंचे तो भिक्षु जोशपूर्ण शास्त्रार्थ में लगे थे। उन्होंने जनमानस की ओर देख अभिवादन किया, सदैव की तरह लामाओं और गणमान्य व्यक्तियों का अभिनन्दन किया तथा अपना आसन ग्रहण किया। जब चाय व रोटी परोसी जा रही थी तब मंत्राचार्य ने प्रारंभिक प्रार्थना प्रारंभ की।
"आज, मैं बुद्ध की शिक्षाओं पर प्रवचन देने जा रहा हूँ," परम पावन ने घोषणा की, "अतः हमने 'तीन संतति' और 'हृदय सूत्र' के पाठ से प्रारंभ किया है। पहला पालि और संस्कृत संस्करणों में पाया जा सकता है, परन्तु 'हृदय सूत्र' संस्कृत परंपरा से निकला है। हम नागार्जुन के 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' और 'अभिसमयालंकार' से भी वंदना के छंद का पाठ करेंगे।
"तिब्बती और थेरवाद विद्वानों के बीच हाल की बैठक के दौरान मैंने एक प्रश्न उठाया। बुद्ध ने २५०० वर्ष पूर्व देशना दी। तब से कई चीजें, जैसे कि हम जो वस्त्र पहनते हैं, हमारे घर, परिवहन के हमारे तरीके, काफी बदल गए हैं। तो हमें पूछना होगा कि क्या आज भी बुद्ध की शिक्षा प्रासंगिक है? हमें इसका पालन इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि हम ऐसा करने के आदी हो गए हैं।
"मेरे कई ईसाई, मुस्लिम, हिंदू मित्र हैं जिनकी आस्था ने उन्हें लाभ पहुँचाया है। ये सभी परम्पराएं प्रेम व करुणा का महत्व सिखाती हैं - दूसरों के प्रति सोच। जब मनुष्यों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तो ईश्वर में विश्वास आशा को जीवित रहने में सहायक हो सकता है।
"शिक्षाओं की अपनी पहली श्रृंखला में, जिसे हम प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन कहते हैं, पारंपरिक रूप से पालि में संरक्षित है, बुद्ध ने चार आर्य सत्य और उनके सोलह आकार को व्याख्यायित किया। दूसरी श्रृंखला में जो संस्कृत में है, उन्होंने शून्यता की शिक्षा दी। जहाँ पालि परम्परा मुख्य रूप से आगम के प्रभुत्व पर निर्भर करती है, संस्कृत परम्परा, जिसके उदाहरण नागार्जुन और उनके अनुयायी हैं, कारण पर निर्भर करती है।
जो दिङनाग और धर्मकीर्ति ने तर्क के बारे में लिखा है वह हमें अनुभवजन्य धारणा से परे ज्ञान की हमारी सीमा का विस्तार करने के लिए तैयार करता है। १७ नालंदा आचार्यों के लेखन में जो मनोविज्ञान मिलता है उसका अर्थ है कि बुद्ध की शिक्षाएं न केवल प्रासंगिक हैं, अपितु २१वीं शताब्दी के लिए आवश्यक हैं।
"यदि हम जांच कर देखें कि क्या क्रोध में कोई मुक्त करने की गुणवत्ता है, तो हम पाते हैं कि यह हमारे चित्त की शांति को विचलित करता है, हमारे स्वास्थ्य को परेशान करता है और दूसरों के साथ हमारे संबंधों को क्षति पहुंचाता है। जो भी हो, हमें इसे कम करने की आवश्यकता है। क्रोध का तत्काल स्रोत निराशा और चिढ़ हो सकती है, पर अंतर्निहित यह यथार्थ की हमारी भ्रांत धारणा है। नैरात्म्य और शून्यता के बौद्ध स्पष्टीकरण ऐसी गलत धारणाओं का प्रतिकार करना चाहते हैं। इस बीच, मस्तिष्क की निगरानी करने वाले वैज्ञानिक इन दिनों देख सकते हैं कि जब क्रोध या करुणा जैसी भावनाएं मौजूद हैं तो कौन से वर्ग सक्रिय हैं।"
