सपोरो, होक्काइडो, जापान - ३ अप्रैल २०१५ - टोक्यो से सपोरो की लगभग ८०० किलोमीटर की उड़ान, जो आज परम पावन दलाई लामा ने तय की वह एक ऋतु से दूसरे ऋतु की थी। टोक्यो में वसंत, उज्ज्वल दिन, नीले आकाश और चेरी के पूरी तरह पुष्पित होने के साथ आ गया है। इसके विपरीत होक्काइडो में अभी भी शीतकाल है, ठंड, बादल, तेज़ हवा और गीलापन। साफ किए गए बर्फ के ढेर दिखाई पड़ रहे थे। वे जूनियर चैंबर इंटरनेशनल के सपोरो शाखा, जो कि १८ वर्ष के युवाओं और ४० वर्ष की उम्र के बीच के लोगों की एक गैर-लाभकारी अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन है, के अतिथि थे। ८० देशों के सदस्यों के साथ, यह युवा लोगों को सामाजिक और आर्थिक विकास में भाग लेते हुए एक जिम्मेदार नागरिक बनने हेतु प्रोत्साहित करती है और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, अच्छी भावना और समझ को बढ़ावा देती है। परम पावन के मंच संभालते ही १८०० सशक्त श्रोताओं ने उनका सौहार्दपूर्ण स्वागत किया तथा मग्न होकर उन्हें सुना।
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"अभिनन्दन" उन्होंने प्रारंभ किया। "मैं यहाँ प्रथम बार आया हूँ। अब, हर कोई सुखी रहना चाहता है और हर किसी को सुखी रहने का अधिकार है। और जबकि गौण स्तर पर हमारे बीच राष्ट्रीयता, आस्था, पारिवारिक पृष्ठभूमि, सामाजिक स्थिति इत्यादि के मतभेद हैं, पर उससे अधिक महत्वपूर्ण बात जो हमें याद रखने की है वह यह कि मनुष्य के स्तर पर हम एक हैं। हममें से कोई भी समस्याओं का सामना नहीं करना चाहता, पर फिर भी हम अपने बीच के अंतर पर बल देते हुए अपने लिए समस्याएँ निर्मित करते हैं। यदि हम उन पर काबू पा लें और एक दूसरे को बस साथी मानव के रूप में देखें तो हम दोनों के बीच लड़ाई या संघर्ष का कोई आधार नहीं रह जाएगा। हमें सद्भाव की आवश्यकता है, ऐसा कुछ जिसमें मेरा विश्वास है कि आप जापानी अच्छे हैं।"
परम पावन ने कहा कि १९७३ में जब वह यूरोप की अपनी पहली यात्रा पर रवाना होने वाले थे, भारत में बी बी सी के संवाददाता मार्क टली ने उनसे पूछा कि वे विश्व के अन्य भागों की यात्रा क्यों करना चाहते थे। उन्होंने उनसे कहा कि वे स्वयं को विश्व का नागरिक मानते हैं, और वे अन्य लोगों से मिलने और विभिन्न संस्कृतियों का अनुभव करना चाहते थे।
"हमें आज जीवित ७ अरब मनुष्य की एकता की भावना की आवश्यकता है। जब अन्य लोगों से मिलता हूँ, मैं अपने को उनसे विभिन्न नहीं मानता, कि मैं तिब्बती, बौद्ध और यहाँ तक कि दलाई लामा हूँ। मैं मात्र उनको अपनी ही तरह एक इंसान के रूप में मानता हूँ। हम सबमें सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं की समान क्षमता है और मनुष्य के रूप में हमारा एक विशिष्ट गुण हमारा चित्त, हमारी बुद्धि है। यदि हम इसका अच्छी तरह से उपयोग करें तो यह हमें सफल और सुखी बनाएगा।"
उन्होंने टिप्पणी की कि आधुनिक समाज में सब कुछ भौतिक की दिशा की ओर प्रेरित है, यहाँ तक कि हमारी शिक्षा प्रणाली भी। परिणाम स्वरूप हम अपने आंतरिक मूल्यों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते जो मानसिक अशांति की ओर ले जाता है। इस असंतुलन को संबोधित करने के लिए हमें अपने चित्त पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
"यदि हम अपने चित्त को विनाशकारी भावनाओं, आत्म केन्द्रितता, दूसरों के प्रति नहीं के बराबर सम्मान, के अंकुश में आने दें तो हम सुखी न होंगे। हम सामाजिक प्राणी हैं और इस तरह हमें एक साथ कार्य करने की आवश्यकता है। यदि हमारे आसपास मित्र हैं तो हम सुरक्षित, सुखी अनुभव करते हैं और हमारे चित्त शांत होते हैं। और तो और हम सबका शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा होगा। जब हम क्रोध, भय और कुंठा से भरे होते हैं तो न केवल हमारा चित्त उद्विग्न होता है, पर वे भावनाएँ हमारे स्वास्थ्य को भी निचोड़ देती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि सुख का परम स्रोत सौहार्दता है। सौहार्दता ही भारत में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार है। और यह जब हम छोटे होते हैं तो हमारी माँओं द्वारा हम पर बरसाए गए स्नेह के साथ प्रारंभ होता है जो हमें दूसरों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए तैयार करता है।"
