वाशिंगटन डीसी, संयुक्त राज्य अमेरिका, १५ जून २०१६ - ग्रीष्म कालीन प्रातः खिली हुई थी जब परम पावन दलाई लामा आज कैपिटल हिल पर सरकार के केन्द्र वाशिंगटन के चौड़े और हरियाली युक्त मार्ग से होते हुए गाड़ी से गुज़रे। आगमन पर पुराने मित्र, डेमोक्रेट नेता नैंसी पेलोसी और सीनेटर पैट्रिक लियाही ने उनकी अगुवानी की, जो उन्हें सीनेट की विदेश संबंध समिति के साथ एक बैठक के लिए ले गए।
बाद में नैन्सी पेलोसी के कार्यालय में जाते हुए रोटोंडा को पार करने की आवश्यकता थी जिसका अभी नवीनीकरण किया जा रहा है। वह स्थान सार्वजनिक आगन्तुकों से भरा हुआ था जो परम पावन को देखकर आश्चर्य से भर सम्मान से मौन थे।
अमेरिकी कांग्रेस के नेतृत्व के साथ भेंट करते हुए परम पावन ने कहा:
'कांग्रेस ने हमारे उद्देश्य को लेकर प्रबल समर्थन व्यक्त किया है। हम स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे क्योंकि हम अपने चीनी भाइयों और बहनों के साथ टकराव नहीं चाहते। यद्यपि चीनी दस्तावेज प्रकट करते हैं कि ९वीं शताब्दी में स्वतंत्र तिब्बती, चीनी और मंगोलियाई साम्राज्य फले फूले थे। हम अब जो चाहते हैं वह हमारे बीच समस्याओं के लिए एक पारस्परिक लाभप्रद समाधान है। चीन और तिब्बत दोनों में बौद्ध धर्म नालंदा परम्परा से निकला है, परन्तु तिब्बत में संचरण कहीं अधिक व्यापक था और इसलिए संरक्षण के योग्य है। हम तिब्बती पठार की पारिस्थितिकी के बारे में भी चिंतित हैं।"
बगल में बैठे डॉ लोबसंग सांगे की ओर संकेत करते हुए परम पावन ने कहा:
"यहाँ बैठे सिक्योंग हाल ही में एक और पांच साल के लिए पुनः निर्वाचित हुए हैं। निर्वासन में हम तिब्बती बीजिंग के नेताओं को यह दिखाने के लिए लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लागू कर रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है।
"हम तिब्बत को कब्ज़ा की गई भूमि मानते हैं पर फिर भी हम स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे। यद्यपि साथ ही यह एक वास्तविकता है कि तिब्बत चीन का भाग नहीं है। कृपया हमें अपना समर्थन देना जारी रखें। हम इसकी अत्यंत सराहना करते हैं।"
परम पावन ने अपने संबोधन का समापन अपनी तीन प्रतिबद्धताओं को सारांशित रूप में बताते हुए किया, जो एक सच्चे सुख के स्रोत के रूप में आधारभूत मानवीय मूल्यों का प्रसार, सम्मानजनक अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने और तिब्बती लोगों की अस्मिता के साथ-साथ संस्कृति, भाषा और तिब्बत के पर्यावरण का संरक्षण है।
अध्यक्ष पॉल रयान और हाउस डेमोक्रेटिक नेता नैन्सी पलोसी ने परम पावन के लिए एक द्विदलीय मध्याह्न के भोज का आयोजन किया। श्रीमती पलोसी ने एक कथन में कहा।
"अध्यक्ष रयान के साथ हमारा द्विदलीय मध्याह्न भोज परम पावन के प्रति उनके शांति के संदेश, करुणा और उनमें विश्व को लेकर जो उत्तरदायित्व के भाव है, के लिए दोनों ओर से अभिव्यक्त गहरा सम्मान है। हर बार जब परम पावन कैपिटल की यात्रा करते हैं तो वे स्मरण कराते हैं कि 'परिवर्तन कर्म के माध्यम से आता है, और कांग्रेस को तिब्बती लोगों की उनकी भाषा, संस्कृति और धर्म के संरक्षण के संघर्ष में सहायता करने के लिए अपनी ओर से प्रयास करना चाहिए।"
अपने संक्षिप्त संबोधन में परम पावन ने कहा:
"अमेरिकी सरकार के दोनों सदन आशा और प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। अध्यक्ष युवा और सक्षम हैं और मैं कई वर्षों से नैन्सी पलोसी को जानता हूँ, हमारी मैत्री अपरिवर्तनीय है। जैसा कि मैंने पहले कहा है, हमारे समर्थक इतने अधिक तिब्बत समर्थक नहीं हैं, जितने कि वे न्याय के समर्थक हैं।"
