बायलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत, सेरा-जे महाविहार सेरा लाची के निकट ही है जहाँ पर परम पावन दलाई लामा ठहरे हुए हैं। आज प्रातः महाविहार के भवन से एकत्रित लोगों के बीच से होते हुए, जिनकी संख्या अंततः १५,००० से अधिक थी, पैदल यात्रा बहुत लम्बी प्रतीत हुई। जैसा वे सदैव करते हैं, परम पावन मार्ग में अपने पुराने मित्रों का अभिनन्दन करने तथा वयोवृद्धों और अशक्त लोगों को ढाढस बंधाने के लिए रुके। शास्त्रार्थ प्रांगण के एक छोर पर बने मंच पर चढने से पूर्व उन्होंने एक विशेष अध्ययन केंद्र, सेरा-जे महाविहार और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इगनु) के बीच एक सहकारी परियोजना का उद्घाटन करने के लिए एक पट्टिका का अनावरण किया।
परम पावन हयग्रीव अभिषेक, जो वे प्रदान करने वाले थे, के लिए प्रारंभिक अनुष्ठान तथा विधियाँ करने हेतु शीघ्र ही आ गए थे।
"हयग्रीव, हेरुका नाम के देवताओं का एक समूह है, जिसका संबंध महायोग तंत्र से है," परम पावन ने समझाया और यद्यपि कुछ मामलों में २५ लोगों से अधिक लोगों के समूह में अभिषेक न देने की परम्परा है, पर यहाँ चूंकि शिष्यों की मुख्य योग्यता आस्था है, मुझे लगा कि सार्वजनिक रूप से अभिषेक देना अच्छा होगा। हयग्रीव अवलोकितेश्वर का बहुत रौद्र रूप है। तिब्बतियों का अवलोकितेश्वर के साथ एक दीर्घकालीन संबंध रहा है तथा पूर्व की प्रार्थनाओं और कर्मों के परिणामस्वरूप प्रतीत होता है कि मैं उनकी कामनाओं की पूर्ति हेतु जुड़ गया हूँ। लगभग ७वीं शताब्दी में सोंगचेन गम्पो द्वारा निर्मित सभी मंदिर अवलोकितेश्वर से संबंधित थे - निश्चित रूप से उनका तिब्बत के साथ एक विशेष संबंध है।
"ञिंगमा परम्परा में नौ यानों की क्रमोत्तर परम्परा समझाई गयी हैः श्रावक, प्रत्येकबुद्ध और बोधिसत्वों के यान; क्रिया, उप और योग तंत्र के तीन बाह्य तंत्र; और महायोग, अनुयोग और अतियोग के तीन आंतरिक तंत्र। श्रावक यान का संबंध चार आर्य सत्य, उनके सोलह आकार तथा बोध्यंग के ३७ तत्वों से है। प्रत्येकबुद्ध यान प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादश श्रृंखला पर केन्द्रित है और बोधिसत्व यान प्रज्ञा पारमिता तथा प्रज्ञा व उपाय के अभ्यासों से संबंधित है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि किस तरह तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन विषयपरक चित्त की प्रभास्वरता को प्रस्तुत करता है, जबकि द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन वस्तुओं के संदर्भ में प्रभास्वरता उल्लेख करता है। उन्होंने उल्लेख किया कि आंतरिक तंत्र, महा, अनु और अति योग, चित्त की प्रभास्वरता पर बल देते हैं। चूंकि अति योग मार्ग में विशुद्ध जागरूकता की प्रभास्वरता को व्यवहृत करता है, अतः इस चित्त को आंतरिक रूप से प्रकट करना आवश्यक है, जिसमें अल्प प्रयास नहीं होता।
इसके अतिरिक्त परम पावन ने 'काम' की शिक्षाओं के ञिंगमा वर्गीकरण पर बात की जिसमें बुद्ध शाक्यमुनि ने क्या शिक्षा दी, प्रकट निधि तेरमा के निकट वंशावली, शिक्षा और गहन दूरदर्शी शिक्षाएं शामिल हैं। परम पावन ने बताया कि जो हयग्रीव अभिषेक वे प्रदान करने वाले हैं, वह पञ्चम दलाई लामा के गुह्य दर्शनों के संग्रह से आता है, जिसमें २५ वर्ग निहित हैं जो 'गोपनीयता की मुद्रा लिए हुए' के रूप में जाना जाता है।
"जब मैं छोटा था तो इस संग्रह के अभिषेक मुझे तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुए," परम पावन ने बताया। उन्होंने उन्हें फुरपा चोग से प्राप्त किया था, जो १३वें दलाई लामा के शिक्षक थे। यद्यपि मुझे तगडग रिनपोछे से पूरी शिक्षा प्राप्त हुई थी, पर मुझे कुछ संदेह था कि क्या महानिष्पत्ति (ज़ोगछेन) निर्देश जो अमितायुस अभ्यास से संबंधित था और जो 'सार को निकालना' कहलाता था, को शामिल किया गया था, अतः मैंने इसे पुनः दिलगो खेंनछे रिनपोछे से प्राप्त किया। और ऐसा करने के उपरांत मैंने एकांतवास किया।
