लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर - ८ जुलाई २०१७, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा शिवाछेल फोडंग से लेह के लिए गाड़ी से रवाना हुए तो शुभचिंतक पुनः एक बार अंजलिबद्ध हाथों में श्वेत स्कार्फ और चेहरों पर मुस्कान के साथ मार्ग पर पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे। यहाँ तक कि सड़क पर काम करने वाले कर्मचारियों ने भी उनके गुजरते समय उनका अभिनन्दन करने के लिए काम बंद कर दिया।
लेह के किनारे लद्दाख पब्लिक स्कूल में, स्कूल बोर्ड के संस्थापक और अध्यक्ष नोनी पी वंगछुग ने परम पावन का स्वागत किया। छोटे बच्चे, जिनके चेहरे आश्चर्य और स्नेह की तस्वीर थे, विशाल सभागार के मार्ग पर पंक्तिबद्ध थे जहाँ १६०० छात्र उनके सम्मानित अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे थे।
प्राचार्य पी.सी. बेलवाल ने श्रोताओं से परम पावन का परिचय कराया और बोर्ड के अध्यक्ष ने स्कूल का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया। उन्होंने समझाया कि यह १९९१ में बालवाड़ी के रूप में स्थापना से आगे बढ़ा है और अब १०वीं कक्षा तक एक व्यापक, आधुनिक शिक्षा प्रदान करता है। स्कूल की सफलता छात्रों द्वारा उऩकी गणित की परीक्षा में शत प्रतिशत प्राप्त अंको से परिलक्षित होती है। पाठ्यक्रम में हाल के सम्मिलित किए गए विषयों में भोट भाषा, तर्क और शास्त्रार्थ के अध्ययन के साथ-साथ पर्यावरण अध्ययन शामिल हैं। २०१२ में दिल्ली में सीबीएसई ने प्राचार्य पी.सी. बेलवाल को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक/प्राचार्य के रूप में सम्मानित किया।
विद्यार्थियों द्वारा अपने कौशल का प्रदर्शन करने के पूर्व, एक छात्रा ने खड़े होकर समझाया कि शास्त्रार्थ का उद्देश्य चित्त को तीक्ष्ण करना था, चित्त को अधिक प्रज्ञावान और अधिक स्थिर बनाना था। छात्रों के दो समूहों ने फिर अपनी शास्त्रार्थ की क्षमता का जीवंत प्रदर्शन दिया।
"मैं यहाँ प्रत्येक का अभिनन्दन करना चाहता हूँ," परम पावन ने कहा, "इस विद्यालय के कर्मचारी और छात्र तथा जो अन्य स्कूलों से आए हैं। जैसा कि हमने अभी अभी अध्यक्ष से सुना है, स्कूल का एक अच्छा कार्यक्रम और महत्वाकांक्षी योजनाएँ हैं। आपके उत्साहपूर्ण शास्त्रार्थ की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।
"विगत लगभग ३००० वर्षों से मानवता विकास के संदर्भ में शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण रहा है। मैं ६० के दशक से लद्दाख में आता रहा हूँ और उस समय से इस क्षेत्र ने बहुत विकास देखा है, पर शिक्षा में बहुत कम।
"अब २१वीं शताब्दी में, यदि हम अपने पास उपलब्ध शस्त्रों का उपयोग करते हैं तो हम विश्व को नष्ट कर सकते हैं। यह एक वास्तविक संकट है, हमने दिन प्रतिदिन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को क्षतिग्रस्त किया है। आज विश्व अधिक से अधिक समस्याओं का सामना करता जान पड़ रहा है और आज जो युवा पीढ़ी के हैं, वे उनमें से कइयों के समाधान हेतु उत्तरदायी होंगे। यही कारण है कि आप जैसे छात्र भविष्य के लिए हमारी आशा हैं।
"कई सकारात्मक विकास के बावजूद, २०वीं शताब्दी रक्तपात का युग था। यदि हम उसी तरह का व्यवहार करते रहेंगे तो हम उसी तरह के दुखी परिणामों का सामना करेंगे। अब, इस नूतन शताब्दी में, हमें चिन्तन करना है कि किस तरह विश्व के भविष्य की सुरक्षा करें। यदि हम इस समय प्रयास करें तो हम एक अधिक संवेदनशील मानवता निर्मित कर सकते हैं। यदि हम पहले की ही तरह चलते रहें तो हम अपने आप को गंभीर संकट में पाएंगे।
