थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - आज मैकलियोड गंज के चुगलगखंग में जब ८००० से अधिक लोग परम पावन दलाई लामा को सुनने के लिए एकत्रित हुए तो धर्मशाला में भारी मॉनसून की स्थिति बनी हुई थी। इस अवसर पर प्रधान शिष्यों में सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम और कोरिया से १५०० बौद्धों के विविध समूह हैं। एक बार जब वे श्रोताओं, लामाओं और अतिथियों का अभिनन्दन कर चुके तो उसके बाद परम पावन ने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया।
"आज हम धर्म प्रवचन करेंगे जो दक्षिण पूर्व एशियाइयों बौद्धों के लिए एक वार्षिक कार्यक्रम बन चुका है," परम पावन ने प्रारंभ किया "पर इसके पूर्व नए गदेन ठिपा की प्रतिस्थापना का उत्सव होगा। यह विद्वत्ता तथा अभ्यास ही है जो प्रत्याशियों को जे चोंखापा के सिंहासन प्राप्त करने की गुणवत्ता प्रदान करते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जिन्होंने या तो ग्यूमे या ग्युतो तांत्रिक महाविहार के उपाध्याय के रूप में उत्तरदायित्व निभाया है और जंगचे छोजे या शरपा छोजे पद तक पहुँचे हैं।
"जब तक १३वें दलाई लामा ने विहारीय शिक्षा का पुनर्गठन नहीं किया था, तब तक ऐसे लोग थे जो केवल विशेषाधिकार के आधार पर सिंहासन पर आसीन होते थे। उन्होंने गेशे ल्हरम्पा की उपाधि को विद्वत्ता के आधार पर स्थान देने की पुनर्स्थापना की जिसके परिणामस्वरूप गदेन ठिपा एक बार पुनः सच्चे विद्वान हुए। इनमें से प्रथम ९३वें गदेन ठिपा येशे वंगदेन थे, जो १९३३ में सिंहासन पर बैठे।
"जे रिनपोछे के देहावसान के उपरांत गदेन सिंहासन पर आसीन हुए उनके प्रमुख शिष्य ज्ञलछब दरमा रिनछेन थे, जो किसी भी तरह के दोषों से मुक्त विद्वान थे, अतः इस सम्मानित पद को पुनः मूल रूप में लाना महत्वपूर्ण था।"
१०४वें गदेन ठिपा, चंगपा खंगछेन से सेरा जे महाविहार के लोबसंग तेनज़िन रिनपोछे ने परम पावन को पारम्परिक मंडल समर्पण के अंग के रूप में जे चोंखापा और उनके दो शिष्यों की प्रतिमाएँ समर्पित कीं। फिर उन्होंने परम पावन के दाहिने ओर विशेष रूप से निर्मित सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया।
थाइ भिक्षुओं द्वारा पालि में मंगल सुत्त के पाठ के पश्चात, चीनी भाषा में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया गया।
परम पावन ने घोषणा की, कि वे नागार्जुन के 'प्रज्ञाज्ञान मूल मध्यम कारिका' पर बुद्धपालित की वृत्ति पर प्रवचन देने वाले थे, जो मोटे तौर पर मौखिक संचरण के रूप में होगी। उन्होंने कहा कि उन्हें इस ग्रंथ की और साथ ही चंद्रकीर्ति के 'प्रसन्नपद' की व्याख्या, गदेन ठिसूर रिजोंग रिनपोछे से मिली थी। उन्होंने कहा कि उन्हें नागार्जुन की 'प्रज्ञाज्ञान मूल मध्यम कारिका' की व्याख्या छेनशब सेरकोंग रिनपोछे और खुनु लामा रिनपोछे से प्राप्त हुई थी, जो संस्कृत संस्करण से कुछ बिंदुओं का स्पष्टीकरण देने में सक्षम थे। उन्होंने अनुमोदना में उल्लेख किया कि आयोजकों ने बुद्धपालित के ग्रंथ का अनुवाद उपलब्ध कराया है। परम पावन ने कहा कि जैसे जैसे वे आगे बढ़ेगें वे ग्रंथ की व्याख्या करने का पूर्ण प्रयास करेंगे पर जो सुन रहे हैं उन्हें बाद में उसका अध्ययन कर उसका पुनरावलोकन करना चाहिए।
अपनी भूमिका में परम पावन ने स्मरण किया कि बौद्ध धर्म का उद्गम भारत में हुआ था और वह पालि परम्परा और संस्कृत परंपरा के रूप में, लगभग समूचे एशिया में फैला। यह टिप्पणी करते हुए कि सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के मूल में नालंदा विश्वविद्यालय है, परम पावन ने कहा कि बुद्ध की देशनाओं में जो अनूठा है वह है परीक्षण व विश्लेषण को लेकर उनका प्रोत्साहन।
विश्व की वर्तमान स्थिति को दर्शाते हुए उन्होंने कहाः
"हम यहाँ शांतिपूर्वक एकत्रित हुए हैं, पर कहीं और अन्य एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं, परिवार आश्रयहीन हैं और बच्चे भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। हम इसके बारे में प्रतिदिन टेलीविजन पर देखते हैं। ठीक इस समय कई लोग हैं जो बाढ़ के बीच संघर्ष कर रहे हैं, प्राकृतिक आपदाओं का परिणाम, जिस संबंध में हम कुछ अधिक नहीं कर सकते, परन्तु कई अन्य समस्याएँ हैं जो मानव-निर्मित हैं। हम इन समस्याओं को स्वयं पर लाते हैं क्योंकि मोह और क्रोध जैसे व्याकुल करने वाली भावनाएँ हम पर हावी हो जाती हैं - हमारे चित्त के संबंध में हमारा अनुशासन कम है।