"तिब्बत में इस ग्रंथ के कई संस्करण थे, जिनमें से कई काफी अलंकृत थे, पर निर्वासन में हमारे साथ नहीं आए। फिर पता चला कि छु-शि-गंग-डुग योद्धाओं के एक सदस्य को मुस्तंग में एक बक्से में इसकी एक प्रति मिली। उन्होंने उसे लिया, धर्मशाला लेकर आया तथा क्यबजे ठिजंग रिनपोछे को दिखाया, जिन्होंने उसे बताया कि मैं इसे प्राप्त कर मैं कितना प्रसन्न हूँगा। इस ग्रंथ की प्रति के आधार पर मैं अभिषेकों को नवीनीकृत कर सका तथा एकांतवास कर सका। जब मैं तिब्बत में उन्हें ग्रहण कर रहा था तब मेरे सपनों में सकारात्मक संकेत थे और उस समय भी मैंने सकारात्मक संकेतों का अनुभव किया जब मैं एकांतवास कर रहा था।"
सेरा-जे महाविहार के उपाध्याय, जिन्होंने अभिषेक का अनुरोध किया था, ने मंडल समर्पण तथा काय, वाक और प्रबुद्ध चित्त के प्रतीक प्रस्तुत किए।
अभिषेक प्रारंभ करने से पूर्व परम पावन ने कर्नाटक में तिब्बती आवासों के प्रारंभ का स्मरण किया, जिसमें से बायलाकुप्पे पहला था। मैसूर राज्य, जैसा व पहले जाना जाता था, उसका नेतृत्व निजलिंगप्पा करते थे जो तिब्बत के एक समर्पित समर्थक थे, जिनसे उनकी भेंट १९५६ में पहली बार हुई थी। उन्होंने स्मरण किया कि जब तिब्बती पहली बार वृक्ष काट रहे थे और ज़मीन साफ़ कर रहे थे तो वे यहाँ थे। यहां कुछ और नहीं था तो वे बांस के आश्रयों में रहे।
शनैः शनैः आवास विकसित होने लगे और उसी के साथ बक्सा के आवास से भिक्षुओं को उनमें स्थानांतरित करने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार डेपुंग, गदेन और सेरा की पुर्नस्थापना हुई। इस बीच, महान समर्पण के साथ, पेनोर रिनपोछे ने पास ही नमोडोललिंग महाविहार की स्थापना की। परम पावन ने जिस तरह कुछ भिक्षु विहारों और भिक्षुणी विहारों में अध्ययन कार्यक्रमों की बहाली, और अन्यों में जिस तरह से नए सिरे से प्रारंभ किया गया, उसकी प्रशंसा की। उन्होंने सत्य द्वय,- सांवृतिक तथा परमार्थिक को समझने के महत्व पर बल दिया और संकेत किया कि कि एक बार आप दृश्य व यथार्थ के बीच के अंतर को समझ लें तो आप मूल अज्ञान और उसे निर्मूल करने की संभावना को समझ पाएँगे।
"८वीं शताब्दी में, शांतरक्षित ने सम्ये महाविहार की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें अनुवाद पर ध्यान देने वाले, अविचलित एकाग्रता, ब्रह्मचर्य अनुशासन और तंत्र के विभाग शामिल थे। एकाग्रता विभाग में चीनी भिक्षु थे और समय के साथ शांतरक्षित के शिष्य कमलशील को भारत से उनके साथ शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित गया। इन दो आचार्यों शांतरक्षित और कमलशील ने एक श्रमसाध्य, तर्क प्रधान अध्ययन को आकार दिया जो आज तक जीवित है। तिब्बती बौद्ध धर्म में मीमांसा व तर्क का महत्व एक कारक है जो इसे चीनी बौद्ध धर्म और अन्य परम्पराओं से अलग करता है और नालंदा परम्परा से जोड़ता है। यही है जिसने ३० से अधिक वर्षों से वैज्ञानिकों के साथ हमारे संवाद में सहायता दी है।"
मध्याह्न भोजन से पूर्व परम पावन ने सम्पूर्ण अभिषेक पूरा कर लिया। श्रोताओं के लिए उनका अंतिम आग्रह था कि वे बोधिचित्तोत्पाद और प्रज्ञा की समझ के लिए विशेष प्रयास समर्पित करें जिनमें से दोनों प्रभावी आंतरिक रूपांतरण के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सेरा लाची लौटने से पहले परम पावन ने सेरा-जे महाविहार में मध्याह्न का भोजन किया। कल, वे नूतन शास्त्रार्थ प्रांगण का उद्घाटन करने के लिए सेरा-मे विहार जाएंगे और जे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' की व्याख्या देंगे।