रीगा, लातविया, आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा पुनः स्कोन्टो सभागार के लिए गाड़ी से गए तो रीगा के मार्ग शांत और खुले थे। प्रवेश द्वार पर शुभचिंतक तथा उनकी एक झलक देखने के लिए प्रतीक्षा कर रहे अन्य लोगों का अभिवादन कर वे तीन बाल्टिक राज्यों के सांसदों के समूह - तीन लातविया से, जिसमें पूर्व न्याय मंत्री शामिल थे, एस्टोनिया से तीन और लिथुआनिया से चार के साथ एक नाश्ते की बैठक में भाग लेने गए।
वयोवृद्ध तिब्बत समर्थक और लातवियाई सांसद एंड्रिस बुइकिस ने परम पावन को स्मरण कराया कि बाल्टिक राज्य ५० वर्षों तक कब्ज़े में थे, इसलिए वे और उनके सहयोगी तिब्बत के लोग जो झेल रहे हैं, उसे समझते हैं और उनके साथ सहानुभूति का अनुभव करते हैं। उन्होंने उन्हें बताया कि लातविया में कई संसदीय मैत्री समूह हैं, पर वे मुख्य रूप से जिन दो में रुचि रखते हैं उनका संबंध तिब्बत और ताइवान से है। उन्होंने आगे कहा, "हम उन लोगों के लिए एक अवसर प्रदान करते हुए खुश हैं जो अन्यथा आपसे मिल नहीं सकते।"
"मैंने १९५९ में तिब्बत से पलायन किया जब शांतिपूर्ण समाधान खोजने के हमारे विभिन्न प्रयास असफल हुए।" परम पावन ने उत्तर दिया "मैं भारत पहुँचा जहाँ विगत ५८ वर्षों से मैं राष्ट्रहीन शरणार्थी के रूप में रहता हूँ। यद्यपि मैं वैश्विक समुदाय तक भी पहुँच पाया। जब १९७३ में मैंने अपनी पहली यूरोप की यात्रा की तो मैंने बीबीसी संवाददाता मार्क टली को बताया कि मैं यात्रा कर रहा था क्योंकि मैं विश्व का नागरिक था। १९७९ में, मैं सोवियत संघ गया जहाँ मैंने पश्चिम से आक्रमण के भय से आक्रांत लोगों की एक स्पष्ट झलक देखी। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि पश्चिम में लोग वार्सो संधि से आक्रमण के भय में जी रहे थे।
"अधिनायकवादी व्यवस्था सदैव बनी नहीं रहती और जब सोवियत संघ ढह गया तो आप यहाँ बाल्टिक राज्यों के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता को बहाल करने के अवसर का लाभ उठाया। राष्ट्रपति लैंड्सबर्जिस ने मुझे लिथुआनिया में आमंत्रित किया।
"मेरे लिए पुनः आप सांसदों से मिलना एक सम्मान है। मेरा मानना है कि कभी-कभी छोटे राष्ट्र, जो चीन के लिए कोई खतरा नहीं हैं, वे जो कुछ उन्हें बताते हैं, वे अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
"हमने १९५९, १९६२ और १९६५ में संयुक्त राष्ट्र से संपर्क किया था, पर नेहरू ने मुझे आगाह किया था कि पहले या बाद में हमें चीनी अधिकारियों के साथ चर्चा में शामिल होना होगा। १९७४ में हमने स्वतंत्रता की मांग न करने का निर्णय लिया। १९७९ में चीनी सरकार के साथ संपर्क प्रांरभ हुआ, पर २०१० के बाद से समाप्त हो गया। चीनी अधिकारियों ने तिब्बत में तिब्बती भावना को मिटाने के लिए सब तरह के उपायों का प्रयोग किया है, परन्तु मानव दृढ़ता बल द्वारा नष्ट नहीं की जा सकती।"
परम पावन से पूछा गया कि ये सांसद किस तरह तिब्बत की सहायता कर सकते हैं और उन्होंने उन्हें बताया कि जब भी उन्हें अवसर मिले तो वे तिब्बत के लिए अपनी चिंता व्यक्त कर सकते हैं। जब उन्हें बताया जाता है कि सब कुछ ठीक है, तो उन्हें उनसे कहना चाहिए कि वे स्वयं जाकर तिब्बती भाषा, शिक्षा और संस्कृति की स्थिति और तिब्बत की पारिस्थितिकी की स्थिति के बारे में देखना चाहेंगे।
