बेसल, स्विट्जरलैंड - ७ फरवरी २०१५ - यह परम पावन दलाई लामा की मात्र दूसरी राइन पर स्थित प्राचीन यूरोपीय शहर बेसल की यात्रा है, जहाँ फ्रांस, जर्मनी और स्विट्जरलैंड की सीमाएँ िमलती हैं। ऐतिहासिक होटल, ले ट्रोइ रोइ, जहाँ वे ठहरे हुए हैं, ने जाने माने और विविध अतिथियों जैसे नेपोलियन बोनापार्ट, पाब्लो पिकासो और थियोडोर हर्ज़ की मेजबानी की है। प्रवचन स्थल के लिए रवाना होने से पहले वहाँ उन्होंने मीडिया के सदस्यों के साथ भेंट की। उन्होंने उनसे कहा:
"मैं आज ७ अरब मनुष्य में से जीवित एक हूँ। हम सामाजिक प्राणी हैं और आज सब कुछ अन्योन्याश्रित है। इसलिए हमें सम्पूर्ण मानवता के कल्याण और ग्रह के स्वास्थ्य पर विचार करना है। आप मीडिया के लोगों को पारिस्थितिकी के महत्व के बारे में बताने की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। पर्यावरण की रक्षा की जागरूकता को बढ़ावा देना मेरी अपनी प्रतिबद्धताओं में से एक है।"
"दूसरा, मैं एक बौद्ध हूँ और मैं अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। यह मात्र इच्छाधारी सोच नहीं है, यह एक यथार्थवादी संभावना है। भारत की ओर देखें जहाँ विश्व की सभी धार्मिक परम्पराएँ, वे जो स्वदेशी और जो अन्य देशों से आए हैं, शांति से एक साथ रहते हैं। आज भारत विविधता और बहुलवाद का एक जीवंत उदाहरण है।"
"तीसरा, मैं तिब्बती हूँ और तिब्बती संस्कृति के संरक्षण के लिए समर्पित हूँ।"
सभा की ओर से पहला प्रश्न सरल था, "आप कैसे हैं?" और परम पावन ने उत्तर दिया कि जब वह कल आए तो थके हुए थे। पर संध्या ५ः३० को सोने पर और प्रातः २ः३० बजे उठने पर वे ताजगी का अनुभव कर रहे हैं। यह पूछे जाने पर कि आज शिक्षा में कहाँ परिवर्तन की आवश्यकता है, उन्होंने टिप्पणी की, कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली भौतिकवादी लक्ष्यों पर केंद्रित है जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि आवश्यकता एक ऐसे पाठ्यक्रम की है, जिसमें ऐसे मानवीय मूल्यों को इस रूप में शामिल किया जाए जो सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो। उन्होंने इसी प्रकार के एक कार्यक्रम 'कॉल टु केयर' के विकास के संदर्भ में कुछ समय पहले माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट के सदस्यों के साथ हुई बैठक का उल्लेख किया।
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धार्मिक स्वतंत्रता के संदर्भ में उनसे पूछा गया कि उन्हें बाहर सड़क पर शुगदेन समर्थक प्रदर्शनकारियों को लेकर क्या कहना था। उन्होंने उत्तर दिया कि इस मुद्दे का धार्मिक स्वतंत्रता के साथ कुछ लेना देना नहीं था क्योंकि यह एक आत्मा की पूजा के संबंध में है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को केवल बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने के लिए कहा है। उन्होंने कहा कि हमें आत्माओं में शरण नहीं लेना चाहिए। इस विवाद का इतिहास १७वीं शताब्दी में ५वें दलाई लामा के समय तक जाता है। और ५वें दलाई लामा ने दोलज्ञल अथवा शुगदेन को एक दुरात्मा घोषित किया था। कई प्रमुख गेलुगपा आचार्यों ने सहमति जताई। परम पावन ने जारी रखा:
"१९५१ में, यातुंग में, विभिन्न परिस्थितियों के कारण मैंने यह अभ्यास प्रारंभ किया। पर मेरे वरिष्ठ शिक्षक इस विषय पर संशय में थे। १९७० में चूँकि मेरे मन में पहले से ही संदेह था, मैंने आगे इसकी जाँच की और पाया कि ५वें दलाई लामा ने इस अभ्यास के बारे में क्या लिखा था। यह अनुभूति करते हुए कि यह एक गलती थी, मैंने यह बंद कर दिया और अंततः लोगों को पता चल गया।"