"यहाँ जापान में, मैंने सुना है कि आपकी युवाओं के बीच आत्महत्या की एक समस्या है। इसको संबोधित करने के उपायों में से एक आगामी पीढ़ी में दूसरों के लिए चिंता और स्नेह की एक बुनियादी समझ का विकास करना है।"
परम पावन ने टिप्पणी की कि सभी धार्मिक परम्पराओं में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की भावना आम है, क्योंकि वे स्नेह और प्रेम का एक आधारभूत संदेश रखते हैं। दार्शनिक मतभेद हैं, पर इन दार्शनिक दृष्टिकोणों का उद्देश्य सौहार्द के महत्व को सशक्त करना है। हमारी विभिन्न धार्मिक परंपराओं की सराहना और सम्मान करना उनके बीच सद्भाव के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है। और अंतर्धार्मिक सद्भाव ऐसे समय में और भी अधिक महत्वपूर्ण है जब लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे की हत्या कर रहे हैं।
प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने समझाया कि जीवन का उद्देश्य सुखी रहना है। उन्होंने चुनाव के माध्यम से नेताओं के चुनाव का समर्थन किया, पर सुझाया कि उन्हें सच्चा, ईमानदार, सौहार्दपूर्ण और उन्हें जिससे निपटने की आवश्यकता है उसके प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ। उन्होंने बच्चों के प्रति प्रेम जताने के महत्व पर बल दिया जो उन्हें एक सुरक्षा की भावना और जीवन भर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखने की क्षमता देता है।
भारत में जातीय भेदभाव के बारे में पूछे जाने पर परम पावन ने कहा कि यह कुछ ऐसा था जिसका विरोध बुद्ध ने भी किया था। उन्होंने कहा कि सभी मनुष्य समान हैं और यहाँ तक कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच भी भेदभाव का कोई आधार नहीं है। खिलखिलाते हुए उन्होंने स्मरण किया कि अध्यक्ष माओ ने १९५५ में उनसे कहा था कि जातीय भेदभाव का विरोध करने में बुद्ध एक क्रांतिकारी थे। उन्होंने कहा कि धार्मिक परम्परा के तीन पक्षों में एक धार्मिक पक्ष है जो प्रेम और करुणा का संदेश से संबंधित है, दार्शनिक पक्ष जो या तो सृष्टिकर्ता परमेश्वर या कार्य कारण सिद्धांत पर केन्द्रित होता है और सांस्कृतिक पक्ष। यह अंतिम सांस्कृतिक पक्ष जो समय के साथ परिवर्तित होता है और होना चाहिए और जिसके विषय में आध्यात्मिक नेताओं और शिक्षकों को बात करनी चाहिए।
इस प्रश्न पर कि क्या वे कभी क्रोध से अपना आपा खोते हैं, परम पावन ने माना कि वे एक मनुष्य हैं और कभी कभी उन्हें क्रोध आता है। उन्होंने न्यूयॉर्क के एक पत्रकार की कहानी सुनाई जो एक ही प्रश्न पर अड़ी रहीं जबकि उन्होंने उनसे कह दिया था कि उनके पास कोई उत्तर नहीं है। वे उस पर क्रोधित हुए थे, पर बल दिया कि एक वर्ष बाद जब वे पुनः मिले तो वे दोनों उस बात को लेकर हँसने लगे। उन्होंने दोहराया कि क्रोध, भय और शंका के काबू में आ जाने से न केवल हमारा चित्त उद्वेलित होता है पर यह हमारे स्वास्थ्य को भी बाधित करता है। यहाँ तक कि क्रोध परिवारों को तोड़ भी सकता है जबकि विश्वास और मैत्री ऐसे हैं जिन पर मानव समाज पर आधारित है।
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उन्होंने इसे अपने अच्छी और बुरे समाचार के उत्तर से जोड़ा। उन्होंने कहा कि जब लोग एक दूसरे पर विश्वास करते हैं और एक दूसरे के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तो वह खबर नहीं बनती। दूसरी ओर आशा के धरातल हैं कि २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बहुत कम लोग करुणा शब्द का प्रयोग करते थे, पर अब राजनीतिज्ञ भी इस बारे में बात करते हैं। इसी तरह एक शताब्दी पूर्व बहुत कम लोग पारिस्थितिकी और पर्यावरण पर विचार करते थे, जिस प्रकार वे आज करते हैं। और तो और २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लोग युद्ध और बल प्रयोग को समस्याओं के समाधान का उपाय मानते थे और आज वह बदल गया है।
जैसे ही मध्याह्न समाप्ति की ओर बढ़ा, परम पावन ने खुशी खुशी छोटे बच्चों से धन्यवाद का उपहार स्वीकार किया जो उन्हें देने मंच पर आए। प्रत्युत्तर में उन्होंने स्नेह से उनका धन्यवाद किया और टिप्पणी की, कि वे सच्चे अर्थों में २१वीं सदी के हैं, एक ऐसी पीढ़ी जो संभवतः इस विश्व को एक अधिक सुखी, अधिक शांतिपूर्वक स्थान बनाने में सक्षम हो पाएगी।