नई दिल्ली, भारत, ९ अप्रैल २०१६ - परम पावन दलाई लामा की सार्वजनिक गतिविधियाँ आज सीएनएन-आईबीएन की विदेश मामलों के संपादक और वरिष्ठ एंकर, आँचल वोहरा के साथ एक साक्षात्कार के साथ प्रारंभ हुईं। उनके प्रश्न सीधे थे, उन्होंने यह पूछते हुए प्रारंभ किया कि यदि उनकी भेंट पेरिस और ब्रसेल्स के हमलों के पीड़ितों और उसे अंजाम देने वालों से हो तो वे क्या कहेंगे। परम पावन ने उत्तर दिया कि वे यह बताते हुए प्रारंभ करेंगे कि दोनों पक्ष मानव हैं और दोनों एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। उन्होंने कहा कि इस तरह की घटनाएँ स्वतंत्र रूप से उत्पन्न नहीं होती। वे उन्हें २०वीं सदी की गलतियों के लक्षण के रूप में देखते हैं।
"२०वीं सदी के पूर्वार्ध में सैन्य बल राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक की तरह था। राजसी परिवारों के सदस्यों की तरह नेता सेना के सदस्य की तरह होते थे। नागरिक संगठित होने के आह्वान को सुनते थे और बड़े गर्व से शामिल होते थे। २०वीं सदी के उत्तरार्ध में यह परिवर्तित हो गया। वियतनाम युद्ध के लिए प्रतिरोध हुआ। जब इराक संकट की बात आई तो विश्व भर में लाखों लोगों ने युद्ध को लेकर विरोध व्यक्त किया। कई लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि हिंसा और सैन्य कार्रवाई समस्याओं का समाधान नहीं हैं। यह हिंसा की प्रकृति है कि इसके परिणाम अप्रत्याशित होते हैं और प्रायः हिंसा प्रत्युत्तर हिंसा की ओर ले जाती है।"
वोहरा ने पुनः पूछा कि २०वीं सदी की क्या गलती थी और परम पावन ने स्पष्ट किया कि यह विचार कि हिंसा एक समाधान प्रदान करती है, कि विजय में, इष्टतम परिणाम, अपने शत्रु का विनाश है। उन्होंने कहा कि अब हम इतने अन्योन्याश्रित हैं कि अपने शत्रु का विनाश स्वयं को नष्ट करना है। वास्तविकता परिवर्तित हो गई है पर हमारी सोच अभी भी पुराने ढंग के अनुसार है।
जब गोमांस के संबंध में असहिष्णुता की बढ़ती भावना के बारे में पूछा गया तो परम पावन ने कहा है कि हर किसी को जिस मार्ग में उनकी आस्था है उसका अनुपालन करने की स्वतंत्रता है, पर यह आशा नहीं रखी जा सकती कि दूसरे भी उसका पालन करेंगे। उन्होंने कहा कि यद्यपि वह एक बौद्ध हैं पर वे बौद्ध धर्म का प्रचार करने का कोई प्रयास नहीं करते। उन्होंने उल्लेख किया कि चूँकि दोनों ही शील, शमथ और विपश्यना का प्रयोग करते हैं, हिंदू और बौद्ध धर्म जुड़वां भाइयों की तरह हैं। उनमें जो अंतर है वे उनके आत्मा और अनात्मन से संबंधित विचारों से है, पर, उन्होंने कहा, जिसमें आपका विश्वास है वह एक निजी मामला है। जिस तरह से सदियों से भारत में अंतर-धार्मिक सद्भाव पोषित हुआ है उसके प्रति उन्होंने महान प्रशंसा व्यक्त की और सुझाया कि यह पड़ोसी राष्ट्रों के हित में होगा यदि वे इसका एक प्रारूप की तरह पालन करें।
चीनी अधिकारियों के साथ तिब्बती संबंधों के बारे में एक लंबी आपसी विचार विनिमय में परम पावन ने बल देकर कहा कि तिब्बतियों की एक समृद्ध और बहुमूल्य संस्कृति है, जो कि सबसे सटीक रूप से भोट भाषा द्वारा व्यक्त की जाती है और जिसे जीवित रखने का प्रयास तिब्बती कर रहे हैं। दुर्भाग्यवश चीनी कम्युनिस्टों के बीच कट्टरपंथी ऐसे प्रयासों को अलगाववाद की अभिव्यक्ति के रूप में देखने में लगे हुए हैं और उन्हें समाप्त करना चाहते हैं। दूसरी ओर उन्होंने टिप्पणी की, कि जब सैकड़ों, करोडों साधारण चीनी लोग बौद्ध धर्म में पुनः रुचि ले रहे हैं तो वे इस बात की सराहना करते हैं कि तिब्बती बौद्ध धर्म नालंदा परम्परा की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति है।
