दिस्कित, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, भारत, दिस्कित फोडंग या निकट के प्रवचन स्थल के साथ का भवन नगर से ऊपर एक प्रतिष्ठित स्थान पर स्थित है। यह दिस्कित विहार तथा विहारीय फोडंग से दूर से दिखाई देता है जहाँ से आज प्रातः परम पावन दलाई लामा निकले। जब वे शहर से होकर गुज़रे तो कई लोग उनका अभिनन्दन करने हेतु बाहर आए और प्रवचन स्थल पर अनुमानतः ५६०० लोग उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। जब वे प्रवचन मंडप की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे तो भिक्षुगण उत्साह पूर्वक शास्त्रार्थ में लगे हुए थे। उन्होंने अपने मेजबान, पूर्व राज्यसभा सदस्य, ठिकसे रिनपोछे, पूर्व गदेन पीठ धारक रिज़ोंग रिनपोछे का अभिनन्दन किया और अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व हाथ हिलाकर जनमानस का अभिनन्दन किया।
प्रारंभिक प्रार्थनाओं के उपरांत, जिसमें हृदय सूत्र का पाठ शामिल था तथा मक्खन चाय, रोटी और मीठे चावल परोसे जाने के बाद परम पावन ने प्रवचन प्रारंभ किया।
उन्होंने कहा, "मैं यहाँ एक बार पुनः नुबरा में हूँ।" "आज, मैं बोधिचित्तोत्पाद का नेतृत्व करने जा रहा हूँ, जो मैं स्वयं नित्य प्रति करता हूँ और साथ ही शून्यता पर ध्यान करने का मार्गदर्शन भी दूंगा।"
विषय से हटते हुए परम पावन अपने सामने बैठे भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों को सलाह दी कि जब सूरज तपने लगे तो वे अपने चीवर के ऊपरी भाग से अपने सर ढांक लें। उन्होंने आम लोगों को भी टोपी पहनने या छाते का उपयोग करने का निर्देश दिया।
"हम में से जो यहां एकत्रित हुए हैं, चाहे हम धर्म का पालन करें अथवा नहीं, हम चाहे स्वयं को बौद्ध, मुसलमान ईसाई या हिंदू मानें, सबसे पहले हम मनुष्य हैं। हमारी धार्मिक अस्मिता गौण है। हम सभी सत्वों के कल्याण के लिए प्रार्थना कर सकते हैं, पर व्यावहारिक रूप से यह हमारे साथी मानव हैं जिनके लिए वास्तव में हम कुछ कर सकते हैं। हम पशु, पक्षियों और कीड़े मकोड़ों से घिरे हुए हैं, फिर भी उन्हें सिखाने के लिए हम बहुत कम कर सकते हैं। भाषा हमें अन्य लोगों के साथ प्रेम व करुणा के अपने अनुभव को साझा करने में सक्षम बनाती है।
"७ अरब मनुष्य सहित सभी सत्व सुख चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। यह हमारे चित्त की अवस्था का विषय है। हमारे पास पांच ऐन्द्रिक चेतनाएँ हैं, पर यह छठी, मानसिक चेतना है, जो पीड़ा या सुख की कुंजी रखती है। हम सुन्दर व मनमोहक घटनाओं को देखने का आनंद ले सकते हैं, हृदयस्पर्शी संगीत सुन सकते हैं, सुगंधित वस्तुओं की महक ले सकते हैं, स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले सकते हैं या स्पर्श के सुख का आनंद उठा सकते हैं, पर यदि इन ऐन्द्रिक अनुभवों की तुलना चित्त की शांति से करें तो मानसिक अनुभव अधिक सशक्त तथा स्थायी होता है।
"मैं स्पेन में एक ईसाई सन्यासी से मिला जिसने प्रेम पर ध्यान करते हुए पांच वर्ष पहाड़ों में बिताए थे। उसने स्वयं को चाय और रोटी पर जीवित रखा था और वह लगभग किसी अन्य शारीरिक आराम पर निर्भर नहीं था, पर फिर भी उसकी आंखों की चमक उसके गहन सुख को प्रकट कर रही थी जो उसके चित्त में भरी हुई थी। चित्त की शांति के बिना, सुख आपसे कन्नी काटेगा। यदि आपमें चित्त की शांति हो तो आपको कुछ भी विचलित नहीं करेगा। क्रोध, अहंकार और ईर्ष्या आंतरिक शांति को नष्ट कर देते हैं; प्रेम व करुणा इसे पहले जैसा व मजबूत करते हैं। यही कारण है कि प्रेम, करुणा, संतोष व सहिष्णुता सभी धार्मिक परंपराओं के लिए आम है - वे मनुष्यों को शांति व सुख देते हैं।"
