लेह, लद्दाख, जम्मू एवं कश्मीर, भारत, ८ अगस्त २०१६ - आज प्रातः ङारी बौद्ध तर्क संस्थान के उद्घाटन समारोह में सम्मिलित हो रहे, परम पावन दलाई लामा का स्वागत संस्था के निदेशक गेशे छेवांग दोर्जे, गदेन ठिपा रिज़ोंग रिनपोछे, आमंत्रित अतिथियों और साबू ग्राम के स्थानीय लोगों द्वारा सौहार्दता से किया गया।
अपने स्वागत भाषण में गेशे छेवांग दोर्जे ने परम पावन को स्मरण कराया कि जब ११ वर्ष पूर्व विद्यालय की स्थापना हुई थी तो आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे परिवारों से २५ छात्रों के एक समूह को चुना गया था। आज विद्यालय में जंगथंग और जांस्कर सहित समूचे लद्दाख से ४९ छात्र हैं। उन्होंने कहा कि विद्यालय जो अल्प सुविधायुक्त छात्रों को शिक्षा का अवसर प्रदान करता है वह परम पावन की सलाह से निर्देशित होता रहेगा।
५वीं कक्षा के एक छात्र समूह ने 'चित्त शोधन के अष्ट पदों' का पाठ किया।
अपने उत्तर में परम पावन ने उनकी देखरेख में छात्रों को दिए जा रहे अवसर के लिए निदेशक और संस्थान के कर्मचारियों की सराहना की। परम पावन ने २१वीं शताब्दी में ज्ञान की आवश्यकता पर बल दिया।
"बौद्धों के रूप में," उन्होंने कहा, "हमें बौद्ध धर्म का अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें यह समझने के लिए कि शिक्षाओं का क्या अर्थ है अपनी बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता है। केवल कर्म कांडों और जाप पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। मनुष्य के रूप में हमारे पास अनूठी बुद्धि है जिसका हमें पूर्ण उपयोग करना है। परन्तु हमें उसका उपयोग करते हुए भी सावधानी रखनी चाहिए और दूसरों के लिए मुश्किलें खड़ी करने के बजाय प्रभावशाली रूप से दूसरों के हित के लिए उसका उपयोग करना चाहिए।
"संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और भारत से कई शिक्षाविदों ने अनुभव किया है कि भौतिक लक्ष्य रखने वाली आधुनिक शिक्षा पर्याप्त नहीं है। आंतरिक शांति की भी आवश्यकता है। हमें हृदय की शिक्षा के साथ चित्त की शिक्षा को मिलाने के लिए एक और अधिक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
"हम धर्म में विश्वास करें अथवा नहीं, प्रेम और करुणा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। हम सब ने अपनी माँ के प्रेम और स्नेह के आंचल में अपना जीवन प्रारंभ किया। आज, वैज्ञानिकों को प्रमाण मिल रहे हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है और नकारात्मक भावनाओं के समक्ष समर्पण हानि पहुँचाता है।
"अपने दार्शनिक दृष्टिकोण में अंतर के बावजूद विश्व के सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ प्रेम, करुणा, क्षमा और सहिष्णुता का महत्व सिखाती हैं। ऐसे साझे लक्ष्य के कारण धार्मिक लोगों को एक दूसरे के प्रति सम्मान और प्रशंसा विकसित करनी चाहिए।"
अंत में, परम पावन ने शिक्षा के महत्व को दोहराया। उन्होंने विद्यालय के फ्रांसीसी प्रायोजक को बुद्ध की एक प्रतिमा प्रस्तुत की, अपनी यात्रा के स्मरण के रूप में एक पौधा लगाया और छात्रों के साथ तस्वीर के लिए पोज़ किया।
परम पावन गाड़ी से स्तोक ग्राम गए जहाँ उनका प्रथम पड़ाव सिद्धार्थ हाई स्कूल था। स्कूल के संस्थापक, टाशी ल्हुन्पो महाविहार के खेनपो लोबसंग छेतेन ने उनका स्वागत किया। मंच की ओर जाते हुए परम पावन ने छात्रों के तीन समूहों को बौद्ध दार्शनिक शास्त्रार्थ करते हुए पाया।
सभी कर्मचारियों और छात्रों की ओर से, निदेशक गेशे छेवांग दोर्जे ने परम पावन का विद्यालय में स्वागत किया, यह टिप्पणी करते हुए कि यह तीसरी बार था कि वे उनका स्वागत करने में सक्षम हुए थे। उन्होंने परम पावन को उनकी निरंतर रुचि और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद दिया। अपने उत्तर में परम पावन उन सभी के प्रति जिन्होंने बरसों से विद्यालय में अथक कार्य किया है, साथ ही वे जिन्होंने वित्तीय समर्थन दिया है गहन सराहना व्यक्त की। उन्होंने आगे कहाः