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पूसा रोड में स्प्रिंगडेल्स स्कूल में आमंत्रित, परम पावन का प्राचार्य अमीता वात्तल ने द्वार पर स्वागत किया। स्प्रिंगडेल्स एक ऐसी संस्था है जहाँ शिक्षा एक समग्र सीखने के अनुभव के रूप में देखी जाती है जिसका उद्देश्य बच्चों को आत्मनिर्भर और अच्छे मानव बनाने हेतु मस्तिष्क और हृदय के गुणों का विकास है। १९५५ में संस्थापित, यह इस समय अपना हीरक जयंती मना रहा है। अपने स्वागत भाषण में सुश्री वात्तल ने परम पावन के संबंध में कहा, "जब मैं आपको यहाँ देखती हूँ तो हर्ष के कारण मेरे नेत्र अश्रुपूरित हो उठते हैं। मैं इतनी अधिक खुश हूँ कि मैं अपने संस्थापिका, डॉ रजनी कुमार का भी जो आज हमारे साथ हैं, स्वागत कर पा रही हूँ।"
छात्रों के एक समूह ने बौद्ध, ईसाई और हिंदू परम्पराओं को संबोधित करता एक आध्यात्मिक मंगलाचरण गाया और परम पावन पारम्परिक प्रदीप के चारों ओर एक पुष्पांजलि में सम्मिलित हुए।
"आदरणीय बड़ी बहन, छोटे भाइयों और बहनों, मैं सदा अन्य लोगों से मिलने की इच्छा रखता हूँ विशेष रूप से युवा लोगों से। हम अतीत को बदल नहीं सकते परन्तु हम भविष्य को नूतन स्वरूप प्रदान कर सकते हैं। युवा लोगों के पास समय और अवसर है, जो कि हम वयस्कों के पास नहीं है। यदि हम मिस्र, चीन और भारत की प्राचीन सभ्यताओं की तुलना करें, तो मुझे लगता है कि जो सिंधु घाटी सभ्यता के साथ प्रारंभ हुआ उसने शिक्षकों, विचारकों और दार्शनिकों की एक असाधारण संख्या को जन्म दिया। आज भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला लोकतंत्र है और साधारणतया बहुत स्थिर है। कुछ भ्रष्टाचार है, जो इस तरह के एक धार्मिक विचारधारा वाले देश के लिए आश्चर्य की बात है, परन्तु अहिंसा और अंतर्धार्मिक सद्भाव की प्राचीन परम्पराएँ अनुकरणीय हैं।
"नालंदा विद्वान भवविवेक ने भारत की दार्शनिक परम्पराओं की व्यापक विविधता के विषय में लिखा, जो मुझे एक उपवन का स्मरण कराता है जिसमें विभिन्न रंगों और गंधों के पुष्प हैं जो उस उपवन की तुलना में कहीं अधिक सौन्दर्ययुक्त है जिसमें मात्र एक पुष्प खिलता है। यह गर्व का विषय है। जिस तरह बाहरी परम्पराएँ जैसे पारसी, ईसाई, यहूदी और इस्लाम इस धरती की परम्पराओं जैसे हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म के साथ सद्भावपूर्ण रूप से विकसित हुई है यह महत्वपूर्ण और सीखने योग्य है।
"५७ वर्षों से अधिक भारत में रहते हुए विभिन्न लोगों के साथ चर्चा के परिणामस्वरूप मैं समझ पाया हूँ कि हमारी प्रमुख धार्मिक परंपराओं के तीन पक्ष हैं: आध्यात्मिक पक्ष, जो प्रेम और करुणा के अभ्यास पर केंद्रित है और जिसमें सहनशीलता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन का योग है। फिर दार्शनिक पक्ष है, कुछ दृष्टिकोण जो एक सृजनकर्ता के अस्तित्व पर बल देते हैं और कुछ जो कार्य-कारण करणीय के कार्य तथा हम जो निर्मित करते हैं उस पर बल देते हैं।"