परम पावन ने चर्चा की, कि किस तरह ईश्वरवादी धर्म एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं और इस तरह के ईश्वर को अनंत प्रेम और दया से भरे होने पर विचार करते हैं। अनीश्वरवादी परम्पराएँ जैसे सांख्य की एक शाखा, जैन व बौद्ध सुख के स्रोत को अपने हाथों में मानती हैं। यही कारण है कि बुद्ध ने कहा कि बुद्ध अकुशल कर्मों को जल से धोते नहीं, न ही सत्वों की पीड़ा को अपने हाथों से हटाते हैं; न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं; वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त करते हैं।
परम पावन ने आगे कहा "नालंदा परंपरा से संबंधित बुद्ध के अनुयायी के रूप में, जिसने अध्ययन, मनन व चिंतन किया है, मुझे लगता है कि हमें सभी मनुष्यों के लिए चिंता होनी चाहिए, क्योंकि हम सभी सुख चाहते हैं। इसके अतिरिक्त हमें अपनी विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के बीच सद्भाव को बढ़ावा देना चाहिए, इसके बावजूद कि हम विभिन्न दार्शनिक स्थितियों को अपनाएँ। आखिरकार, नालंदा परम्परा के अंदर केवल मध्यमक मार्ग तथा चित्त मात्र परम्पराओं के बीच मतभेद हैं, पर वे लड़ने झगड़ने के आधार नहीं हैं। अंततः ये सभी परम्पराएं प्रेम व करुणा के अभ्यास की सराहना करती हैं।
"विगत लगभग ४० वर्षों में मैंने आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ व्यापक चर्चा की है। उनमें से कुछ बोलना प्रारंभ करने से पहले शिशुओं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। आगे प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि करुणा प्रतिरक्षा व्यवस्था को सशक्त करती है, जबकि क्रोध और घृणा इसे दुर्बल करते हैं।"
परम पावन ने श्रोताओं में स्कूल के बच्चों से पूछा कि क्या वे लोगों को एक साथ हँसते हुए देखना अथवा झगड़ा करते हुए और एक दूसरे से दूर भागना पसंद करते हैं। तब उन्होंने टिप्पणी की कि यद्यपि कुछ लोग जो एक लड़ाई देख उसमें शामिल होना चाहते हैं, पर अधिकांश रूप से दूसरों को सुखी देखकर हमें भी सुख मिलता है। उन्होंने टिप्पणी की, कि हम मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं जिनके लिए मैत्री सुख की एक स्थिति है। पर मित्र बनाने के लिए विश्वास की आवश्यकता है। करुणा हमें बेईमानी और दूसरों को धोखा देने से बचने के लिए तैयार करती है - जो कि विश्वास का एक आधार है।
परम पावन ने यह भी कहा कि सुख प्राप्त करने के संबंध में, मात्र भौतिक विकास पर्याप्त नहीं है। प्रेम व और करुणा जैसे आंतरिक मूल्य भी महत्वपूर्ण हैं। ये चित्त शोधन के उपायों से संबंधित हैं जो चित्त को शांत करने वाले शमथ तथा प्रज्ञा व अंतर्दृष्टि का विकास करने वाले विपश्यना जैसे सामान्य भारतीय अभ्यासों से विकसित हुए हैं।
"जिस तरह हम व्यायाम करते हैं तथा शारीरिक रूप से ठीक रहने के लिए स्वयं को साफ रखते हैं, हमें चित्त को प्रशिक्षित करने तथा अपने क्लेशों से निपटने की भी आवश्यकता होती है, यदि हम मानसिक रूप से भी ठीक रहना चाहें।"
