नई दिल्ली, भारत, २१ मार्च २०१५ - परम पावन दलाई लामा ने अपना दिन विभिन्न क्षेत्रों के पेशेवरों के साथ बैठक से प्रारंभ किया।
राजीव मेहरोत्रा के परिचय के पश्चात परम पावन ने यह स्पष्ट किया कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम चाहे जो भी करते हों मनुष्यों के रूप में हम सभी एक जैसे हैं।
"हम सभी सुखी जीवन जीना चाहते हैं। हम अपने जीवन में सार्थकता चाहते हैं। एक सार्थक जीवन का अर्थ धन, शक्ति और ख्याति एकत्रित करना नहीं है, अपितु सुख पैदा करना है। और इसी कारण जिससे भी मैं मिलता हूँ उससे साझा करना चाहता हूँ कि सुख का वास्तविक स्रोत हमारे अंदर है। हमारा जीवन कितना ही उलझा हुआ क्यों न हो, यदि हम एक अंश तक चित्त शांति बनाए रखें तो हम सुखी हो सकते हैं।
"चाहे हम मित्रों और संपत्ति से घिरे हुए हों परन्तु यदि भय और शंका से भरे हों तो हम सुखी नही हो सकते। मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली का ढंग और जिस रूप में हममें से कई जीवन जी रहे हैं वह अत्यंत भौतिकवादी है।"
परम पावन ने प्रश्न आमंत्रित किए और पहला हमारे जीवन में प्रौद्योगिकी की भूमिका के विषय पर था। उन्होंने संकेत दिया कि तकनीक में विकास के कारण हमारे संचार और यात्रा के साधनों में अकल्पनीय सुधार हुआ है। परन्तु हमें एक यथार्थवादी दृष्टिकोण रखने की आवश्यकता है। परम पावन ने टिप्पणी की कि उन्हें अपनी घड़ी प्रिय है और वे उसे बहुत सहेज कर रखते हैं, पर वह उनकी भावनात्मक आवश्यकताओं के प्रति पूरी तरह से निष्क्रिय है। प्रौद्योगिकी सहायक है अथवा हानिकारक, यह निर्भर करता है कि उपयोगकर्ता उसे किस रूप में काम में लाता है।
अंतर्धार्मिक सद्भाव के विषय में बात करते हुए, परम पावन ने घोषणा की, कि उन्होंने भारत में सीखा था कि सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा की शिक्षा देते हैं तथा आंतरिक शांति लाने की क्षमता रखते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या वह बुद्धिमान पैदा हुए थे अथवा बाद में बुद्धिमान बने, उन्होंने बल दिया कि वह स्वयं को कुछ विशिष्ट रूप में नहीं देखते और उन्होंने अन्य लोगों से अपना ज्ञान प्राप्त किया है। उनके सुझाव को लेकर कि आधुनिक भारतीयों को प्राचीन भारत के ज्ञान से लाभ उठाना चाहिए, उन्होंने अपने विचारों की पुष्टी की कि विद्यालयों में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देने के दीर्घकालीन परिणाम होंगे। उन्होंने भारतीय ग्रंथों से अनूदित कांग्यूर और तेंग्यूर साहित्य संग्रह को विज्ञान और दर्शन के रूप में अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध कराने का, जो कोई भी पढ़ सके, अपना उद्देश्य स्पष्ट किया।
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बैठक समाप्त होते ही होटल प्रबंधन के एक प्रतिनिधि ने आगे बढ़कर परम पावन का उनके अमूल्य समय के लिए उनका धन्यवाद किया। यह इंगित करते हुए कि यह उनका ८०वां जन्मदिन है, उन्हें केक काटने और आगामी कई संभावित जन्मदिन के केक के प्रथम केक को दूसरों के साथ बाँटने के िलए आमंत्रित किया, जबकि वहाँ उपस्थित लोगों ने 'जन्मदिन मुबारक' का गीत गाया।