परम पावन ने समझाया कि जिस प्रकार बुद्ध ने विभिन्न लोगों के लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न शिक्षाएँ दीं, ये विविध विचार के अलग-अलग स्वभाव के लोगों को आकर्षित करते हैं, पर सभी प्रेम के आम अभ्यास का समर्थन करते हैं। सांस्कृतिक बातें धार्मिक परम्पराओं का तीसरा पक्ष हैं। उन्होंने एक उदाहरण दिया जिसके विषय में उन्हें बताया गया था। जैन धर्म के संस्थापक महावीर के काल में पशु बलि इतनी व्यापक हो गई थी कि यह कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही थी। परिणामस्वरूप हम उनके द्वारा अहिंसा और कट्टर शाकाहारी आचरण का प्रतिपादन पाते हैं।
इस बात का संदर्भ देते हुए कि किस तरह धार्मिक संस्थाएँ गए गुज़रे सामाजिक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित कर सकती हैं जैसे कि सामंतवाद, परम पावन ने उल्लेख किया कि उन्होंने दलाई लामाओं की भूमिका में परिवर्तन किया है। उन्होंने उनके द्वारा आध्यात्मिक और राजनीतिक मामलों दोनों के उत्तरदायित्व को लेने को समाप्त किया है, एक प्रथा जो ५वें दलाई लामा के साथ प्रारंभ हुई थी, चूँकि आज लोकतंत्र के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता अब नहीं है। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि चूँकि भारतीय संविधान भारतीय नागरिकों को समान घोषित करता है, जाति के आधार पर भेदभाव भी स्पष्ट रूप से आज की तारीख से बाहर है। उन्होंने आध्यात्मिक नेताओं से आग्रह किया कि वे अपने अनुयायियों को यह समझाएँ।
अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के अपने समर्पण के अतिरिक्त परम पावन ने कहा कि वे मानव सुख को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा कि हमारे कल्याण के लिए न केवल भौतिक समर्थन की आवश्यकता है, पर चित्त की शांति की भी आवश्यकता है। वह हमारे चित्त में पाया जाता है और हमारी इस समझ पर आधारित है कि हमारे चित्त और भावनाएँ किस प्रकार कार्य करते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, कि सभी प्राचीन भारतीय परम्पराएँ जिनका संबंध एकाग्रता और अंतर्दृष्टि से है, चित्त की एक गहन समझ रखती हैं। आज कई वैज्ञानिक इस में रुचि ले रहे हैं, अपने अगले जीवन को प्रभावित करने के दृष्टिकोण से नहीं, अपितु यहाँ और इसी जीवन में सुधार लाने के लिए।
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परिणामस्वरूप परम पावन ने आज के युवा लोगों से आग्रह किया कि वे इस पर अधिक ध्यान दें कि प्राचीन भारतीय विरासत क्या शिक्षा दे सकती है और उसे आधुनिक ज्ञान के साथ समायोजित करें। उन्होंने जागरूकता और ज्ञान का महत्व पर बल दिया जिसे वह मात्र प्रार्थना की तुलना में अधिक प्रभावी मानते हैं। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि ध्यान के एक अंग में तीक्ष्ण विश्लेषण भी सम्मिलित है, यह केवल आँखें मूँद विचारहीनता में प्रवेश करना नहीं है, जो कबूतर और खरगोश भी करने में सक्षम प्रतीत होते हैं। उन्होंने निष्कर्षित कियाः
"एक अधिक सुखी भविष्य का निर्माण करने के लिए, हमें अपने विनाशकारी भावनाओं के साथ निपटना सीखने की आवश्यकता है जिसके लिए विवेक और समझ अपेक्षित है। चित्त की शांति प्रशिक्षण के माध्यम से आती है। वास्तव में हम सभी दूसरों पर निर्भर हैं। क्योंकि समाज हमारे अपने सुख का आधार है, अतः दूसरों की देखभाल की बात हमारे लिए अर्थ रखती है। अतः यह संभव है कि प्रशिक्षण के फलस्वरूप अगली पीढ़ी अधिक करुणाशील हो।"