"यदि यह हमारी आधारभूत मानव प्रकृति क्रोध की होती तो कुछ किया न जा सकता था। परन्तु वैज्ञानिकों ने प्रमाण पाए हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है। आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों ने माँ के गर्भ से जन्म लिया है और तत्पश्चात उससे पोषित हुए हैं। हम सब में प्रेम व स्नेह का एक जैविक बीज है जिसका हम विकास कर सकते हैं, चूँकि हम अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर हैं।
"मेरा मानना है कि जब हम चित्त के नकारात्मक स्थितियों को देखेंगे तो हम उनसे बचने का प्रयास करेंगे।
"एक मानव होने के नाते, मेरी पहली प्रतिबद्धता एक और अधिक शांतिपूर्ण और अधिक करुणाशील विश्व के निर्माण को प्रोत्साहित करना है। और चूँकि हमारी सभी विभिन्न धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा का एक ही संदेश देती हैं, भले ही वे विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाएँ, मेरी दूसरी प्रतिबद्धता अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देना है।"
परम पावन ने लगभग ४० वर्षों से वैज्ञानिकों के साथ होने वाली बातचीत के बारे में बताया। प्रारंभ में उनमें से अधिकांश ने चित्त को मस्तिष्क के एक प्रकार्य के रूप में माना था। परन्तु २०वीं सदी के अंत में, उन्होंने कहा, तंत्रिका विज्ञानियों ने यह देखना प्रारंभ किया कि मस्तिष्क में परिवर्तन चित्त के कार्यों का परिणाम हो सकता है। उन्होंने प्राचीन भारतीय परम्पराओं पर ध्यानाकर्षित किया, जो एकाग्रता और अंतर्दृष्टि, शमथ और विपश्यना से संबंधित हैं, जो कि चित्त के प्रकार्य की गहन समझ जमा कर चुके हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि इसी संदर्भ में बौद्ध धर्म एक रूपांतरण लाने हेतु हमारे बुद्धि को काम में लाने पर ध्यान केंद्रित करता है, चित्त का रूपांतरण। तिब्बत में इन बौद्ध परम्पराओं को जीवित रखा गया था।
परम पावन ने १९वीं शताब्दी के लामा, ञेनगोन सुंगरब और बौद्ध धर्म के उनके आकलन को उद्धृत किया जो शिक्षाओं की सामान्य संरचना तथा अन्य विशेष निर्देशों से संबंधित है। उन्होंने सूत्र संरचना की व्याख्या करते हुए उसे एक बड़े स्तर पर सामान्य संरचना युक्त बताया जबकि तंत्र में विशेष निर्देश शामिल थे। उन्होंने सुझाया कि अतीत में, तिब्बत में, लोग शिक्षाओं की सामान्य संरचना की तुलना में विशेष निर्देशों में अधिक रुचि रखते प्रतीत होते थे। निर्वासन में आने के बाद से परम पावन ने पूर्व के आनुष्ठानिक भिक्षु विहारों और भिक्षुणी विहारों को अध्ययन के कार्यक्रमों अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। इसका एक सीधा परिणाम यह हुआ कि अब भिक्षुणियाँ हैं जिन्होंने गेशे-मा उपाधि प्राप्त की है।
अंतराल के दौरान, जब श्रोता लघु शंका के लिए गए तो परम पावन ने देव योग, शाकाहारिता तथा प्रतीत्य समुत्पाद के परम सत्य के साथ संबंधों के बारे में प्रश्नों के उत्तर दिए।
अपना प्रवचन जारी रखते हुए परम पावन ने कहा कि ऐसी मान्यता है कि प्रबुद्धता प्राप्त करने के उपरांत बुद्ध ने विचार किया -
गहन व शांतिमय, प्रपञ्च मुक्त, असंस्कृत प्रभास्वरता मैंने अमृत मय धर्म प्राप्त किया है फिर भी यदि मैं इसकी देशना दूँ तो कोई समझ न पाएगा,
अतः मैं अरण्य में मौन रहूँगा।
परन्तु उन्होंने अंततः चार आर्य़ सत्य की देशना देते हुए प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन किया। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं से था जिसमें निरोध के वास्तविक अर्थ का स्पष्टीकरण शामिल था। परम पावन ने बल देते हुए कहा कि बुद्ध की शिक्षा यथार्थ से संबंध रखती है। परम्पराओं के बीच भारत में जो विचारधारा उभरी, चित्त मात्र परम्परा ने बल देकर कहा कि कुछ भी बाह्य रूप से अस्तित्व नहीं रखती और मात्र चित्त यथार्थ है। मध्यमक परम्परा, जिससे बुद्धपालित का संबंध था, ने बल देकर कहा कि यद्यपि किसी की भी स्वभाव सत्ता नहीं है, पर वस्तुएँ ज्ञापित होती हुईं अस्तित्व रखती हैं।
ग्रंथ का पाठ प्रारंभ करते हुए, परम पावन ने कहा कि प्रामाणिकता दिखाने के लिए शीर्षक संस्कृत और भोट भाषा में दिया गया है। कुमार मंजुश्री की वन्दना संकेतित करती है कि ग्रंथ उच्च ज्ञान या अभिधर्म के वर्ग का है।
दिन का सत्र समाप्त करते हुए परम पावन ने कहा कि यह प्रवचन देते हुए वे किस तरह स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानते हैं, विशेषकर जब गदेन ठिसूर रिजोंग रिनपोछे, जिनसे उन्होंने इसे सुना था, उन श्रोताओं के मध्य उपस्थित थे। प्रवचन कल जारी रहेगा।