"संपूर्ण मानवता पर विचार किए बिना मात्र अपने देश के हितों के बारे में सोचना संकुचित दृष्टिकोण है। हम धार्मिक विश्वास के नाम पर हिंसा तथा और अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई देखते हैं। जहाँ कुछ स्थानों पर लोग सम्पन्न हैं, विश्व के अन्य कुछ भागों में लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम जीवन की जिस शैली के आदी हो गए हैं और उसकी स्वीकार्यता बनी रहेगी, हमें इसका पुनर्मूल्यांकन करना होगा। हमें एक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण विश्व के बारे में सोचने की आवश्यकता है।
"२०वीं शताब्दी की कुछ समस्याओं का जन्म इस भ्रांत सोच से हुआ कि बल के प्रयोग से समस्याओं का समाधान हो सकता है। हिंसा बहुत अधिक थी। हमें पूछना होगा कि क्या क्रोध और हिंसा वास्तव में मानव स्वभाव का अंग हैं। वे ऐसा प्रतीत हो सकते हैं, पर यदि हम ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट है कि हमारी आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है।
"चलिए मैं आपसे पूछता हूँ - क्या आप लोगों को आपकी ओर देख मुस्कुराना अच्छा लगेगा या क्रोध से भर कर नाक भौं सिकोड़ना?"
छात्रों ने एक स्वर में उत्तर दिया "मुस्कुराते हुए।"
"इस में कुछ भी धार्मिक नहीं है। यह हमारे स्वभाव का प्रतिबिंब है, प्रेम तथा करुणा के प्रति हमारी स्वाभाविक सराहना। सामाजिक प्राणियों के रूप में हमें स्नेह की आवश्यकता है। यद्यपि क्रोध हमारी भावनाओं के मानचित्र का अंग है, पर यह बहुत विनाशकारी है। दूसरी ओर प्रेम तथा स्नेह अधिक सुखी व्यक्ति, परिवार और समुदाय बनाते हैं।"
"समय आ गया है," परम पावन ने घोषित किया, "कि शिक्षा हमारे मानव स्वभाव, हमारे आंतरिक मूल्यों को परिपक्व करे। ऐसा करने के लिए हम सामान्य ज्ञान, हमारे सामान्य अनुभव और वैज्ञानिक निष्कर्षों पर निर्भर हो सकते हैं। मेरी पीढ़ी का समय बीत चुका है, पर आप में से जो २१वीं शताब्दी से संबंधित हैं, अपने जीवन के प्रारंभ में ही हैं। आपके पास एक अधिक शांतिपूर्ण विश्व में अधिक सुखी मानवता को देखने का अवसर है। मात्र लद्दाख के बारे में न सोचें, भारत और व्यापक विश्व के बारे में सोचें। अहिंसा के विषय में सोचें, जो करुणा से प्रेरित कार्य के बारे में है। ये भारत की विरासत के कोष का अंग हैं।
"मेरा मानना है कि दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में भारत अहिंसा और करुणा के आधार पर संपूर्ण मानवता के कल्याण में योगदान कर सकता है। यही कारण है कि मैं प्राचीन भारतीय ज्ञान से प्राप्त चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य की समझ के पुनरुद्धार को प्रोत्साहित कर रहा हूँ।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि यद्यपि लद्दाख मुख्य रूप से एक बौद्ध समाज है, पर यहाँ मुसलमान भाइयों व बहनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने कहा कि एक समग्र, बहुआयामी समाज में रहने से एक सामान्य सहिष्णुता और व्यापक विचारधारा को बढ़ावा मिला है।
उन्होंने उल्लेख किया कि शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए हमें मानसिक रूप से शांत होना चाहिए। उन्होंने सूचित किया कि निरंतर क्रोध और भय हमारे स्वास्थ्य को दुर्बल करते हैं। उन्होंने कहा कि हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए मैत्री महत्वपूर्ण है। मैत्री विश्वास के आधार पर विकसित होती है और विश्वास उस समय आता है जब हम दूसरों के कल्याण के लिए वास्तविक सोच दिखाते हैं। यही कारण है कि आधारभूत मानव मूल्यों में प्रशिक्षण और हमारे चित्त और भावनाओं के कार्य की समझ को हमारे सामान्य शिक्षा का अंग बनना होगा।