मध्याह्न भोजन के पश्चात उनकी नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' का प्रवचन सुनने एकत्रित हुए लगभग ३५० लोगों से परम पावन ने कहा कि वे उनके प्रश्नों द्वारा प्रारंभ करना चाहते हैं। उन्होंने यह कहते हुए शून्यता से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर दिया कि दृश्य और वास्तविकता के बीच अंतर करना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि उन्होंने मध्यमक दृष्टि पर चिंतन करते हुए ६० वर्ष बिताए हैं तथा हाल ही में उन्होंने एक युवती से कहा था कि यदि उसने शून्यता पर अपनी जाँच बनाए रखी तो संभवतः ४० वर्षों में उसकी समझ अच्छी होगी।
उन्होंने एक महिला, जिसने बताया था कि उसे मृत्यु से भय है, से कहा कि हमारा भय हमारे शरीर और अपने आपके प्रति मोह से संबंधित है। यह मोह हमें अन्य जीवन की ओर ले जाने हेतु पर्याप्त है। उस जीवन का गन्तव्य निर्भर करता है कि हम इस समय एक सार्थक जीवन जी चुके हैं अथवा नहीं। हम जैसे सामाजिक प्राणियों के लिए कसौटी यह है कि हमने अन्य लोगों की सहायता की है अथवा उनका अहित किया है।
जब श्रोतागणों में से एक अन्य ने कहा कि वह सरकार के निर्देश से सहमत नहीं हैं और पूछा कि उसे क्या करना चाहिए तो परम पावन ने अपना विश्वास दोहराया कि कमियों के बावजूद वह अभी भी लोकतंाित्रक गुणों में विश्वास रखते हैं। उन्होंने कहा है कि भारत जैसे विशाल देश में, शिक्षा के प्रसार के लिए बहुत प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए आशावादिता और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होगी।
भारत में तिब्बती शरणार्थियों के भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि यह एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है और उन्होंने ऐसा उत्तरदायित्व एक निर्वाचित नेतृत्व को न्यागत कराया है। उन्होंने भारत सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में पंडित नेहरू के समय से तिब्बतियों के प्रति दिखाई गई कृपा का स्मरण किया। यह नेहरू थे जिन्होंने सुझाव दिया कि तिब्बती विद्यालय अंग्रेजी में शिक्षा दें क्योंकि यह एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। परम पावन ने पुष्टि की, कि यह शरणार्थी समुदाय का लक्ष्य है कि वे तिब्बत के अंदर निवास कर रहे ६ लाख तिब्बतियों की आकांक्षाओं को पूरा करें।
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नागार्जुन के ग्रंथ की अपनी व्याख्या को पुनः प्रारंभ करते हुए, परम पावन ने कहा कि शून्यता का अर्थ अभाव अथवा कुछ न पाने की कमी नहीं है। इसका यह अर्थ होता है कि वस्तु का अपना कोई आंतरिक अस्तित्व नहीं होता, जो अन्य कारकों पर निर्भर करते हैं। शून्यता के संबंध में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए कई कारण युक्त तर्क काम में लाए जा सकते हैं जैसे कि वास्तविक अस्तित्व की पहचान कि वस्तुएँ 'न तो एक और न ही कई' होती हैं और उनके कारणों की जाँच वज्रकण के नाम से जाना जाता है। उन्होंने कहा कि यद्यपि उनका कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता, मात्र ज्ञापित अस्तित्व के अतिरिक्त कोई अन्य अस्तित्व नहीं।
परम पावन ने जे चोंखापा के प्रमुख शिष्यों में से एक जे शेरब सेंगे की कथा सुनाई। वह अत्यंत गहनता से पुद्गल नैरात्म्य संबंधित चन्द्रकीर्ति के सप्तांग कारणों पर गहनता से चिन्तन कर रहे थे ः
१ आत्मा स्वाभावगत रूप से मनोवैज्ञानिक - शारीरिक स्कंधों के समान नहीं है।