परम पावन के व्याख्यान के समापन पर जब तालियों की गड़गड़ाहट थमी तो श्रोताओं की ओर से परम पावन के समक्ष प्रश्न रखे गए। इस प्रश्न पर कि 'सत्य क्या है?' उन्होंने कहा कि अगर आप ईमानदार हैं, तो आप सत्य बताते हैं। उन्होंने यह भी टिप्पणी की, कि यह विचार कि केवल एक सत्य और एक धर्म है, वह एक व्यक्ति के निजी अभ्यास के संदर्भ में ठीक है, पर उन समुदायों के संदर्भ में जिनमें हम रहते हैं, हमें कई धार्मिक परम्पराओं और कई सत्य के अस्तित्व को स्वीकारना होगा।
यह पूछे जाने पर कि यदि वे कर सकें, तो वह इतिहास में से किससे मिलना चाहेंगे, उन्होंने उत्तर दिया कि नागार्जुन के एक छात्र के रूप में, वह उनसे बात करने के अवसर का स्वागत करेंगे और क्वांटम भौतिकी के कुछ बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे। इस प्रश्न पर कि वे आईएसआईएस के सदस्य से क्या कहेंगे, उन्होंने कहा कि उन्होंने पहले ही सुझाया है कि भारतीय मुसलमानों को अपने मुस्लिम भाइयों और बहनों की ओर हाथ बढ़ाना होगा। उन्होंने कहा कि एक बौद्ध और एक बाहरी व्यक्ति के रूप उनका अधिक प्रभाव नहीं है। पर उन्होंने सहमति जताई कि एक प्रयास किया जाना चाहिए।
इस पर कि क्या वे पुनः अवतरित होंगे, उन्होंने प्रथम दलाई लामा के जीवन के अंत से एक प्रकरण उद्धृत किया, जब उनके शिष्यों ने उनसे कहा कि वह निश्चित रूप से एक विशुद्ध भूमि में जन्म लेंगे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उनकी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर वे वहाँ जन्म लेना चाहते थे जहाँ पीड़ा थी ताकि वह दूसरों की सेवा करने में सक्षम हो सकें। परम पावन ने कहा कि जब उन्होंने यह पढ़ा तो भावाकुल होकर गए उनकी आँखों में आँसू आ गए।
परम पावन की अंतिम सलाह थीः
"हममें से प्रत्येक को विश्व को परिवर्तित करने के उत्तरदायित्व को संभालना होगा। भारत में विशेष रूप से महान क्षमता है, कृपया इसे काम में लाएँ।"
सुश्री ज्योति बोस के आभार शब्दों के पश्चात स्प्रिंगडेल्स की ९३ वर्षीय संस्थापिका डॉ रजनी कुमार, जिनके साथ परम पावन का स्पष्ट रूप से एक स्नेहमय तालमेल था, ने उन्हें आने के लिए और जिसे वे तीन एच कहती हैं, ह्युमिलिटि (विनम्रता) सर्विस टु ह्युमेनिटी (मानवता की सेवा) और ह्यूमर (हास्य) का साकार रूप होने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया।
स्प्रिंगडेल्स स्कूल में मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेकनोलिजी के हरे परिसर में गए। सभागार में ११०० कर्मचारियों और छात्रों के समक्ष उनका स्वागत किया गया और उन्हें उपहार दिए गए जिसमें एक पारम्परिक दुशाला और एक व्यावहारिक टोपी शामिल थी। छात्र संघ के अध्यक्ष डॉ दीपक डोगरा ने परम पावन का एक विस्तृत परिचय पढ़ा जिसके बाद आईआईटी निदेशक प्रो के त्यागराजन ने परम पावन के आगमन पर प्रसन्नता व्यक्त की और श्रोताओं को संबोधित करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। परम पावन ने संबोधन करते हुए कहाः
"आदरणीय बड़े और छोटे भाइयों और बहनों, यह अवसर मिलना कि मैं आपके साथ अपने कुछ विचार साझा कर सकूँ, वास्तव में मेरे लिए एक महान सम्मान की बात है। जिन कई समस्याओं का सामना हम कर रहे हैं, उनमें से कई हमने स्वयं निर्मित की हैं। यद्यपि बहुत महान विकास हुए, पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि २०वीं सदी के दौरान २०० करोंडों से अधिक लोग हिंसा में मारे गए। आज हमें सोचना है कि 'बस बहुत हुआ'। यदि इस तरह की हिंसा के परिणामस्वरूप विश्व एक बेहतर स्थान बन गया होता तो कुछ लोग कह सकते हैं कि यह न्यायोचित था, परन्तु ऐसा नहीं है।