"हमें एक अधिक करुणाशील मानवता बनाने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है। यह एक धार्मिक आकांक्षा नहीं है, अपितु आज जीवित ७ अरब मनुष्यों के अस्तित्व का प्रश्न है और कुछ सीमा तक हमारे ग्रह के अस्तित्व का प्रश्न भी है। अब हम केवल अस्थायी पुरस्कारों की सोचते हुए अदूरदर्शी नहीं हो सकते। हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं, परन्तु दुर्भाग्यवश हमारे अधिकांश दुःख हमारे अपने निर्मित किए हुए हैं।
|
"विश्व के कई भागों में जो हिंसा हम देखते हैं और जिसके बारे में हम सुनते हैं वह हमारे द्वारा लोगों को 'हम' और 'उन' के संदर्भ में देखने के कारण है। यदि हम इस तरह के दृष्टिकोण पर काबू न पाएँ तो संभव है कि २१वीं शताब्दी इसके पूर्व की शताब्दी के समान हिंसा का युग होगी। हमारे लिए इसे बदलने का समय आ गया है। अधिक शांतिपूर्ण मानव बनाने के यथार्थवादी उपाय प्रार्थना और धार्मिक शिक्षण द्वारा नहीं अपितु शिक्षा द्वारा है। हमें क्रोध तथा तनाव के विनाशकारी परिणामों को समझने के लिए अपने सामान्य ज्ञान का उपयोग करना चाहिए। करुणा का अर्थ दूसरों के प्रति एक चिन्ता की भावना है। यह कोई पवित्र वस्तु नहीं है, यह जानवर और कीड़े मकोड़े सहित दूसरों के कल्याण हेतु चिंता की एक सरल भावना है।"
परम पावन ने छात्रों से कड़ी मेहनत से अध्ययन करने का आग्रह किया। उन्होंने उनकी तर्क और शास्त्रार्थ सीखने के लिए सराहना की और सुझाव दिया कि यह उनके शैक्षणिक पेशे में सहायता करेगा। उन्होंने उन्हें बताया कि वे भविष्य की आशा हैं और एक सम्पूर्ण शिक्षा की पूर्ति उन्हें एक अधिक सुखी विश्व बनाने में सक्षम करेगी।
स्तोक विहार में परम पावन का स्वागत दिवंगत बकुला रिनपोछे के युवा पुनर्जन्म अवतरण ने किया। बकुला रिनपोछे ने १९५९ से पहले डेपुंग लोसेलिंग महाविहार से गेशे ल्हरम्पा की उपाधि ग्रहण की थी और बाद में भारत में निर्वासित तिब्बतियों के बड़े समर्थक थे। परम पावन ने युवा भिक्षु को उनके शास्र के अध्ययन में अच्छी तरह से संलग्न होने की सलाह दी।
मुख्य मंदिर में प्रवेश करते हुए, परम पावन ने अपनी श्रद्धा अर्पित की और अपना आसन ग्रहण किया। उन्होंने विहार के मूल के बारे में और वहाँ के अध्ययन के विषय में पूछा। भिक्षुओं ने उत्तर दिया कि उसकी स्थापना खेडुब गेलेग पलसंग (१३५८- १४३८) के एक प्रत्यक्ष शिष्य द्वारा की गई थी, खेडुब गेलेग पलसंग तो जे चोंखापा के प्रमुख शिष्यों (१३५७ - १४१९) में से एक है, और जे चोंखापा गेलुग परंपरा के संस्थापक है। उन्होंने बताया कि भिक्षु, प्रारंभिक अभ्यास करना सीखते हैं, बोधि पथ क्रम का अध्ययन करते हैं तथा वज्रभैरव के अभ्यास का पालन करते हैं। स्तोक विहार के पन्द्रह आवासी भिक्षु द्विमासिक विहारीय देशना समारोह और वस्सा आवास में प्रवेश के लिए अपने मातृ विहार स्पितुक में सम्मिलित होते हैं।
परम पावन ने भिक्षुओं को शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन करने की सलाह दी, जैसा कि दक्षिण भारत के पुनर्स्थापित तिब्बती विहारीय संस्थाओं में होता है, जिसके लिए स्पितुक विहार अपने भिक्षु भेज रहा है।
"इस बीच," उन्होंने आगे कहा, "आपको चार आर्य सत्य और जे चोंखापा के 'महाबोधि पथ क्रम' में व्याख्यायित शून्यता के दृष्टिकोण के अध्ययन तथा चर्चा से प्रारंभ करना चाहिए। बकुला रिनपोछे को भी भली भांति अध्ययन करना चाहिए तथा केवल लामा का नाम रखते हुए संतुष्ट नहीं होना चाहिए।"
स्तोक का पूरा जनमानस शाक्यमुनि बुद्ध की एक नवनिर्मित प्रतिमा के चारों ओर एकत्रित था। यह निर्माण मुख्य रूप से लद्दाखी भूतपूर्व सैनिकों द्वारा वित्त पोषित था, जिन्होंने परम पावन के आगमन पर गर्व से सलामी दी। परम पावन ने एकत्रित जनसमुदाय को सलाह दी कि वे मूर्ति को बुद्ध की प्रमुख शिक्षा के स्मरण के रूप में देखें: दूसरों के साथ प्रेम और करुणा का व्यवहार करें और वस्तुओं की अन्योन्याश्रित प्रकृति को चित्त में रखें। उन्होंने कहा कि उस शिक्षा का प्रथम भाग सभी अन्य धर्मों से साझा रखता है, परन्तु दूसरा बौद्ध धर्म के लिए अनूठा है। उन्होंने कहा कि बौद्धों के रूप में अपने चित्त का प्रशिक्षण, वस्तुओं की निर्भर प्रकृति को पहचानना हमारे क्लेशों का प्रतिकार करने में सहायता करता है जब हम प्रबुद्धता के लक्ष्य की ओर कार्योन्मुख होते हैं।
अंत में, शिवाछेल फोडंग लौटने से पूर्व परम पावन को लद्दाख शाही परिवार के साथ स्तोक राजभवन में मध्याह्न भोज के लिए आमंत्रित किया गया था।