थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः मुख्य तिब्बती मंदिर के प्रांगण में विश्व के विभिन्न भागों से आए ५०० तिब्बती तथा भारत के विभिन्न आवासों और नेपाल के १७० तिब्बतियों से भेंट की। वे धर्मशाला में मध्यम मार्ग दृष्टिकोण पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए एकत्रित हुए थे।
"चूंकि मैंने मध्यम मार्ग दृष्टिकोण तैयार किया," परम पावन ने उनसे कहा, "मुझे लगता है कि मुझ पर इसे समझाने का उत्तरदायित्व है।"
उन्होंने १९५० के दशक के प्रारंभ से चीन सहित बाहरी विश्व से व्यवहार के अपने आरंभिक अनुभवों का स्मरण किया। इसके बाद उन्होंने भारतीय प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू से परिचय कराए जाने को याद किया।
"मैं १९५४ में प्रथम बार उनसे बीजिंग में मिला, फिर पुनः १९५६ में जब मुझे भारत में २५००वें बुद्ध जयंती समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। तब तक, चीनी साम्यवादियों ने तिब्बत में अपना क्रूर आक्रमण प्रारंभ कर दिया था। परिणामस्वरूप मेरे मंत्री और मेरे भाई मेरे तिब्बत लौटने के पूरी तरह से विरोध में थे। उन्होंने मुझे भारत में रहने के लिए राजी करने का प्रयास किया। मैंने इस पर नेहरू के साथ चर्चा की, जिन्होंने मुझे तिब्बत लौटने की सलाह दी। उन्होंने सत्रह बिंदु समझौते के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डाला, जिसके आधार पर उन्होंने महसूस किया कि हम अभी भी चीनियों के साथ बातचीत कर सकते हैं। उन्होंने सिफारिश की, कि मैं तिब्बत के भीतर रहकर ऐसा करना का प्रयास करूँ।
"परन्तु एक बार जब मैं लौटा, तो हमारी मातृभूमि की स्थिति का पतन बना रहा और अंततः स्थिति उस बिंदु तक पहुँची कि मुझे पलायन करना पड़ा। यद्यपि तिब्बत लौटने के फायदों में से एक यह था कि मैं अपने गेशे ल्हरम्पा परीक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हो पाया।"
चीनी अधिकारियों के साथ बातचीत करने के अपने असफल प्रयासों का वर्णन करने के बाद, परम पावन ने भारत में शरणार्थियों के रूप तिब्बतियों के जीवन को वर्णित किया।
एक बार भारत की स्वतंत्रता और सुरक्षा में बसने के बाद, परम पावन और उनके पूर्व मंत्रियों ने संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत के मुद्दे को उठाने के लिए यथा संभव प्रयास किया।
"यद्यपि संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्तावों से तिब्बत के अंदर कोई ठोस परिणाम नहीं आए, परन्तु दूसरे प्रस्ताव में तिब्बती लोगों के आत्मनिर्भरता के अधिकार पर बल दिया गया।
"नेहरू ने सलाह दी कि तिब्बती मुद्दे का हल चीन के साथ सीधे सामना करना है। उन्होंने आगे सिफारिश की कि तिब्बती मुद्दे को जीवित रखने का असली उपाय हमारे युवा लोगों को शिक्षित करना था।"
परम पावन ने समझाया कि उन्होंने पहली बार १९७४ में मध्यम मार्ग दृष्टिकोण के बारे में सोचना प्रारंभ कर दिया था, जिन विचारों ने अंततः देंग ज़ियाओपिंग के साथ उनके बड़े भाई की बैठक का रास्ता बनाया।
"१९७८ में देंग ज़ियाओपिंग और मेरे बड़े भाई के बीच दो घंटे की बैठक के दौरान, देंग ज़ियाओपिंग ने उनसे कहा कि स्वतंत्रता के अतिरिक्त बाकी सब कुछ पर चर्चा की जा सकती है। क्योंकि उन्होंने सुना था कि कई हजार तिब्बती बच्चे भारत में आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उन्होंने यहाँ तक कहा कि हम उनमें से कुछ को तिब्बत भेजें जहाँ अंग्रेजी अनुवादकों की तत्काल आवश्यकता थी।"
परम पावन ने यथार्थ को लेकर अपने अद्वितीय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण तिब्बती बौद्ध परम्पराओं को जीवित रखने के महत्व पर बल दिया। उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए साहित्यिक तिब्बती के कामकाजी ज्ञान को बनाए रखना महत्वपूर्ण था।
मानवता की एकता के विचार को बढ़ावा देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हुए परम पावन ने पूछा कि यह कैसे संभव होगा यदि इसमें चीनी लोगों को शामिल न किया जाए।
उन्होंने तिब्बती एकता को कायम रखते हुए चीनियों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के महत्व पर बल दिया।
"भविष्य में, मेरा मानना है कि हमारी समृद्ध धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर विश्व के बाकी हिस्सों में महत्वपूर्ण तथा लाभकारी योगदान दे सकती है। अतः हमें अपने बीच क्षेत्रीय मतभेदों से विचलित हुए बिना मिलकर काम करना है।"
बैठक लगभग एक घंटे बाद खत्म हो गई जब परम पावन अपने निवास में लौट गए। श्रोता अपने चेहरों पर मुस्कुराहट और हाथों में आशीर्वचित गोलियां तथा सुरक्षा सूत्र लिए लौट गए।