बोधगया, बिहार, भारत, आज प्रातः परम पावन दलाई लामा ने तिब्बती मंदिर से कालचक्र मैदान तक की छोटी यात्रा की, एकत्रित जनमानस का अभिनन्दन किया और मंडल मंडप के समक्ष बैठे। उन्होंने तेरह देवता वज्रभैरव अभिषेक प्रारंभ करने हेतु स्वयं को तैयार करने के लिए आवश्यक अनुष्ठान व ध्यान करते हुए लगभग एक घंटा बिताया। जब वे ऐसा कर रहे थे तो ज्ञुतो मंत्राचार्य ने 'मंजुश्री स्तुति: महान प्रज्ञा, उत्तम गुण' के पाठ और उनके 'अ र प च न धी' मंत्र को दोहराया।
एक बार जब परम पावन तैयार हो गए और सिंहासन पर आसीन हो गए तो 'अभिसमयालंकार' और 'मूलमध्यमकारिका' के वंदना के छंदों के साथ जे चोंखापा के ‘गुणों का आधारभूत’ के पाठ किए गए।
"आज के मुख्य शिष्य ज्ञुतो और ज्ञुमे तांत्रिक महाविद्यालयों के भिक्षु हैं," उन्होंने समझाया "यमंतक के विभिन्न रूपों में, आज मैं तेरह देवताओं के रूपों की तैयारी प्रदान करूँगा। नए अनुवाद परम्परा तथा पुराने ञिङमा परम्परा दोनों में मंजुश्री के भयंकर, रौद्र रूप हैं। नागार्जुन जैसे भारतीय आचार्य मंजुश्री पर निर्भर करते थे, जैसा कि सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के आचार्यों ने किया। मंजुश्री के ऐसे अभ्यास हैं जिनमें तंत्र व्यवहृत है और अन्य जिनमें नहीं है। आज हम मंजुश्री के जिस रूप का अभ्यास प्राप्त करने जा रहे हैं वह यमंतक का रौद्र रूप है। अभ्यास का एक अनूठा पक्ष यह है कि यह शांत व रौद्र दोनों अभ्यासों को जोड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि विशेष रूप से शांतिपूर्ण अभ्यास के एक प्रासंगिक परिणाम स्वरूप रौद्र क्रियाओं का जन्म हुआ और इसके विपरीत रूप में भी।
"सभी अनुत्तर योग तंत्र अभ्यासों में मैंने सर्वप्रथम तगडग रिनपोछे से यमंतक प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त मैंने बाल्यकाल से मंजुश्री के अभ्यास को विकसित किया है और मैं प्रामाणित रूप से कह सकता हूँ कि यह प्रज्ञा के विकास में प्रभावी है।
"मैं मंजुश्री की वंदना करता हूँ
जो कुमार रूप में प्रकट होते हैं
प्रज्ञा दीप से अलंकृत
तीनों लोकों के अंधकार को नष्ट करते हुए।
"हम तर्कमूलक, स्पष्ट, तेज और गहन प्रज्ञा को बढ़ाने के लिए मंजुश्री का आनन्द भूमि के सैकड़ों देवों के साथ अभ्यास भी कर सकते हैं।
"शून्यता तथा बोधिचित्त पर ध्यान अपने आप में प्रबुद्धता नहीं दिला सकते। बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए हमें बुद्ध के धर्मकाय तथा निर्माणकाय के पर्याप्त हेतुओं को पूरा करने की भी आवश्यकता है, जो कि तंत्र के अभ्यास का एक फल है।"
परम पावन ने कहा कि अभिषेक के लिए शिष्य के रूप में गुणवत्ता प्राप्त करना शिक्षा तथा गुरु पर आस्था है। उन्होंने आध्यात्मिक परंपराओं के बीच सद्भाव के महत्व पर बल देते हुए एक गैर-सांप्रदायिक दृष्टिकोण की सराहना की। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि पहले से पाँचवीं दलाई लामा सभी गैर-सांप्रदायिक थे और यद्यपि गेदुन ज्ञाछो, द्वितीय ने अपने डेपुंग को अपना आवास बनाया, उन्हें व्यापक रूप से 'गैर-सांप्रदायिक पीली टोपी लामा' के रूप में जाना जाता था। तेरहवें दलाई लामा ने भी यह परम्परा बनाई रखी तथा तेर्तोन सोज्ञल से शिक्षा प्राप्त की। परम पावन ने सुझाया कि गैर-सांप्रदायिक होने के कई लाभ हैं और यदि हम एक दूसरे से नहीं सीखते तो हमारा हमारी हानि है।
मुख्य शिष्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले ज्ञुतो और ज्ञुमे के उपाध्यायों ने मंडल और बुद्ध के काय, वाक् व चित्त के त्रिवर्गीय प्रतीक प्रस्तुत किए। प्रयास किया गया था कि इन दोनों महाविहारों से जितना संभव हो उतने भिक्षुओं को परम पावन के समक्ष मंच के मध्य भाग में समायोजित किया गया।
श्रोताओं के अन्य सदस्यों का अभिन्नदन करते हुए परम पावन ने चीन, वियतनाम, कोरिया और जापान के लोगों को बौद्ध धर्म की संस्कृत परंपरा के साथी अनुयायी के रूप में संदर्भित किया। यह टिप्पणी करते हुए कि अमेरिका और यूरोप के छात्र परंपरागत रूप से बौद्ध नहीं हैं, उन्होंने कहा कि कई लोग बौद्ध धर्म के प्रति चित्त के एक विज्ञान के रूप में आकर्षित होते हैं।
उपस्थित सभी को संबोधित करते हुए, परम पावन ने कहा,
"इस पर भली प्रकार चिन्तन करें कि आप यह अभिषेक क्यों ग्रहण कर रहे हैं। यह इस जीवन में बाधाओं को दूर करने के लिए नहीं होना चाहिए। और न ही यह उचित है कि तंत्र का उपयोग शक्ति और धन के संचय लिए हो। वे जो अभिषेक ग्रहण करने की सही अर्थों में गुणवत्ता रखते हैं उनका उद्देश्य दूसरों को लाभान्वित करना है। जो अपने चित्त को प्रबुद्धता के मार्ग में रूपांतरित करते हैं, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।"
प्रतिभागियों को उनके स्वप्नों की जांच करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए, परम पावन ने टिप्पणी की कि जिस समय आप सोते हैं, उस समय की आपकी चित्त की स्थिति आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। उन्होंने उल्लेख किया कि जब वे सोने जाते हैं तो वे नियमित रूप से निम्न में से किसी एक छंद का पाठ करते हैं:
"उस गौतम को मैं नमस्कार करता हूँ
जिसने अपनी करुणा के कारण
सभी दृष्टियों के प्रहाण हेतु
सद्धर्म का उपदेश दिया।
प्रतीत्य समुत्पाद के देखते और उसके विषय में बोलते हुए,
वे परम प्रज्ञावान, परम गुरु थे
मैं उनके प्रति नतमस्तक होता हूँ जिन्होंने जाना व देशना दी
सर्व विजयी प्रतीत्य समुत्पाद।
या,
जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक जीवित हों सत्व
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए।"