परम पावन ने टिप्पणी की कि १९५९ में तिब्बती भारत से परे विश्व के बारे में बहुत कम जानते थे और विश्व तिब्बत के बारे में बहुत कम जानता था। तब से ज्ञान और रुचि में वृद्धि हुई है। चीनी विद्वानों ने भी स्थिति का पुनः आकलन किया है और सूचित किया है कि तांग से मांचू राजवंशों के ऐतिहासिक दस्तावेजों में ऐसा कोई संदर्भ नहीं है कि तिब्बत चीन का भाग हो। इसके विपरीत के दावे अधिनायकवादी व्यवस्था द्वारा इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास के प्रमाण हैं। अब, चीन के ४०० अरब बौद्ध भी अनुभव कर रहे हैं कि तिब्बती बौद्ध धर्म एक प्रामाणिक और आधिकारिक परम्परा है।
चीनी - तिब्बत के मुद्दे को बल व सत्य के बीच संघर्ष के रूप में स्पष्ट करते हुए, परम पावन ने स्वीकार किया कि शस्त्र की शक्ति अल्पकाल में प्रबल प्रतीत हो सकती है पर दीर्घ काल में सत्य की शक्ति सदैव सशक्त होगी। उन्होंने विभिन्न सांसदों को धन्यवाद दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि उनका समर्थन आवश्यक है।
मुख्य सभागार में, दूसरे दिन का प्रवचन पुनः, रूसी में 'हृदय सूत्र' के सस्वर पाठ के साथ प्रारंभ हुआ। परम पावन की सलाह का साथ-साथ अंग्रेजी, रूसी, लातवियाई, एस्तोनियाई और मंगोलियाई में अनुवाद एफएम रेडियो पर दर्शकों के लिए प्रसारित किया जा रहा है, जबकि उसी समय व्यापक विश्व में उसका सीधा वेब प्रसारण किया जा रहा है।
"इस ग्रह के सभी ७ अरब लोग सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। इसमें सभी प्राणी, जो पीड़ा व आनंद का अनुभव करते हैं, समान हैं, "परम पावन ने दर्शकों को सलाह दी। "सुख और दुख दोनों के शारीरिक और चैतसिक पक्ष हैं। शारीरिक पक्ष ऐन्द्रिक अनुभव से संबंधित है, जबकि चैतसिक पक्ष में चेतना की सोच है। प्राचीन भारतीय परम्पराएँ मानसिक चेतना और नकारात्मक भावनाओं से निपटने के अभ्यास पर केंद्रित हैं। बौद्ध धर्म की संस्कृत परम्परानुसार, उद्देश्य दो आवरणों पर काबू पाने के आधार पर प्रबुद्धता है।
बुद्धत्व का सार, चित्त शून्यता, आवरणों और उनके संस्कारों द्वारा आवृत्त होती है। ये सभी आवरण चित्त की शून्यता पर ध्यान - इसकी स्वाभाविक विशुद्धता और प्रभास्वरता पर ध्यान करते हुए दूर किए जा सकते हैं। चित्त की इस स्पष्टता तथा जागरूकता के कारण हमारे पास बुद्ध के चार कायों को प्रकट करने की क्षमता है - धर्म काय का स्वाभाविक काय और ज्ञान काय, साथ ही संभोगकाय और निर्माणकाय।
"कुशल उपायों के परिणामस्वरूप पुण्य संभार रूप काय को जन्म देता है, जबकि प्रज्ञा संभार का परिणाम धर्म काय है। नागार्जुन का कहना है कि बुद्ध देशना सत्य द्वय पर आश्रित है, सांवृतिक तथा परमार्थिक, जिसे बौद्ध दर्शन की चारों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं, भले ही उनकी व्याख्याओं में विभिन्नता हो। पुण्य संभार का प्रमुख कारक बोधिचित्त - और पर-सेवा और पर-लाभ में इसकी अभिव्यक्ति है।"
