मुंडगोड, कर्नाटक, भारत, आज प्रातः अनुमानतः ८५०० लोग, जिनमें ५००० भिक्षु, २०० भिक्षुणियाँ, ४०० स्कूली बच्चे, साथ ही मुंडगोड के १००० साधारण लोग तथा अन्य बस्तियों से १५०० लोग परम पावन दलाई लामा को सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। वे डेपुंग लोसेललिंग के नूतन ढके शास्त्रार्थ प्रांगण की आरामदायी छाया में बैठे थे। जैसे ही वे मंच की ओर बढ़े परम पावन ने श्रोताओं की ओर देख अभिनन्दन में हाथ हिलाया और उसके पहले पूर्व गदेन ठिपा तथा वर्तमान शरपा छोजे को सम्मानपूर्वक अभिनन्दन किया।
"मेरे कल यहाँ पहुँचने के उपरांत, मैंने सोचा कि मैं लोगों से मिलना और उनसे बात करना चाहूँगा," परम पावन ने समझाया। "इस क्षेत्र से मेरा दीर्घ काल से परिचय रहा है। मैं यहाँ उस समय था जब हमने पहले पेड़ों और झाड़ियों को साफ़ करना प्रारंभ किया था और मैं उन लोगों से मिलना चाहता था जो अब यहाँ रहते हैं, विशेष कर स्कूली बच्चे। इस लगभग ८३ वर्षीय व्यक्ति को सिंहासन तक चढ़ने में कुछ कठिनाई होती है पर जब एक बार मैं बैठ गया तो मैं बातें तथा और बातें कर सकता हूँ। यहाँ कई परिवर्तन हुए हैं। सबसे पहले तो लगभग सभी जो यहां थे वे अब नहीं रहे। स्कूल के पहले के शिक्षक नहीं रहे और उन प्रारंभिक दिनों में, आप में से जो अब स्कूली बच्चे हैं, आप अपना विगत जीवन जी रहे थे।
"हम अकाल के कारण या फिर अपनी आजीविका को सुरक्षित रखने के लिए निर्वासन में नहीं आए, अपितु अपनी संस्कृति और परम्पराओं को सुरक्षित रखने के लिए आए जो उस समय हमारे देश में संकट थे। चूँकि हम अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने का उद्देश्य रखते थे अतः हमने अपने आवास बनाने की इच्छा जताई। हमने अलग स्कूलों की स्थापना के लिए भी सहायता मांगी ताकि हमारे बच्चे अपनी भाषा और संस्कृति को सीखने के साथ साथ आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर सकें। हमारे अनुरोधों को पूरा करने के लिए प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बहुत बड़ा निजी उत्तरदायित्व लिया था।
"जिन भिक्षुओं ने पलायन किया था उन्हें असम में मिसामारी में एकत्रित किया गया जहाँ मौसम प्रतिकूल था। प्रारंभ में उन्हें बक्सादुआर में स्थानांतरित किया गया पर हम अधिक उपयुक्त दीर्घकालिक आवासों की खोज में भारत सरकार से सहायता मांगते रहे। तिब्बतियों के लिए भूमि उपलब्ध कराने के अनुरोधों के लिए सर्वप्रथम और सबसे उत्तरदायी उत्तर निजलिंगप्पा के नेतृत्व में कर्नाटक, तत्कालीन मैसूर राज्य से प्राप्त हुआ। यहाँ आवास करते हुए हमारा उद्देश्य अपनी संस्कृति और धर्म को संरक्षित करना और तिब्बत के हमारे भाइयों और बहनों का प्रतिनिधित्व करना था। मुक्त देशों में रहने वाले सभी तिब्बतियों के समान जो कुछ हम कर सकते थे वो हमने यथासंभव किया है।
"आज बौद्ध धर्म विश्व भर में, यहाँ तक कि वैज्ञानिकों को भी बुद्ध धर्म आकर्षित करता है। मेरा मानना है कि नालंदा परम्परा के तार्किक और तर्कसंगत दृष्टिकोण ने इसे सहज बना दिया है। मेरा यह भी मानना है कि इस परम्परा में चित्त की शांति प्राप्त करने के बारे में ज्ञान शामिल है जो सम्प्रति विश्व में अत्यधिक प्रासंगिक है। जब ३० से अधिक वर्षों पूर्व मैंने एक अमेरिकी मित्र को वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श करने को लेकर रुचि जताई थी तो उन्होंने मुझे सचेत किया था कि विज्ञान धर्म का हत्यारा है। मैंने उस पर सोचा और मुझे लगा कि चूंकि हम बुद्ध की उनकी शिक्षा की जांच और परीक्षण करने की सलाह का पालन करते हैं और केवल उसे स्वीकार करते हैं जो तार्किक रूप से संगत है तो बौद्ध धर्म अपने बूते पर खड़ा रह सकता है।"
