नई दिल्ली, भारत - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा की दिल्ली वापसी यात्रा घटना रहित थी। मध्याह्न भोजनोपरांत के बाद उन्हें इंडियन एक्सप्रेस अड्डा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया, जिसमें अनंत गोयनका, कार्यकारी निदेशक और वंदिता मिश्रा, इंडियन एक्सप्रेस समूह के राष्ट्रीय सुझावों के संपादक के साथ अनौपचारिक बातचीत शामिल थी। कमरे में सीटों की तुलना में दर्शकों की संख्या कहीं अधिक थी। अंत में कई फर्श पर बैठे पाए गए। अनंत गोयनका ने परम पावन का परिचय देते हुए कहा कि वे तिब्बत में स्वतंत्रता के लिए और करुणा के समर्थक के रूप में विश्व में व्यापक रूप से जाने जाते हैं - विनम्र किन्तु हृदय को छूने वाली मुस्कान के साथ।
"हम सभी सामाजिक प्राणी हैं," परम पावन ने उत्तर दिया, "और दूसरों के प्रति करुणा, देखभाल और चिंता हमें एक करती है। वैज्ञानिक निष्कर्ष जो पुष्टि करते हैं कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, आशा का एक प्रमुख स्रोत है। पशु हिंसक हो सकते हैं पर मात्र इंसान युद्ध करते हैं। पर संभव है कि यह परिवर्तित हो जाए। २०वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब एक देश ने दूसरे पर युद्ध की घोषणा की तो नागरिक उस प्रयास में बिना कोई प्रश्न किए शामिल हो जाते थे। शताब्दी के अंत तक स्थिति ऐसी न रह गई। अमरीका में कइयों ने वियतनाम युद्ध का विरोध किया और विश्व भर में लाखों लोगों ने इराक युद्ध का विरोध किया। मैं यूरोपीय संघ की भावना का बहुत प्रशंसक हूँ, जो उन देशों के बीच स्थानीय हितों के आगे सब के कल्याण की भावना को आगे रखता है, जो ऐतिहासिक रूप से एक- दूसरे से युद्ध करते रहे हैं। यह मानव परिपक्वता का संकेत है।" यह पूछे जाने पर कि क्या हम हिंसा रहित विश्व को देखने के लिए तत्पर हैं, परम पावन ने उत्तर दिया कि यह निर्भर करता है कि हम क्या प्रयास करते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि शंका को समाप्त करने का एकमात्र उपाय मैत्री है।
"यहाँ हम शांति से साथ साथ बैठे हैं, पर इसी समय विश्व में कहीं और लोग एक दूसरे की हत्या कर रहे हैं, कुछ धर्म के नाम पर, जबकि बच्चे भूख से मर रहे हैं। हम किस तरह उदासीन रह सकते हैं? इसी प्रकार मैं मानवता की एकता के बारे में अधिक जागरूकता पैदा करने के लिए प्रतिबद्ध हूँ - यह तथ्य कि हम मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से समान हैं। "अतीत में, नैतिकता धर्म के क्षेत्र से जुड़ा था पर अब ७ अरब से अधिक मनुष्यों में से १ अरब से अधिक लोगों का कहना है कि उनकी किसी में आस्था नहीं है। आस्था का दावा करने वालों में से कइयों में दृढ़ विश्वास का अभाव है। "जब तक हम मानव हैं हमें करुणा की आवश्यकता है। करुणा आंतरिक शांति लाता है और अन्य जो कुछ भी चल रहा हो, चित्त की शांति हमें सम्पूर्ण चित्र को और अधिक स्पष्ट रूप से देखने संभव करती है। अतः अपनी शिक्षा प्रणाली में हमें सौहार्दता और किस तरह आंतरिक शांति पाई जाए से संबंधित पाठों को शामिल करने की आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि २०वीं सदी की पीढ़ी, जिससे मैं संबंध रखता हूँ, ने कई समस्याएँ उत्पन्न की हैं। परन्तु मुझे विश्वास है कि आज के युवा - २१वीं सदी की पीढ़ी के लोग, एक बेहतर और शांतिपूर्ण विश्व प्राप्त कर सकते हैं यदि वे इसका एक दृष्टि के रूप में विकास करें और अभी से इस दिशा में काम करना प्रारंभ करें।"
परम पावन ने अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता का उल्लेख किया और भारत के उदाहरण से प्रेरित होने के बारे में बात की, जिसने सदियों से दिखाया है कि धर्म सहिष्णुता से साथ साथ रहा जा सकता है। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि ४० वर्ष पूर्व उन्होंने भिक्षु विहारों और भिक्षुणी विहारों से अध्ययन कार्यक्रमों को प्रारंभ करने का आग्रह किया था। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि २० भिक्षुणियों के एक समूह को २० से अधिक श्रमसाध्य अध्ययन के बाद हाल ही में डॉक्टरेट के बराबर, गेशे-मा उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्होंने इसकी तुलना लोकतंत्र के संबंध में उनके द्वारा प्रारंभ किए सुधारों से की। चीनी अड़चनों के कारण वे तिब्बत में सुधार लाने में विफल रहे। परन्तु ६० के दशक के बाद से निर्वासन में लोकतांत्रिक अभ्यासों का प्रारंभ हुआ जिसकी परिणिति में एक निर्वाचित नेतृत्व में हुई है जिसने २०११ में परम पावन को राजनीतिक उत्तरदायित्वों से सेवा निवृत्त करने में सक्षम किया। तिब्बत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के संबंध में, परम पावन ने उसकी बौद्ध परम्पराओं और भोट भाषा को बनाए रखने की चिंता और एशिया की प्रमुख नदियों के स्रोत तिब्बती के प्राकृतिक वातावरण की रक्षा के लिए अपनी आवाज़ उठाने के निर्णय को बनाए रखने की दृढ़ता व्यक्त की।
प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि १९६७ में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि पंद्रहवें दलाई लामा होंगे अथवा नहीं, यह तिब्बती लोगों का निर्णय है। इस विषय पर कि क्या वे अपने जीवनकाल में एक स्वतंत्र तिब्बत को देखने की आशा करते हैं, उन्होंने कहा कि एक ही व्यवस्था के तहत, कई वर्षों से एक ही पार्टी के नियंत्रण में चीन में कई परिवर्तन हुए हैं। उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रारंभ को रेखांकित किया, जब सम्राट ठिसोंग देचेन ने चीन के साथ अपने संबंधों के बावजूद, भारतीय आचार्य शांतरक्षित को आने और पढ़ाने के लिए आमंत्रित करने का निर्णय लिया। "शांतरक्षित एक महान दार्शनिक और तर्कशास्त्री थे और उन्होंने हमें उन जैसे बनने के लिए सिखाया। उन्होंने नागार्जुन, आर्यदेव और चंद्रकीर्ति जैसे भारतीय आचार्यों के कार्यों का अध्ययन प्रारंभ किया। परिणामस्वरूप भारत वास्तव में तिब्बत का गुरु था। १४वीं शताब्दी के तिब्बती आचार्य जे चोंखापा ने कहा कि यद्यपि तिब्बत हिम भूमि थी, पर भारत से प्रकाश के आने तक तिब्बत अंधकार में था।" परम पावन ने अपनी उद्गम भूमि में प्राचीन भारतीय ज्ञान के पुनरुद्धार के अपने आगे की प्रतिबद्धता की बात की। उन्होंने हाल ही में नालंदा शिक्षण केंद्र में शिक्षक प्रदान करने के अपने वादे की बात की और घोषित किया कि प्राचीन भारतीय परम्परा से संबंधित चित्त तथा भावनाओं के कार्य का ज्ञान आज के विश्व में प्रासंगिक है। उन्होंने कहा कि हमारे पास भौतिक विकास है, पर हमारे मस्तिष्क अशांत हैं - हम उन्हें किस तरह शांत रखें यह सीख सकते हैं। उन्होंने सुझाया कि भारत एकमात्र देश है, जो सरलता से अपने प्राचीन ज्ञान को पारस्परिक लाभ के लिए आधुनिक शिक्षा के साथ संयोजित कर सकता है। उन्होंने इस सुझाव को परे कर दिया कि यह कलियुग है, एक भ्रष्ट समय, और अपनी भावना को पुष्ट करते हुए कि कहा कि यदि हमारे पास दृष्टि है और हम प्रयास करते हैं तो हम एक बेहतर विश्व बना सकते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या नकारात्मक ऊर्जा जैसी कोई वस्तु है, उन्होंने स्पष्टतः उत्तर दिया, "हाँ, क्रोध, जो अंधा और हानिकारक है।"
लोकप्रिय मंत्र ऊँ मणि पद्मे हुँ का वादन हुआ और परम पावन को इसकी व्याख्या करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने पहले शब्दांश ऊँ के साथ प्रारंभ किया, जिसके संबंध में उन्होंने कहा कि वह तीन अक्षरों आ, ओ और म से बना है जो काय, वाक तथा चित्त को दर्शाता है - 'मैं' अथवा आत्म को नामित करने का आधार। मणि का अर्थ उन्होंने कहा कि रत्न है और यह करुणा या सौहार्दता को संदर्भित करता है। पद्मे का अर्थ कमल है और वह उस प्रज्ञा को इंगित करता है जो वास्तविकता की समझ रखती है, यह विचार कि जैसी दृश्य है उस रूप में कोई वस्तु अस्तित्व नहीं रखती।
परम पावन ने दोहराया कि दृश्य की यह हमारी गलत भ्रांति है जो क्रोध और मोह जैसी विनाशकारी भावनाओं को जन्म देती है। उन्होंने अमरीकी मनोचिकित्सक हारून बेक द्वारा उनसे कही बात का स्मरण करते हुए कहा कि किसी के बारे में जिस क्रोध की भावना का हम अनुभव करते हैं उसका ९०% हमारा मानसिक प्रक्षेपण है। अंतिम शब्दांश 'हुँ' का मतलब अविभाज्य है और इंगित करता है कि मणि द्वारा इंगित की गई सौहार्दता और पद्म द्वारा इंगित प्रज्ञा अविभाज्य हैं। उन्होंने अपनी सलाह दोहराई जो वे नियमित रूप से उन्हें देते हैं जो बुद्ध का पालन करते हैं कि वे २१वीं सदी के बौद्ध बनें, अर्थात वे बौद्ध जिन्हें बुद्ध ने जो देशित किया उसकी सम्पूर्ण समझ है।