परम पावन के अनुरोध के उत्तर में, श्रोताओं ने उन ग्रंथों की प्रतियां सामने कीं जिन पर वे प्रवचन देने वाले थे, जिसे भोट, अंग्रेजी और चीनी में उपलब्ध कराया गया था। उन्होंने स्पष्ट किया कि 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' में, बुद्ध की स्तुति उनके शारीरिक गुणों के लिए नहीं की गई थी पर उनके द्वारा आश्रित उत्पत्ति की देशना के लिए की गई थी। उन्होंने उल्लेख किया कि उनकी पहली श्रृंखला की शिक्षाओं में जिसका संबंध चार आर्य सत्यों इत्यादि से था उन्होंने कारण की अवधारणा को प्रस्तुत किया जैसा कि प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग में दिखाया गया है। ये अज्ञान से प्रारंभ होते हैं तथा जरा व मृत्यु से समाप्त होते हैं। अज्ञान हमें अप्रबुद्ध अस्तित्व में डाल देता है, पर इस पर काबू पाने से मुक्ति मिलती है।
बुद्ध ने अपनी प्रबुद्धता के बाद घोषित किया,
गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा,
अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।
फिर भी, उन्होंने अंततः चार आर्य सत्य और विनय की शिक्षा दी, जो बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में सामान्य हैं। बाद में, गृद्धकूट पर उन्होंने अनित्यता, दुःख की प्रकृति, इन सत्यों का नैरात्म्य व शून्यता और वे किस तरह निरोध तथा उसके मार्ग के लिए अनुकूल हैं, को व्याख्यायित किया। अपने विश्लेषण में उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रभाव उनके हेतुओं पर निर्भर करते हैं, हेतु भी उनके प्रभाव पर निर्भर हैं - वे परस्पर आश्रित हैं।
इसका उत्तर देने के लिए वस्तुओं के यथार्थ की खोज करने का उद्देश्य क्या है, नागार्जुन ने कहा, "कर्म और क्लेशों के क्षय में मोक्ष है; कर्म और क्लेश विकल्प से आते हैं, विकल्प मानसिक प्रपञ्च से आते हैं, शून्यता में प्रपञ्च का अंत होता है।" प्रमुख बात भ्रांत दृष्टि को समाप्त करना है जो क्लेशों को जन्म देते हैं।
जब नागार्जुन मध्यमक विचार बल देकर कहते हैं कि वस्तुएँ वास्तव में अस्तित्व नहीं रखतीं, तो इसका अर्थ यह है कि वे जिस रूप में दिखाई देती हैं - आंतरिक सत्ता रखते हुए, उस रूप में अस्तित्व नहीं रखतीं। प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति का प्रारंभ उनके द्वारा दिए गए प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा - कि वस्तुएँ स्वतंत्र नहीं हैं अपितु मात्र ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखती हैं, के निर्देशों के कारण बुद्ध को एक अतुलनीय शिक्षक के रूप प्रशंसित कर होता है।
छंदों को पढ़ने के दौरान, परम पावन ने सुझाया, कि यदि उनके श्रोताओं को रुचिकर लगे तो उन्हें नागार्जुन की 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' और उनकी 'रत्नावली' भी पढ़नी चाहिए। कुछ और देर बाद उन्होंने भवविवेक के 'प्रज्ञा दीप' और 'तर्क ज्वाला' साथ ही चंद्रकीर्ति के 'प्रसन्नपद' का सुझाव दिया।
'प्रतीत्य समुत्पाद' तथा 'चित्त शोधन के अष्ट पद' को समझाने के बाद परम पावन ने 'सर्वव्यापी योग' में सभा का नेतृत्व किया, जो परोपकार तथा शून्यता का अनुभव प्रस्तुत करता है।
"आप चाहे धार्मिक हों या नहीं, और चाहे आप बौद्ध हों या नहीं, एक अच्छा हृदय वाला व्यक्ति बनना अच्छा है। जैसा शांतिदेव ने सिखायाः
इस लोक में जो भी आनन्द है
वे सब अन्य लोगों की सुख की इच्छा से आते हैं,
और इस लोक में जो भी दुख है
वे सब स्व - सुख की इच्छा से आते हैं।
"इसी प्रकार, 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' तथागत का विश्लेषण देती है:
न ही स्कंध, न स्कंधों से पृथक
स्कंध उनमें नहीं और न ही वे स्कंध में हैं तथागत स्कंध युक्त नहीं हैं तो तथागत क्या है?
"मुझे इन बातों को स्वयं पर लागू करना उपयोगी लगता है जो इससे समाप्त होता है, 'मैं कौन हूँ?'"