परम पावन ने आगे बोलते हुए २० शताब्दी को व्यापक युद्ध की अवधि के रूप में बताया। उन्होंने यह भी कहा कि आज भी लोग इस तरह की सोच बनाए हुए हैं कि बल प्रयोग से समस्याओं का समाधान हो सकता है। वास्तव में ऐसा नहीं होता। इसके बजाय हिंसा का अर्थ है कि कई लोग आहत होते हैं। उन्होंने विश्व में प्रेम और करुणा को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया - यह विचार है कि यदि आपमें सौहार्दता है तो आप सुखी होंगे। यह वैज्ञानिक निष्कर्षों के अनुरूप है कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। हमारे जन्म के समय जो स्नेह हमें प्राप्त होता है वह हम में से प्रत्येक में करुणा का बीज बोता है, पर जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, उसे पोषित करने की आवश्यकता होती है। यह कुछ ऐसा है जिसे करने में आधुनिक शिक्षा असमर्थ है क्योंकि यह भौतिकवादी लक्ष्यों पर अधिक केंद्रित है।
परम पावन ने एक व्यापक परिप्रेक्ष्य से समस्याओं को संबोधित करने के महत्व पर बल दिया, उन्हें अन्य दृष्टिकोणों से देखते हुए। उन्होंने कहा कि शांति के बारे में बात करना एक बात है, पर इसके मूल में लोगों में चित्त की शांति पैदा करने की आवश्यकता होती है। व्यक्तियों को शांति मिले बिना विश्व में शांति न होगी।
उन्होंने अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की प्रतिबद्ध पर भी बात की। उन्होंने इस बात की भी सराहना कि कि किस तरह भारत में विश्व के प्रमुख धर्म के साथ एक साथ रहते हुए पनपे हैं और ऐसा पीढ़ियों से हो रहा है। उन्होंने घोषित किया कि चूंकि सभी धर्म प्रेम तथा करुणा का संदेश सम्प्रेषित करते हैं, अतः उन्हें एक-दूसरे के अनुरूप रहने में सक्षम होना चाहिए।
"मैं तिब्बत के प्रति भी प्रतिबद्ध हूँ," परम पावन ने आगे कहा। "पञ्चम के समय से दलाई लामा तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक मामलों के लिए उत्तरदायी रहे हैं। यद्यपि अपने बाल्यकाल में ही मैं कुछ सीमित हाथों में अधिक शक्ति की कमियों के बारे में जानता था। एक बार जब मुझे मौका मिला तो मैंने एक सुधार समिति का सुझाव दिया पर यह असफल रहा क्योंकि चीनी अपने ढंग से सुधार चाहते थे। निर्वासन में आने के तत्काल ही मैंने लोकतंत्र का प्रारंभ और एक निर्वाचित संसद की स्थापना को प्रोत्साहित किया। २००१ में कालोन ठिपा के रूप में समदोंग रिनपोछे के चुनाव के उपरांत मैं अर्ध-सेवानिवृत्त हो गया और २०११ में डॉ लोबसंग सांगे के निर्वाचन के बाद से मैं पूर्ण रूप से सेवानिवृत्त हुआ हूँ। जैसा कि आप जानते हैं, मैंने तिब्बत के मामलों को लेकर दलाई लामा के दोहरे उत्तरदायित्व लेने की परंपरा को भी सहर्ष और विश्वास के साथ समाप्त कर दिया।
"इस वर्ष कुछ समय पहले मैं गुवाहाटी से डिब्रूगढ़ की उड़ान भर रहा था। उस समय मौसम इस तरह डांवांडोल हो रहा था कि मुझे लगा कि मैं अपना जीवन खो बैठूंगा। मैं अपने लिए इतना चिंतित नहीं था, पर मेरे मन में प्रश्न उठा 'कि उन छह लाख तिब्बतियों का क्या होगा जो मुझ पर अपनी आशाएँ लगा बैठे हैं?'