परम पावन ने कहा कि दस वर्ष पूर्व उन्होंने सुझाव दिया था कि तिब्बती विहार उनके पाठ्यक्रमों में विज्ञान प्रस्तुत करेंगे। उन्होंने किया और एक परिणाम यह है कि उनमें से कुछ के परिसर में विज्ञान प्रयोगशालाएं हैं। अतीत में, भिक्षु विहार तथा भिक्षुणी विहार थे, जो मात्र आनुष्ठानिक कार्यों में लगे थे, जिसमें अध्ययन और सीखने का कोई प्रारूप नहीं था। यह बदल गया है और आजकल आम लोग भी सीखने में रुचि ले रहे हैं।
परम पावन ने टिप्पणी की कि हरिभद्र का 'स्फुटार्थ', 'अभिसमयालंकार' पर २१ भाष्यों में से एक है, दो प्रकार के बौद्ध अनुयायियों में अंतर करता है: प्रखर बुद्धि वाले लोग जो तर्क का पालन करते हैं, और मन्द बुद्धि वाले लोग जो आस्था पर निर्भर करते हैं।
'अभिसमयालंकार' बुद्ध की शिक्षाओं को सत्य द्वय के आधार पर प्रारंभ करने का सुझाव देता है - सांवृतिक और परमार्थिक। यदि चार आर्य सत्यों को उस संदर्भ में समझाया जाए तो निरोध सत्य को समझना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है - किसका निरोध होता है और किसकी अनुभूति होती है। उसको समझना यह समझना है कि बुद्धत्व संभव है और जो मार्ग में हैं वे संघ हैं।"
जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' को पढ़ने से पहले, परम पावन ने उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की। परम पावन ने उन्हें अत्यंत विद्वत्ता से भरा हुआ बताया जो दिन रात धर्म का अभ्यास करते थे।
'अभिसमयालंकार' पर अपनी टिप्पणी लिखने के लिए, उन्होंने भारतीय आचार्यों की सभी २१ ग्रंथों को पढ़ा और उसके पश्चात अपनी व्याख्या की रचना की। परम पावन ने 'सुभाषित स्वर्ण माल' के मूल विचार की तुलना बुतोन रिनपोछे के एक ग्रंथ से की, जिसे प्रायः 'सर्वज्ञानी' कहा जाता है, जो गुह्यसमाज पर नागार्जुन के लेखन पर टिप्पणी है, पर जो केवल भारतीय आचार्य़ के शब्दों की संक्षिप्त व्याख्या करता है। दूसरी ओर, चोंखापा ने जटिल बिंदुओं को स्पष्ट करने का बहुत प्रयास किया है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि चोंखापा की निपुणता ऐसी थी कि विद्वान - सिद्ध टेहोर क्योरपोन ने उन्हें मध्यमक पर जे रिनपोछे के सभी पांच ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया, जिसका सार यह है कि चीजें मात्र ज्ञापित रूप से अस्तित्व रखती हैं।
परम पावन ने अनुमान लगाया कि यदि वह अपने दृष्टि का पालन कर रहे होते तो चोंखापा महान पथक्रम का प्रारंभ चार आर्य सत्यों से करते। पर वे कदमपा द्वारा निर्धारित परंपरा का पालन कर रहे थे। चोंखापा के दो प्रमुख शिष्यों में से एक खेडुब जे के ग्रंथ को पढ़ते हुए, परम पावन आश्चर्यचकित थे कि उन्होंने दूसरों की आलोचना में कठोर शब्दों का प्रयोग किया था - जे चोंखापा अपने लेखन में कभी नहीं करते।
चोंखापा के शिष्यों में से एक छाखो ञवांग डगपा को सिखाने के लिए पूर्वी तिब्बत भेजा गया था। वहां से उन्होंने अपने गुरु को एक पत्र में प्रश्न पूछा जिसका उत्तर 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' हैं। कहीं और, जे रिनपोछे ने लिखा कि जब वे अंततः विश्व में बुद्धत्व को प्रकट करेंगे तो वे इस शिष्य के साथ अपना पहला शिक्षण साझा करेंगे।