परम पावन ने उल्लेख किया कि शून्यता की अनुभूति प्रज्ञा के संभार में योगदान देता है और परोपकार का विकास पुण्य संभार में योगदान देता है। चूंकि अंततः ये बुद्ध के दो कायों का परिणाम हैं, अतः इन पर प्रतिदिन चिंतन करना महत्वपूर्ण है। यह स्वीकार करते हुए कि वे जिन ग्रंथों का पालन कर रहे थे वे बौद्ध थे, पर श्रोताओं में मुसलमान और बौद्ध दोनों थे, परम पावन ने समाप्त करते हुए कहा कि परोपकार उन सभी को लाभान्वित करेगा।
लद्दाख बौद्ध संघ के स्थानीय अध्यक्ष ने धन्यवाद प्रस्तुत की और आशा व्यक्त की कि परम पावन बार-बार नुबरा लौटेंगे और प्रार्थना की कि वे दीर्घायु हों।
तुरतुक, बोगदांग और नुबरा के मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधि दिस्कित फोडंग के बगल में एक शामियाने में मध्याह्न के भोजन के लिए परम पावन के साथ सम्मिलित हुए। बाद में, प्रवचन स्थल पर लौटकर परम पावन ने उन्हें संबोधित किया, तथा पांचवें दलाई लामा के समय ल्हासा में बसने वाले तिब्बतियों और मुसलमानों के बीच उत्कृष्ट संबंधों का स्मरण किया। उन्होंने अपनी प्रशंसा दोहराई कि उस समुदाय के सदस्य, जो अब श्रीनगर में पुनर्स्थापित हुए हैं, केंद्रीय भोट बोली पर अपना अधिकार बनाए हुए हैं, जिसे वे अपने बच्चों को दे रहे हैं।
परम पावन ने उल्लेख किया कि हाल ही में लेह में इस्लाम की सुन्नी और शिया शाखाओं के प्रतिनिधि उनसे मिलने आए थे। उन्होंने उन्हें सुझाया कि चूंकि भारत में अंतर्धार्मिक सद्भाव की लंबी परम्परा है और चूंकि इस देश में सुन्नी और शिया के बीच संघर्ष की कोई घटना नहीं हुई है, अतः भारतीय मुसलमान विश्व में ऐसे झगड़े किस तरह शांत किए जा सकते हैं, को लेकर मुस्लिम नेताओं का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं।
दिस्कित विहार लौटते हुए परम पावन ने नव स्थापित दिस्कित जामा मस्जिद का दौरा किया जहां वह प्रार्थना में खड़े हुए। बाहर बैठकर, विभिन्न मुस्लिम बुजुर्गों और नेताओं ने विश्व में परम पावन की भूमिका की प्रशंसा व्यक्त की। यह कहा गया कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार जैसा पुरस्कार बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए नहीं दिए गया था, अपितु सभी धार्मिक परंपराओं के प्रति उनके सम्मान तथा उनके बीच सद्भाव को बढ़ावा देने और दुनिया में शांति को बढ़ावा देने के उनके कार्य के लिए दिया गया था। लोग गलतियां करते हैं, परन्तु परम पावन जैसे नेता हर जगह लोगों को बेहतरी के लिए प्रभावित करते हैं।
उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे यहां आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद। आपको पता होना चाहिए कि आज पूरा विश्व परस्पर निर्भर है। अतीत में देश एकाकी होकर रह सकते थे पर अब वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण से हम अन्योन्याश्रित हैं।
"जलवायु परिवर्तन और वैश्विक उष्णता के मामले में, हम सभी प्रभावित हैं। परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि देखने की संभावना है, अतः हमें मानवता की एकता की भावना पैदा करनी चाहिए। स्वयं के बारे को एक संकीर्ण तरीके से सोचने से सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेगा। विगत शताब्दियों में, जब हमने 'हम' और 'उन' के विचारों के साथ कार्य किया तो परिणाम यह हुआ कि हमने युद्ध में एक-दूसरे को मार डाला। यदि, दूसरी तरफ, हम मानवता की एकता के बारे में जागरूक होकर, साथ मिलकर काम करें तो हम जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों को रोकने में सक्षम हो सकते हैं।
"संयुक्त राष्ट्र की स्थापना एक बात थी, पर जिस तरह फ्रांस और जर्मनी शताब्दियों के संघर्ष के बाद सब के हित के लिए यूरोपीय संघ बनाकर अतीत को पीछे रखने का निश्चय किया, मैं उसका प्रशंसक हूँ। यह विश्व के लिए एक सुखद अन्योन्याश्रित समुदाय बनने का प्रारूप है।"
परम पावन ने अपने श्रोताओं को सूचित किया कि २००१ की ११ सितंबर की घटना के बाद, जब भी संभव हुआ उन्होंने इस्लाम की प्रतिष्ठा को कमजोर करने के प्रयास का विरोध किया और मुसलमानों का बचाव किया था, क्योंकि अन्य परंपराओं की तरह, इस्लाम मुख्य रूप से प्रेम और करुणा का संदेश देता है। उन्होंने तुरतुक में एक शिक्षक का स्मरण किया जिसने उन्हें बताया था कि जो कोई रक्तपात के लिए उकसाता है वह फिर सही मुसलमान नहीं रह जाता और सच्चे मुसलमानों को अल्लाह के सभी प्राणियों पर दया दिखाने का हुक्म है।
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक की मक्का के तीर्थयात्रा के लिए उनकी प्रशंसा का जिक्र करने के बाद, परम पावन ने अपनी खुशी व्यक्त की कि वे सम्मान के प्रतीक के रूप में एक सफेद टोपी पहनने में सक्षम हुए और यह दिस्कित मस्जिद की तीर्थ यात्रा की।
फिर परम पावन दिस्कित विहार फोडंग लौट आए, जहां से वे कल सुमुर में समतेनलिंग विहार के लिए प्रस्थान करेंगे।