"मैं तिब्बत के प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा करने की आवश्यकता पर ध्यान देने के लिए दृढ़ हूँ, यह ध्यान में रखते हुए कि १ अरब से अधिक सम्पूर्ण एशिया भर के लोग उन नदियों के पानी पर निर्भर हैं जो तिब्बती पठार से बहती हैं और हमारी तिब्बती संस्कृति को जीवित रखने के लिए चिंता बनाए रखता हूँ।"
परम पावन ने तिब्बत में बौद्ध धर्म को लाने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका का स्मरण किया। जब थेनमी संभोट को भोट लिपि विकसित करने के लिए नियुक्त किया गया तो वे प्रेरणा के लिए भारत की ओर उन्मुख हुए। जब सम्राट ठिसोंग देचेन अपने देश में बौद्ध धर्म लाने के लिए किसी ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने पुनः भारत की ओर देखा तथा शांतरक्षित को आमंत्रित किया। अधिकांश बौद्ध साहित्य का अनुवाद तिब्बती भारतीय संस्कृत स्रोतों से आया। शास्त्रीय ग्रंथ जिनका अध्ययन आज जारी है वे नालंदा के सत्रह पंडितों की रचनाएँ हैं। जैसा जे चोंखपा ने कहा था, "यद्यपि तिब्बत हिम भूमि के रूप में उज्ज्वल हो सकता है; पर जब तक यह भारत से आए ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित न हुआ तब तक यह अंधकार में था।
परम पावन ने बताया कि वह नियमित रूप से भारतीय मित्रों से कहते हैं कि परम्परागत रूप से तिब्बती भारतीयों को गुरु के रूप में मानते हैं, जबकि वे चेले थे। पर तिब्बती विश्वसनीय चेले सिद्ध हुए हैं क्योंकि उन्होंने न केवल उन्हें जो पढ़ाया गया था उसे संरक्षित रखा है, पर आज वे कई भारतीयों की तुलना में प्राचीन भारतीय ज्ञान से अधिक परिचित हैं। उन्होंने कहा कि चीनी बौद्धों ने भी उनसे कहा है कि, जबकि उनके अपने भिक्षु प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों पर केंद्रित हैं उन्होंने तिब्बती लामाओँ को स्पष्ट व्याख्याएँ देने में अधिक सक्षम पाया है।
"हम आस्था पर निर्भर नहीं होते; हम कारण और तर्क पर निर्भर रहते हैं। यह हमें स्वतंत्रता देता है, उदाहरणार्थ पारंपरिक बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान की सटीकता पर प्रश्न उठाने के लिए। ६० के दशक में, एक चीनी दस्तावेज ने घोषणा की कि तिब्बती बौद्ध धर्म अंधविश्वास पर आश्रित है और इसका विरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि यह विज्ञान के समक्ष सूख जाएगा। ऐसा नहीं हुआ है।
"जे रिनपोछे ने घोषणा की, कि प्रारंभ में उन्होंने व्यापक रूप से अध्ययन किया, मध्य में जो कुछ उन्होंने सीखा था उसे उन्होंने निर्देशों के रूप में देखा और अंत में वे दिन-रात अभ्यास में व्यस्त थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे परम द्वय तथा छह अलंकार परम-महान भारतीय आचार्यों के कार्यों का अध्ययन करें। मैं आपमें से उन लोगों से आग्रह करता हूँ जिन्होंने अपने गेशे की शिक्षा सम्पूर्ण की है कि वे आगे बढ़ते रहें तथा अध्ययन करते रहें। महान ग्रंथों का भली भांति अध्ययन करें। आज जे रिनपोछे के परिनिर्वाण के स्मरणोत्सव होने के कारण मैं आपको उनके नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' की कारिका, चन्द्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' और आर्यदेव के 'चतुश्शतक' का पाठ करने की सलाह देता हूँ।
"इन दिनों मैं समकालीन भारतीयों के बीच चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य के प्राचीन भारतीय ज्ञान में रुचि को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। मैं अपने भारतीय मित्रों से कहता हूँ कि हमारी इस परियोजना में पढ़ाने और सहायता करने के लिए कई हजार विद्वान हैं। विद्वानों भिक्षुओं के अतिरिक्त, अब हमारे बीच भिक्षुणियों के बीच गेशे मा हैं, जिनमें से बीस ने विगत वर्ष स्नातक उपाधि प्राप्त की। और मैं इस बात को लेकर स्पष्ट हूँ कि यद्यपि हमारे अपने धार्मिक साहित्य में हम चित्त का विज्ञान पाते हैं, पर इसका कोई कारण नहीं है कि इसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता तथा धर्मनिरपेक्ष, शैक्षणिक तरीके से व्यवहृत नहीं किया जा सकता। यदि हम इसे पूरा कर लें तो यह मानवता की महान सेवा होगी।"
परम पावन ने फुरचोग ङवांग जम्पा के दृष्टिकोण के अनुसार शरण गमन और बोधिचित्तोत्पाद के लिए एक लोकप्रिय श्लोक पर केन्द्रित कर बोधिचित्तोत्पद समारोह का नेतृत्व किया। तत्पश्चात उन्होंने बुद्ध, मंजुश्री, अवलोकितेश्वर और आर्य तारा के मंत्रों का संचरण करते हुए श्रोताओं में उपस्थित छात्रों को रूप से विश्व में प्रेम और करुणा को आगे बढ़ाने के बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित किया।
अंत में, परम पावन ने सभी एकत्रित लोगों को उनके साथ एक प्रार्थना करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने ७० के दशक में तिब्बत के संरक्षकों को उद्बोधित करते लिखा था, "हे, हे, विशिष्ट पुण्य शक्ति व प्रणिधान से ..."
कल वह भिक्षुओं को प्रव्रज्या देंगे।