मार्ग के तीन प्रमुख आकार में प्रथम, इस बात पर विचार करते हुए कि हम तब तक दुःख का अनुभव करेंगे जब तक हममें मानसिक-भौतिक स्कंध हैं जिनके मूल में कर्म तथा भ्रम है, मुक्त होने का दृढ़ संकल्प विकसित करना है। यद्यपि अवकाश और भाग्य के इस जीवन के अनमोल होने के बारे में हमें दृष्टि खोना नहीं चाहिए। यह जीवन, जिसका प्राप्त होना दुर्लभ है बहुत लाभकारी हो सकता है। हमारे दो लक्ष्य हैं: अभ्युदय और मुक्ति अथवा निःश्रेयस। अभ्युदय के कारणों में दस अकुशल कर्मों से बचना शामिल है। परम पावन ने उल्लेख किया कि नागार्जुन की 'रत्नावली' में ऐसे सोलह कारण हैं। अपने 'चतुश्शतक' में आर्यदेव सलाह देते हैं:
सर्वप्रथम अपुण्य को रोको, तत्पश्चात रोको [स्थूल आत्मा] का विचार।
बाद में सभी प्रकार की दृष्टि रोको,
जो भी यह जानता है वह प्रज्ञावान है।
परम पावन आसन्न मृत्यु पर बोले, यह तथ्य कि मित्र, धन और प्रसिद्धि से कोई सहायता न मिलेगी। सूक्ष्मतम चेतना के उनके उल्लेख ने उन्हें उन अभ्यासियों के बारे में बोलने के लिए प्रेरित किया जो नैदानिक मौत के बाद ध्यान अवशोषण में रहते हैं- एक घटना जिसमें रुचि रखने वाले वैज्ञानिक जांच कर रहे हैं।
दूसरे मार्ग के तीन प्रमुख आकार बोधिचित्त से संबंधित छंदों तक पहुंचने पर, परम पावन ने संकेत दिया कि वे मुक्त होने के दृढ़ संकल्प के लिए एक शक्तिशाली प्रेरणा भी हो सकते हैं। हमारे मातृ सत्व से संबंधित होने के रूप में लिखित, अन्य सत्व वे हम पर भी लागू हो सकते हैं।
चार प्रबल नदियों के बहाव में बह,
दुर्निवार कर्म की गाढ बन्धनों से बँध
आत्मग्राह्य के लौह जाल में फँस
अविद्या के अन्धकार से पूर्ण रूपेण आवृत,
असीम भव चक्र में जन्म और पुनर्जन्म,
तीन दुखों से निरंतर पीड़ित।
उस प्रकार की स्थिति में स्थित माताओं की,
स्वभाव के बारे में सोचकर महाचित्त उत्पाद करें।"
शांतिदेव भी इसी तरह की टिप्पणी करते हैं:
བདག་བདེ་གཞན་གྱི་སྡུག་བསྔལ་དག ། ཡང་དག་བརྗེ་བར་མ་བྱས་ན། ། སངས་རྒྱས་ཉིད་དུ་མི་འགྲུབ་ཅིང་། །
यदि अपने सुख का दूसरों के दुखों के साथ,
अच्छी तरह से परिवर्तन नहीं करेगा।
बुद्धत्त्व प्राप्त नहीं होगा,
भव चक्र में कोई आनन्द नहीं है।
ग्रंथ के अंत तक पहुँचते हुए, परम पावन ने स्पष्ट किया कि अंतिम कविता की विरोधाभासी पंक्तियाँ,
दृश्य प्रतीत्यसमुत्पन्न और अविसंवादक,
शून्य स्वीकार रहित अवगम ये दो।
उस दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है जो बल देकर कहता है कि वस्तुएँ मात्र ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखती हैं।
अंतिम दो पंक्तियों को लेते हुएः
एकांत सेवन और वीर्य बल उत्पादित कर
शीघ्र ही अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करो।
परम पावन ने प्रथम दलाई लामा, गेदुन डुब की घोषणा को उद्धृत किया कि उन्होंने जीवित प्राणियों के लाभार्थ बेहतर काम करने के लिए एकांत को त्याग दिया था। इस भावना को बताते हुए, परम पावन ने टिप्पणी की, कि उन्होंने अपने काय, वाक और चित्त को दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित किया है और वे शांतिदेव के छंदों में से एक द्वारा निर्देशित हैं।