मध्याह्न में, परम पावन ने इंटरनेशनल केंपेन फॉर टिब्बेट (आईसीटी) के सदस्यों के साथ एक बैठक की, जो १९८८ में स्थापित तिब्बत के लोगों के लिए मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए काम करता है। आईसीटी के अध्यक्ष, रिचर्ड गियर ने परम पावन से कहा कि वे उनसे इस विषय पर बात करना चाहते थे कि आज परम पावन जिस रूप में हैं, उस तरह के व्यक्ति वे कैसे बने और उन्होंने उत्तर दियाः
"मैं पाँच वर्ष की उम्र में ल्हासा आया और लगभग दो वर्ष बाद कंठस्थ करने के साथ अपनी शिक्षा प्रारंभ की। मैं तीक्ष्ण बुद्धि का परन्तु अपेक्षाकृत आलसी छात्र था। जब मैं १६ वर्ष का था तो पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने पूर्वी तिब्बत पार किया और उसके पश्चात रीजेंट ने मुझ पर राजनीतिक उत्तरदायित्व डाल दिया। १९५४ में मैं चीन गया जहाँ मैंने लगभग चीनी सरकार के सभी शीर्ष नेताओं से भेंट की। पाँच या छह महीने जो मैं बीजिंग में रहा उसमें मुझे लगता है कि मेरी अध्यक्ष माओ के साथ ३० बैठकें हुई होगी। मैंने मार्क्सवाद के बारे में सीखा और समाजवाद और अंतर्राष्ट्रीयता के विचारों की ओर आकर्षित हुआ।
"जब मैं १९५६ में भारत आया तो वह अनुभव काफी अलग था। जहाँ चीन एक बंद समाज था, भारत खुला था। नेहरू के प्रोत्साहन के साथ मैं तिब्बत लौटा परन्तु १९५९ में एक शरणार्थी के रूप में मैंने भारत पलायन किया। जो भी हो इसने मुझे विभिन्न प्रकार के लोगों से मिलने का अवसर दिया।
"तिब्बत में मैं सोचता कि बौद्ध धर्म सबसे श्रेष्ठ था। मैं तर्क और कारण का व्यापक उपयोग करता एक स्वस्थ शंका का विकास रखता हुआ नालंदा परम्परा का एक छात्र हूँ। निर्वासन में मैं अन्य धार्मिक परम्पराओं के कई अनुयायियों से मिला हूँ जिन्होंने अपनी आस्था के आधार पर दूसरों के कल्याणार्थ स्वयं को समर्पित किया है। हमारी सभी धार्मिक परम्पराएँ, प्रेम व करुणा के अभ्यास को सम्मिलित करती हैं इसलिए उन्हें सम्मान के साथ देखना उचित है।
"बाल्यकाल से ही विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विषय मेरी जिज्ञासा रही है। चीन में पनबिजली संयंत्र की यात्रा के दौरान मेरे शिक्षक ऊब गए थे, पर मैं मंत्रमुग्ध था। चेयरमैन माओ ने यह देखा और हमारी अंतिम बैठक में कहा कि मेरा मन एक वैज्ञानिक रूप लिए है और यह कहा कि धर्म अफीम की तरह था। मुझे लगता है कि यदि वह आज यहाँ होते तो वह अब भी धर्म के विषय वही कहते कि वह आस्था तक ही सीमित है, पर वे भी नालंदा परम्परा के वैज्ञानिक पक्ष को पहचान जाते।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि भारत में एक शरणार्थी के रूप में किसी तरह की औपचारिकता या प्रोटोकॉल का पालन करने की आवश्यकता नहीं थी, जिसने उन्हें और अधिक आत्मविश्वासी बना दिया। यह आत्मविश्वास परोपकारिता के अभ्यास तथा प्रतीत्य समुत्पाद की समझ से और सुदृढ़ हो गया था।
रिचर्ड गियर ने प्रश्न किया कि जब वे १९५९ में भारत आए तो उन्हें क्या लगता था कि तिब्बतियों के लिए क्या संभावनाएँ थी। परम पावन ने उत्तर दिया कि वे अप्रैल में आए और प्रथम प्राथमिकताओं में से एक तिब्बतियों को पहाड़ों के ठंडे स्थानों में स्थानांतरित करना था। परन्तु मात्र सड़क निर्माण का कार्य ही उपलब्ध था। उन्होंने कहा कि उन्होंने बस्तियों की परिकल्पना की जहाँ समुदायों का निर्माण किया जा सकता था यह सुनिश्चित करने के लिए तिब्बती लोग बचे रहें।
उन्होंने स्मरण किया कि १९५२ में उत्तरदायित्व ग्रहण करने के तत्काल बाद उन्होंने एक सुधार समिति की स्थापना की थी, परन्तु चीनियों इसके मार्ग में रोड़े अटकाए क्योंकि वे अपनी शर्तों पर सुधार देखना चाहते थे।