२ आत्मा स्वाभावगत रूप से मनोवैज्ञानिक- शारीरिक स्कंधों से पृथक नहीं है।
३ आत्मा मनोवैज्ञानिक - शारीरिक स्कंधों पर निर्भर नहीं है।
४ आत्मा स्वभावगत रूप से आधार नहीं है जिस पर मनोवैज्ञानिक - शारीरिक स्कंध निर्भर हों।
५ आत्मा स्वभावगत रूप से मनोवैज्ञानिक - शारीरिक स्कंध का स्वामी नहीं है।
६ आत्मा स्वभावगत रूप से मात्र मनोवैज्ञानिक-शारीरिक स्कंधों का संग्रह नहीं है।
७ आत्मा स्वभावगत रूप से मात्र मनोवैज्ञानिक - शारीरिक स्कंधों का आकार नहीं है।
अचानक उन्होंने अनुभव किया कि वास्तव में कुछ भी नहीं था और भय से अपनी कमीज़ पकड़ ली। पर फिर उसने सोचा, "यदि किसी का भी अस्तित्व नहीं तो मैं अपनी कमीज़ पकड़े क्या कर रहा हूँ?" जैसा ग्रंथ स्पष्ट करता है, वस्तुएँ अपने ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखती हैं। परम पावन ने घोषणा की कि २४वें अध्याय के १८वें और २४वें श्लोक 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' के सम्पूर्ण ग्रंथ के अर्थ को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं।
यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्महे।
सा प्रज्ञप्तिरूपादाय प्रतिपत्सेव मध्यमा।।
जो है प्रतीत्यसमुत्पाद, वह शून्यता के रूप में व्याख्यायित है।
प्रज्ञप्ति रूप में होने के कारण, वही मध्यम मार्ग है।
अप्रतीत्य समुत्पन्नो धर्मः कश्चिन्न विद्यते।
यस्मात्तस्मादशून्यो हि धर्मः कश्चिन्न विद्यते।।
कुछ भी अस्तित्व में नहीं होता, जो प्रतीत्य समुत्पादित नहीं है।
अतः कोई धर्म ऐसा नहीं जो शून्य न हो।
उन्होंने टिप्पणी की कि यदि वस्तुओं की स्वभावगत सत्ता होती तो कार्य कारण अपने प्रकार्य में असमर्थ होते।
अध्याय २४ से परम पावन, अध्याय २३ विपर्यास परीक्षा पर लौटे और तत्पश्चात अध्याय १८ जहाँ २सरा श्लोक आत्म का विश्लेषण करता है तथा प्रकट करता है कि आत्म जिस रूप में हमें प्रतीत होता है, उसका अस्तित्व उस रूप में नहीं है। यह समझ हमें मैं और मेरा की ग्राह्यता को कम करती है। शून्यता द्वारा प्रपञ्च समाप्त होता है। अंत में परम पावन २६वें अध्याय द्वादशाङ्गपरीक्षा की ओर मुड़े।
उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि सभी बौद्ध के चार आर्य सत्य को स्वीकार करते हैं। इनमें तीसरा, निरोध मुक्ति की संभावना को स्पष्ट करता है और यही कारण है कि फिर हम तीन अधिशिक्षाओं, शील समाधि और प्रज्ञा के मार्ग का पालन करते हैं। इसका प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग में सविस्तार वर्णन है।
परम पावन ने कहा इस ग्रंथ में जो प्रकट किया गया है वह अज्ञान का प्रबल मारक है। उन्होंने कहा कि प्रज्ञा एक शक्तिशाली शस्त्र है और बोधिचित्त विनाशकारी भावनाओं का मुकाबला करने के लिए एक वित्तीय समर्थन की तरह है।
अपनी व्याख्या पूर्ण करने के बाद परम पावन ने कहा ः
"मेरा उत्तरदायित्व पूरा हो गया है। अब आपका उत्तरदायित्व बनता है कि इस ग्रंथ को बार बार पढ़ें तथा चन्द्रकीर्ति और बुद्धपालित के भाष्यों का अध्ययन करें।"
उन्होंने घोषणा की, कि वह कल श्वेत मंजुश्री के अभ्यास की 'अनुज्ञा' देंगे।
"जब मैं युवा था तो मैंने मंजुश्री पर ध्यान साधना की और मेरे अनुभव में यह वास्तव में चित्त की तीक्ष्णता में सुधार लाने के लिए सहायक है।"