"वास्तव में, यद्यपि जापान, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में कइयों का कहना है कि वे हिंसा से तंग आ चुके हैं, पर जो उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और अन्य जगह हो रहा है वह उन गलतियों के लक्षण हैं जो हम २०वीं सदी में कर चुके हैं। सैंकड़ों लोग प्रतिदिन हिंसा और भुखमरी से मर रहे हैं। इनके प्रति उदासीन रहना अनैतिक होगा। मनुष्य के रूप में हम सामाजिक प्राणी हैं। हमारा कल्याण दूसरों पर निर्भर है। हम एक वैश्विक अर्थव्यवस्था में कार्य करते हैं, जबकि जलवायु परिवर्तन हम सभी को राष्ट्रीय सीमाओं का कोई ध्यान न रखते हुए प्रभावित कर रहा है।
"हमारी अन्योन्यश्रितता के संदर्भ में एक अधिकतर सुखी विश्व को बनाने के लिए हमें एक रास्ता खोजना होगा। हमें नैतिक सिद्धांतों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो न केवल हमारी सभी धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करती हो, पर उनके विचारों का भी जिनकी ऐसी कोई आस्था नहीं है।"
उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों ने यह दिखाना प्रारंभ कर दिया है कि यदि हमारा और अधिक करुणाशील दृष्टिकोण हो, तो हमें चित्त की शांति मिल सकती है जबकि एक निरंतर उत्तेजित चित्त हमारे स्वास्थ्य के लिए बुरा है।
"मैं कभी कभी युवा महिलाओं को छेड़ता हूँ," परम पावन ने कहा, "क्योंकि वे सौंदर्य प्रसाधनों और अपने चेहरों को और सुन्दर दिखाने पर समय और पैसा खर्च करती हैं, जबकि अधिक महत्वपूर्ण कारक आंतरिक सौंदर्य है। और उससे मेरा मतलब है दूसरों के हित के प्रति सच्ची चिंता। वह एक अच्छा संबंध बनाने के लिए कहीं अधिक सार्थक आधार है।"
उन्होंने कहा कि जहाँ हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली भौतिक लक्ष्यों की ओर अधिक उन्मुख है, यह और अधिक संतुलित होगी यदि यह एक धर्मनिरपेक्ष बिंदु से आंतरिक मूल्यों की भावना को शामिल कर ले। उन्हें खोजने के लिए उन्होंने सुझाव दिया है कि हम अपने सामान्य अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्ष की ओर जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि उदाहरण के लिए, हम सभी को मित्रों की आवश्यकता है और मैत्री विश्वास पर आधारित है, जो तब जन्म लेती है जब हम दूसरों के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं तथा ईमानदारी व सच्चाई से आचरण करते हैं। अंततः यह सौहार्दता के विकास से संबंधित है।
उसकी ओर जाने का एक उपाय इस समझ को विकसित करना है कि हमारा चित्त और भावनाएँ किस तरह कार्य करती हैं। परम पावन ने दोहराया कि नालंदा परम्परा में अभिव्यक्त प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। चित्त के विषय में सीखने के लिए वैज्ञानिक इसे बहुत उपयोगी पा रहे हैं। एक बार पुनः परम पावन ने युवा भारतीयों को उनकी अपनी समृद्ध विरासत की ओर अधिक ध्यान देने का आग्रह किया। उन्होंने दोहराया है कि एक शैक्षिक और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से देखे जाने पर यह बहुमूल्य ज्ञान किसी के लिए भी रुचिकर तथा उपयोगी हो सकता है। चित्त का विज्ञान सभी ७ अरब मनुष्यों के लिए आकर्षण हो सकता है और इस तरह मानव सुख में योगदान दे सकता है।