जब तक हो अंतरिक्ष स्थित,
और जब तक जीवित हों सत्व।
तब तक मैं भी बना रहूँ,
संसार के दुख दूर करने के लिए।
अगले ग्रंथ की ओर मुड़ते हुए जिस पर वे प्रवचन देने वाले थे 'परात्मसमपरिवर्तन के लिए गुप्त निर्देश', परम पावन ने बताया कि इसकी शिक्षा उन्हें क्यब्जे ठिजंग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी। यह 'गुरु पूजन’ (लामा छोपा) के छंदों से संबंधित है:
कोई तनिक भी दुःख नहीं चाहता, न ही अपने सुख से संतुष्ट है।
मुझ में और अन्य में कोई अंतर नहीं,
इसलिए, जब अन्य सुखी हों तो मुझे आनन्दित होने के लिए प्रेरित करें।
आत्म-केंद्रितता का यह पुराना रोग,
अवांछित दुःख का कारण है।
यह समझ मैं दोष देने, ईर्ष्या के लिए प्रेरित होऊं,
और स्वार्थ के इस डरावने राक्षस को नष्ट कर दूँ।
मातृ सत्वों की देखभाल और उन्हें आनंद में सुरक्षित करने की कामना, अनंत गुणों के प्रवेश द्वार हैं।
यह देखकर, ये प्राणी मेरे दुश्मन भी बन जायें
अपने प्राणों से भी प्रिय समझूँ, ऐसा प्रेरणा दें।
संक्षेप में, शिशु सत्व, सिर्फ अपने लिए काम करते हैं
जबकि बुद्ध केवल दूसरों के लिए काम करते हैं।
उनके दोषों व गुणों के भेद को समझ मैं परात्मसमपरिवर्तन कर सकूँ, ऐसी प्रेरणा दें।
चूंकि आत्मकेंन्द्रितता सभी यातना का द्वार है,
जबकि मातृ सत्व की देखभाल सभी अच्छाइयों का आधार है।
अतः परात्मसमपरिवर्तन का योग काष
मेरे अभ्यास का मूल बनाने के लिए मुझे प्रेरित करें।
इसलिए, हे भट्टारक गुरु करुणाशील,
मुझे आशीर्वाद दो कि मातृ सत्वों की अकुशल कर्म और दुःख की बाधाएँ मुझ पर परिपक्व हों,
कि मैं दूसरों को अपना सुख और कल्याण दे सकूँ
ताकि सभी सत्वों को आनंद हो।
परम पावन ने जोर दिया कि हम सभी सुख की इच्छा और पीड़ा न चाहने में समान हैं। और तो और अतीत में सत्व हमारे प्रति करुणाशील रहे हैं, जैसा कि वे अब हैं। मुक्ति की प्राप्ति भी सत्वों की दया के कारण है।
आत्म पोषण की पुरानी बीमारी की तुलना में, जो सभी दुःखों का स्रोत है, बोधिचित्त सभी गुणों का स्रोत है - वह वृक्ष जो भव में भटक रहे सभी थके प्राणियों का आश्रय है, चित्त का वह चन्द्रमा जो परेशान धारणाओं के दुःख को दूर करता है, महान सूर्य जो जो अंततः विश्व के धुंध भरे अज्ञान को दूर करता है, और जो धर्म दूध के मंथन से निकला उत्कृष्ट नवनीत है।
अंत में, परम पावन ने उल्लेख किया कि गदेन ठिसूर रिनपोछे के साथ बातचीत में उन्हें स्मरण कराया गया था कि द्वितीय दलाई लामा, गेदुन ज्ञाछो ने आगम ग्रंथ मंजुश्री-नाम-संगीति या 'मंजुश्री के नामों का जप' पर एक भाष्य लिखा था। भाष्य गेलुग संचरण के बीच असामान्य है, पर उन्हें यह दिलगो खेनछे रिनपोछे से प्राप्त हुआ, जो उन्हें जमयंग खेनछे वंगपो से मिला था। आज, परम पावन ने मूल ग्रंथ का पाठ संचरण दिया जो आम तौर पर भिक्षु कंठस्थ करते हैं।
जब वह अंत तक पहुंचे तो उन्होंने घोषणा की कि कल वह एक दीर्घायु अभिषेक देंगे, जिसके उपरांत परम पावन की दीर्घायु के लिए प्रार्थना और समर्पण होंगे।