परम पावन ने समझाया कि हम मात्र शारीरिक प्राणी नहीं हैं; हमारे पास चित्त जिसके विषय में अधिक जानकारी के लिए शिक्षा को हमारी सहायता करनी चाहिए। उन्होंने छात्रों को बताया कि भोट भाषा को सीखने से, जैसा उन्होंने प्रारंभ किया है, वह उन्हें नालंदा के पंडितों की रचनाओं को पढ़ने में सक्षम करेगा, जो सीधे इन विषयों से सीधे रूप से संबंधित हैं। उन्होंने दोहराया कि आज वैज्ञानिक भी जो ये आचार्य कह रहे हैं, उसमें रुचि ले रहे हैं।
उन्होंने विद्यार्थियों को एक बार फिर स्मरण कराया कि उनकी पीढ़ी के पास मानवता की एकता को ध्यान में रखते हुए एक अधिक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण विश्व बनाने के लिए अवसर और उत्तरदायित्व दोनों हैं।
प्रज्ञा के साकार रूप मंजुश्री की लोकप्रिय स्तुति का संचरण करते हुए, परम पावन ने विद्यार्थियों को बताया कि जब वे उनकी उम्र में थे तो वे इसका जाप दिन में २० बार करते थे और उन्होंने अनुभव किया कि इससे वास्तव में उनके चित्त को तीक्ष्ण करने में सहायता मिली। उन्होंने उन्हें मंजुश्री मंत्र 'ओम अरपचन धी' भी सिखाया और समझाया गया कि इसके जाप से द्रुत, गहन, तार्किक, व्यापक और स्पष्ट प्रज्ञा के विकास में सहायता मिल सकती है।
जब एक छात्रा ने पूछा कि नकारात्मक भावनाओं पर किस तरह काबू पाया जा सकता है तो परम पावन ने उसे बताया कि अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक ने उन्हें बताया था कि किस तरह जिनके प्रति हमारा क्रोध है उस क्रोध और नकारात्मकता की भावना का ९०###span#< मात्र मानसिक प्रक्षेपण है। जब एक अन्य ने पुनर्जन्म के बारे में पूछा तो उन्होंने चेतना की निरंतरता के बारे में बात की और किस तरह सूक्ष्म चेतना का न आदि है और न अंत।
धैर्य और सहिष्णुता के महत्व को समझाते हुए उन्होंने कहा कि यद्यपि क्रोध सहन करने के लिए ऊर्जा लाता प्रतीत हो सकता है, पर यह अंधी ऊर्जा हो सकती है। क्रोध सरलता से हिंसा की ओर जाता है, जो बदले में हिंसा को उकसाता है, और इस तरह बिना अंत के यह निरंतर रहता है। उन्होंने बल देकर कहा कि क्रोध आंतरिक दुश्मन है क्योंकि यह हमारे चित्त की शांति को नष्ट करता है। इस संदर्भ में यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व में शांति की स्थापना आंतरिक शांति पर आधारित होनी चाहिए।
अंत में, जाति व्यवस्था के बारे में पूछे जाने पर, परम पावन ने सूचित किया कि बुद्ध के पास जातिगत भेदभाव के लिए कोई समय न था; उन्होंने इसका विरोध किया।
"जब भी मुझे अवसर मिलता है तो मैं अन्य धर्मगुरुओं से उनके अनुयायियों को स्पष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ कि जाति व्यवस्था तारीख से बाहर है। मानव होते हुए हम सभी समान हैं। जातिगत भेद-भाव अधिक लोकतांत्रिक काल, जिसमें हम रह रहे हैं, में अनुचित प्रतीत होता है।"
मंच छोड़ते हुए परम पावन ने अपने चारों ओर एकत्रित छात्रों के साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया। फिर, जब वह सभागार के बाहर निकले तो वे उन छात्रों से हाथ मिलाने व उनका अभिनन्दन करने हेतु रुके, जो उन्हें देखने के लिए खिड़कियों से झांक रहे थे। और अपनी गाड़ी में चढ़ने से पहले, वे विदा कहने के लिए मुड़े और जो उन्हें विदा देने आए थे उन्होंने प्रत्युत्तर में परम पावन का अभिनन्दन किया।