जब गियर ने उनसे पूछा कि विगत वर्षों में कौन से ऐसे अवसर थे जो प्राप्त नहीं हुए, परम पावन ने उन्हें बतायाः
"लगभग कुछ नहीं। ६० के दशक में कुछ अधिकारियों को संदेह हुआ कि क्या पलायन करना उचित था, पर एक बार जब सांस्कृतिक क्रांति फूटी तो उन्होंने अनुभव किया कि यह उचित निर्णय था। जिस प्रकार मैं निर्णय लेता हूँ वह है सबसे प्रथम अपने मानव सहयोगियों के बीच चर्चा करना। मैंने पाया कि जहाँ अधिकारी बहुत अधिक सावधान होते थे, नौकर जैसे कि सफाई करने वाले, साधारणतया अधिक स्पष्ट और सीधे थे। आम तौर पर मैं कई प्रकार की राय लेता हूँ और जिस निर्णय पर हम पहुँचे उसको लेकर मैंने 'रहस्यमय उपाय' भी अपनाए हैं। पर फिर भी मुझे नहीं लगता कि जो भी निर्णय लिए गए हैं उनसे अलग कुछ लिया जाना चाहिए था।
"१९७३ में मैंने प्रथम बार यूरोप की यात्रा की और वैश्विक उत्तरदायित्व की आवश्यकता के विषय में बात करना प्रारंभ किया। मैंने वैज्ञानिकों के साथ विचार विमर्श प्रारंभ किया। और उसी समय मैंने हमारे भिक्षुणी विहारों में शास्त्रीय अध्ययन को प्रोत्साहित करने की भी पहल की और इस वर्ष आप उसका परिणाम देखेंगे जब पहली बार भिक्षुणियों को गेशे की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा।
"मैंने यह अनुभव करना प्रारंभ किया कि चित्त व भावनाओं का ज्ञान कुछ ऐसा है जो एक व्यापक विश्व के लिए लाभदायी हो सकता है। यह देखते हुए कि कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रह के तिब्बती भाषा में अनूदित साहित्य को विज्ञान, दर्शन और धर्म के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, मैंने अनुरोध किया है कि उनमें से वैज्ञानिक और दार्शनिक सामग्री को एकत्रित कर, उसके संकलन का अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाए।
"मैंने यह भी कहा है कि मानवीय मूल्यों और चित्त की शांति पर अधिक से अधिक ध्यान देते हुए वर्तमान शिक्षा में सुधार की आवश्यकता है। एक बौद्ध भिक्षु के रूप में मैं पाँच घंटे प्रार्थना और ध्यान में लगाता हूँ। प्रार्थना व्यक्ति के लिए मूल्य रखता है, पर केवल अपने दम पर एक बेहतर विश्व लाने के लिए यह एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसके स्थान पर हमें कार्रवाई करने की आवश्यकता है।"
जब रिचर्ड गियर ने चीनी अधिकारियों के साथ बातचीत की संभावनाओं के बारे में पूछा तो परम पावन ने उन्हें बताया:
"अंतिम बैठक २०१० में थी। उसके बाद से चीनी पक्ष ने स्पष्ट किया है कि उनकी हमारे संगठन के साथ काम करने में अधिक रुचि नहीं है। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि २००८ के संकट के बाद हू जिंताओ को सलाह दी गई थी कि दलाई लामा को कभी भी लौटने न दिया जाए। चूँकि हमने ५७ वर्ष तक प्रतीक्षा की है, हम कुछ और समय तक प्रतीक्षा कर सकते हैं। तिब्बत के लोगों का दृढ़ संकल्प कम नहीं हुआ है।"
"आपके यहाँ बहुत मित्र हैं," रिचर्ड गियर ने कहा, "जो तिब्बत के अंदर और बाहर तिब्बतियों की सहायतार्थ प्रतिबद्ध हैं। हम किस तरह आपकी सहायता कर सकते हैं?" परम पावन ने उत्तर दियाः
"जिस रूप में भी कर सकें मेरी तीन प्रतिबद्धताओं में सहयोग करें, मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूकता का प्रसार, अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने और संस्कृति, भाषा और तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण। मैं आपकी सहायता की सराहना करता हूँ - धन्यवाद। कृपया इसे बनाएँ रखें।"