धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत, २७ मार्च २०१५ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा ने निर्वासन में २०वें शोतोन ओपेरा महोत्सव के उद्घाटन की अध्यक्षता की। तिब्बत में तिब्बती ओपेरा का ऐसा अंतिम उत्सव १९५८ में हुआ था और परम पावन की सलाह पर १९९३ में इस परम्परा को पुनर्जीवित किया गया। जब वह अपने निवास स्थान से टिब्बटेन इंस्टिट्यूट ऑफ परफोर्मिंग आर्ट्स (तिब्बती प्रदर्शन कला) (टीपा) जाने हेतु गाड़ी से निकले, तो मार्ग में तिब्बती और शुभचिंतक पंक्तिबद्ध थे और जब भोर की सूर्य किरणें उनके हर्षित, मुस्कुराते चेहरों को आदीप्त कर रही थीं तो उनके हाथों में श्वेत रेशमी स्कार्फ लहरा रहे थे।
टीपा के द्वार पर निदेशक वांगदू छेरिंग पेसुर ने परम पावन का स्वागत किया और पूरी तरह से सुसज्जित कलाकारों ने 'छेमा छंगफू' समर्पण प्रस्तुत किया। सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी, तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष और मुख्य न्याय आयुक्त भी उनका स्वागत करने के लिए उपस्थित थे। परम पावन अपने मित्रों का अभिनन्दन करते हुए खुशी से भरे जनमानस के बीच से होकर निकले और उनके लिए तैयार किए गए बालकनी बॉक्स में अपना स्थान ग्रहण किया।
प्रारंभ में तिब्बत मुद्दे के लिए मृत्यु को प्राप्त हुए शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु एक मिनट का मौन रखने के लिए कहा गया। तत्पश्चात १४वीं शती के सिद्ध, थंगतोंग ज्ञलपो, जिन्हें साधारणतया अचे ल्हामो ऑपेरा परम्परा की स्थापना का श्रेय दिया जाता है, की एक मूर्ति की स्थापना प्रदर्शन स्थल के केन्द्र में वेदी पर स्थापित की गई। निदेशक वांगदू छेरिंग ने वहाँ उपस्थित सभी की ओर से बोलते हुए आभार व्यक्त किया कि परम पावन उस कार्यक्रम में सम्मिलित हो सके।
समारोह के प्रथम दिन नौ सम्मिलित होने वाले दलों में से प्रत्येक अपने बड़े प्रदर्शन से एक अंश का प्रदर्शन करने वाले थे। इन अंशों का प्रारंभ नेपाल के शरखुमभू क्षेत्र की एक मंडली के अपने प्रथम प्रदर्शन के साथ हुआ।
बीबीसी के साथ एक संक्षिप्त साक्षात्कार में परम पावन ने कहा:
"हम तिब्बतियों की अपनी संस्कृति है जो बहुत कुछ भारत से प्रभावित है जैसा कि संस्कृत और पालि से अधिकांशतः अनूदित शास्त्रों के ३०० खंडों मे देखने को मिलता है। आज, मात्र हम तिब्बतियों के पास नालंदा परंपरा का एक पूर्ण संचरण है। यह केवल तिब्बतियों के लिए ही नहीं, पर हमारे चीनी बौद्ध भाइयों और बहनों के लिए भी रुचि का विषय है।
"यद्यपि धार्मिक अभ्यास एक निजी विषय है, पर तिब्बती बौद्ध संस्कृति में समुदाय शामिल है। यह शांति और अहिंसा की संस्कृति है और आज शांति की संस्कृति हर किसी के हित में है। बौद्ध संस्कृति में दूसरों के लिए चिंता की एक मजबूत भावना शामिल है। वास्तव में, इसमें प्राकृतिक पर्यावरण जिसमें पशु, पक्षी और कीड़े शामिल हैं जो हम मनुष्यों की तुलना में जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित होते हैं। जब से हम शरणार्थी बने हमने इस संस्कृति के संरक्षण का प्रयास किया है, पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक तरीकों से मिलाने का प्रयास िकया है। एक तिब्बती सामाजिक मेलजोल का यह महोत्सव उस प्रयास का अंग है।