तत्पश्चात परम पावन ने बोधिचित्तोत्पाद समारोह के आयोजित के लिए वातावरण तैयार किया। उन्होंने बुद्ध के आसपास के विस्तृत दृश्य आकृतियों के बारे में समझाया जिन्होंने बौद्ध धर्म के संचरण में योगदान दिया है। उन्होंने आठ बोधिसत्व, नालंदा के १७ पंडितों, ८४ महा सिद्धों साथ ही तिब्बती बौद्ध धर्म की विभिन्न परम्पराओं के आचार्यों का उल्लेख किया।
उन्होंने टिप्पणी की कि उनके पीछे लगे चित्र में नागार्जुन, जिन्हें नाग के फन द्वारा सुरक्षित चित्रित किया गया है, के अतिरिक्त सभी नालंदा पंडितों को टोपी पहना दिखाया गया ह। परन्तु उन्होंने सुझाया कि ग्रंथों में इसका कोई उल्लेख नहीं है कि वे उन्हें पहनते थे। एक भिक्षु द्वारा रखने की १३ वस्तुओं में टोपी शामिल नहीं है। दूसरी ओर, शांतरक्षित द्वारा अपने आसन के कपड़े को शीत से बचाने के लिए ऊपरी दुशाले के रूप में काम लाने का विवरण मिलता है। समय रहते यह उस ऊपरी पोशाक के रूप में परिवर्तित हुआ जो आज तिब्बती भिक्षु पहनते हैं।
बोधिचित्त समारोह के आयोजन के उपरांत परम पावन ने 'भावना क्रम' का पाठ प्रारंभ किया और त्वरित गति से प्रज्ञा, शमथ व विपश्यना ध्यान के लिए आवश्यक पूर्व नियम, विशिष्ट अंतर्दृष्टि को साकार करने और उपाय तथा प्रज्ञा के संयोजन का पाठ किया। अपने पाठ के दौरान, वे लोगों को नौ चक्र श्वास अभ्यास, जो ध्यान की तैयारी करने के लिए चित्त को स्पष्ट व शांत करने के लिए किया जाता है, की व्य़ाख्या, प्रदर्शन और उसके अभ्यास के बारे में बताने के लिए रुके।
एक बार जब उन्होंने 'भावनाक्रम' समाप्त कर लिया तो परम पावन ने 'संक्षिप्त पथ क्रम' के शेष छंदों का पाठ किया जिनमें से कई छह पारमिताओं के अभ्यास से संबंधित थे। उन्होंने घोषणा की कि वे कल प्रातः ज़ा पटुल रिनपोछे के ज़ोगछेन ग्रंथ 'मूल तक पहुँचने वाले तीन उपाय' को पढ़ायेंगे और मध्याह्न में एक सार्वजनिक व्याख्यान देंगे।
स्कोंटो सभागार से निकलने से पूर्व उन्होंने बाल्टिक राज्यों के ४० से अधिक तिब्बत समर्थकों के साथ भेंट की। उन्होंने उनसे कहा, "तिब्बत के लिए और व्यक्तिगत रूप से मेरे प्रति आपकी प्रबल भावनाओं ने मेरे मर्म को स्पर्श किया है।" "तिब्बती संस्कृति मूल रूप से नालंदा विश्वविद्यालय की परम्पराओं से ली गई है, जिसमें चित्त व भावनाओं के प्रकार्य का ज्ञान निहित है जो आज प्रासंगिक है।
"चीनी अधिकारियों में कुछ अल्पकालीन कट्टरपंथी दृष्टिकोण रखने वाले तिब्बत में जो भी अनूठा है उसे चीन से अलग होने की दिशा में एक तरह के संकेत के रूप में लेते हैं। चूँकि हम स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे अतः उन्हें चीन की पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ की संस्कृति के अंग के रूप में तिब्बत के विशेष गुणों का सम्मान करना चाहिए। इस संदर्भ में यह तथ्य कि आप सभी समर्थक समय-समय पर हमारी भाषा, संस्कृति और प्राकृतिक वातावरण की स्थिति के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं, उपयोगी व सहायक है। धन्यवाद।"
जब परम पावन विदा ले रहे थे तो लातवियाई गायक होरेन्स स्टेल्बे आगे आए और उन्हें अपने गीत का विज्ञापन - युद्ध को रोको, छपे कुछ टी-शर्ट प्रस्तुत किए। नारे से खुश हुए परम पावन ने एक टी शर्ट को अपने सामने रख उनके साथ एक तस्वीर के लिए पोज़ किया।