परम पावन ने यह प्रस्तावित करते हुए एथिक्स एंड हैप्पिनस (नैतिकता और सुख) पर अपना व्याख्यान समाप्त किया कि चूँकि वे कार्य, जो आनन्द तथा सुख लाते हैं, को नैतिक माना जा सकता है और वे कार्य, जिनका परिणाम पीड़ा व दुःख हैं, को अनैतिक रूप में देखा जा सकता है, इसलिए धार्मिक आस्था के बजाय नैतिकता की कसौटी मानव सुख है।
बाद के प्रश्नोत्त के सत्र में, परम पावन से पूछा गया कि उनके प्रबल स्वास्थ्य का रहस्य क्या था और उन्होंने उत्तर दिया, हँसना, कि यह एक रहस्य था। उन्होंने आगे कहा कि चित्त को खुला तथा तेज रखना एक कारक है और रात में ८-९ घंटे की नींद एक अन्य है। एक अन्य प्रश्न ने उन्हें यह कहने के लिए प्रेरित किया कि धार्मिक शिक्षाओं में भय के लिए कोई स्थान नहीं है और समझाया कि बुद्ध दुःख और उसके उद्गम के बारे में समझाने में सक्षम थे क्योंकि उन्होंने उसके निरोध और उसे किस प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है को भी समझाया।
यह पूछे जाने पर कि उनका घर कहाँ है, परम पावन ने उत्तर दिया कि निस्सन्देह उनका जन्म तिब्बत में हुआ था, पर अपने ८१ वर्षों के ५७ वर्षों में उन्होंने भारत को अपना घर माना है। उन्होंने एक तिब्बती लोकोक्ति का स्मरण किया कि आप जहाँ भी सुखी हों, उसे अपना घर मानें और जो भी आपके प्रति दयालु हो उन्हें अपना माता पिता समझें। उन्होंने आगे कहा कि जब वह १९७३ में यूरोप की अपनी पहली यात्रा पर जा रहे थे तो बीबीसी के मार्क टली ने उनसे पूछा था कि वे क्यों जा रहे थे और परम पावन ने उन्हें बताया था कि वे स्वयं को विश्व का नागरिक मानते हैं। उस संदर्भ में उनकी जो चिंता है वह आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्यों का कल्याण है।
अंत में, एकमात्र महिला, जिन्होंने आईआईटी में उनके समक्ष प्रश्न रखा ने पूछा कि क्या करुणा सिखाई जा सकती है। परम पावन ने सुझाया कि वह शांतिदेव का बोधिसत्वचर्यावतार पढ़ें जो संस्कृत और अंग्रेजी में उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि एक भारतीय, किन्नौरी लामा, खुनु लामा रिनपोछे, से १९६७ में सुनी इसकी व्याख्या ने उनके जीवन को परिवर्तित कर दिया था। उन्होंने कहा कि इसमें दस अध्याय हैं, प्रथम बोधिचित्त की प्रशंसा से संबंधित है। ४, ५, और ६ अध्याय, सहिष्णुता और क्षमा के अभ्यासों की व्याख्या करते हैं, जबकि ७वां और ८वां परोपकार, करुणा और पर आत्मकेन्द्रितता पर काबू पाने के मूल्य को समझाता है। उन्होंने कहा कि ९वां अध्याय, जो कि दार्शनिक विचारों से संबंधित है, को केवल अन्य पुस्तकें पढ़ कर ही स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
हालांकि, उन्होंने आगे कहा कि ६० वर्षों तक प्रयास करते हुए उन्होंने अनुभव किया इन विचारों को समझा जा सकता है। इसमें जो बताया गया है कि क्या दृश्य तथा वास्तविकता के बीच अंतर है। वस्तुएँ एक स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए प्रतीत होती हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि वे इस तरह के अस्तित्व से शून्य हैं। इसकी अनुभूति में प्रयास लगता है और चूँकि इसमें ज्ञान शामिल है इसके लिए अध्ययन और सोच की आवश्यकता है।
परम पावन के व्याख्यान के समापन पर सौहार्दपूर्ण और उत्साहजनक करतल ध्वनि गूँजी। धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात वे अपने होटल लौट गए।