"मेरे अपने दृष्टिकोण से जब मैं छोटा था तो मैं विशेष रूप से शोतोन का आनंद लेता था, क्योंकि यह मुझे अपनी माँ के साथ समय बिताने का एक अवसर देता था और मैं इसे अपनी पढ़ाई से पाँच दिनों की छुट्टी के रूप में देखता था। मैं यह देखकर प्रसन्न हूँ कि युवा पीढ़ी अब भी उस में आनंद लेती है।"
एक भारतीय पत्रकार से बात करते हुए परम पावन ने कहा:
"तिब्बती बौद्ध संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष, नालंदा परंपरा से एक संदेश, का संबंध प्रतीत्य समुत्पाद से है। इसकी शिक्षा बुद्ध ने दी और विस्तार नागार्जुन ने किया। आज जब विश्व और अधिक परस्पर अन्योन्याश्रित हो रहा है, यह विचार बहुत ही प्रासंगिक है। यह हमें मानव परिवार के सदस्य के रूप में हमारी एकता की सराहना करने के लिए प्रोत्साहित करता है। आज हम जितनी समस्याओं का सामना कर रहे हैं वह हमारे आत्म केन्द्रितता की भावना और उससे निकली विनाशकारी भावनाओं से आती हैं। यदि हम संपूर्ण मानवता को अन्योन्याश्रित रूप में देखें तो कुछ लोगों को शत्रुओं के रूप में देखने का कोई स्थान न रह जाएगा। और तो और कई वैज्ञानिक अन्योन्याश्रित की धारणा की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
"मैं सदा कहता हूँ कि हमारा ज्ञान भारत से आया, कि भारतीय हमारे गुरु हैं और हम शिष्य हैं। और तो और चूँकि हमने आपसे प्राप्त ज्ञान और संस्कृति को जीवित रखा है, हम विश्वसनीय शिष्य होने का दावा कर सकते हैं।
"इस ओपेरा की कई कहानियाँ जातक कथाओं पर आधारित हैं, बुद्ध बनने से पूर्व अपने जीवन में एक बोधिसत्व के रूप में बुद्ध कर्मों की कहानियाँ। उदारता और दयालुता के ये उदाहरण आंखों में आँसू ला सकते हैं।"
उन शिक्षकों से बात करते हुए जो विभिन्न तिब्बती आवासों में निर्मित किए गए कई ओपेरा मंडलियों के प्रशिक्षण से जुड़े हैं, परम पावन ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि यह ओपेरा परंपरा अनूठे रूप में तिब्बती है। उन्होंने उन सबको उनकी कड़ी मेहनत और उसे जीवित रखने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि तिब्बत में प्रदर्शन किए जा रहे ओपेरा को बनाए रखने के अतिरिक्त, वे नए सृजन की सोच सकते हैं, शायद पश्चिम में प्रदर्शित नाटकों की तरह। उन्होंने सुझाव दिया कि वे जब भारत और विदेशों में अलग-अलग स्थानों पर प्रदर्शन करते हैं तो इस तरह तिब्बत और तिब्बतियों के प्रति जागरुकता पैदा करने का एक अवसर मिल सकता है।
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मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने विभिन्न ओपेरा मंडलियों के साथ तस्वीर खिंचवाई जो समारोह के लिए धर्मशाला आए हैं और उनके सदस्यों के साथ बातचीत की। जब वह निकल रहे थे तो तिब्बती होम्स फाउंडेशन, मसूरी मंडली, खेन लोब छोसुम से एक अंश का प्रदर्शन कर रही थी और परम पावन ने तीन प्रमुख पात्रों, उपाध्याय (शांतरक्षित) आचार्य (गुरु पद्मसंभव) तथा धार्मिक राजा ठिसोंग देचेन को रेशमी स्कार्फ दिए, उनकी यात्रा का एक उपयुक्त और मंगलमय रूप।