उन्होंने समझाया कि इन प्रदर्शनकारियों ने गलत धारणा पैदा करने का प्रयास किया है, विशेष रूप से तिब्बत में, कि दलाई लामा इस अभ्यास का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि वे ञिङमापा लोगों को बढ़ावा दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह बकवास है। वे उन पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हैं, पर वे ज़ोर देते हुए यह कह रहे हैं कि वे ऐसा नहीं कर रहे, जबकि वे स्थिति की वास्तविकता नहीं जानते। उन्होंने कहा कि उनकी सलाह है कि मामले की जाँच और अच्छी तरह से करें। परम पावन ने समाप्त करते हुए कहा कि प्रदर्शनकारी स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता को काम में लाने में सक्षम हैं, जो अच्छा है। फिर भी यह उनका कर्तव्य बनता है कि वे जो जानते हों उसे साझा करें। बस यही उन्होंने किया है।
उज्ज्वल शीतकालीन धूप में परम पावन सेंट जेकबशैले से गाड़ी में रवाना हुए जहाँ वे प्रवचन देने वाले थे। द्वार पर रंग बिरंगी वेशभूषा में गाते तथा नृत्य करते तिब्बतियों ने उनका पारम्परिक रूप से स्वागत किया। सभागार के अंदर, उनके मंच पर आते ही जिसकी पृष्ठभूमि में बुद्ध, नागार्जुन और मंजुश्री को चित्रित करते विशाल थंके सज्जित थे, ७५०० की क्षमता के जनमानस ने सौहार्दपूर्ण करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया।
उन्होंने ज्ञान के महत्व पर बल देते हुए प्रारंभ किया,
"आज हमें २१वीं शताब्दी का बौद्ध होना चाहिए जो जानते हैं कि नालंदा परम्परा क्या है। जब हमने बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने के छंद का पाठ किया तो हमें जानने की आवश्यकता है कि बुद्ध क्या तथा कौन हैं। यदि हम उन कारणों और परिस्थितियों को जान लें जिसका परिणाम 'बुद्ध' में होता है, तो हम समझ जाएँगे कि 'बुद्ध' शब्द किसका प्रतीक है। इसी प्रकार धर्म मुक्ति का पथ इंगित करता है और संघ जो उसे आकार देते हैं।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि मंद बुद्धि मात्र श्रद्धा रखते हैं पर कुशाग्र बुद्धि वाले शिक्षाओं पर शोध तथा जाँच करते हैं। उन्होंने श्रद्धात्रय प्रकाश की स्तुति की पुष्पिका में जो १७ नालंदा पंडितों के गुणों का आह्वान करता है, में जो लिखा है उसे उद्धृत किया ः
"वर्तमान समय में जब साधारण विश्व में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महान प्रगति हो रही है, हम अपने व्यस्त जीवन की हलचल से उचाट हो रहे हैं, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हममें से जो बुद्ध का पालन करते हैं, उनके शिक्षण पर विश्वास ज्ञान पर आधारित होकर करें। इसलिए हमें उसके कारणों का बारीकी से विश्लेषण करते हुए एक निष्पक्ष और जिज्ञासु मन के साथ परीक्षण करना चाहिए।"
"... भारत की पवित्र भूमि के अग्रणी संतों ने अनगिनत उत्कृष्ट, सार्थक ग्रंथों की रचना की है जो विवेकशील जागरूकता रखने वालों के चक्षु खोल सकते हैं। इस अवधि में दो हजार पाँच सौ वर्षों से अधिक समय बीत चुका है, पर अब भी वे शिक्षाएँ (जो संबंधित हैं) श्रवण, मनन और ध्यान से, बिना कम हुए जीवित हैं।"
उन्होंने आगे उस स्तुति के पहले दो छंद उद्धृत किए:
"सत्य द्वय का अर्थ, जिस प्रकार वस्तुओं का अस्तित्व है,
चार सत्यों द्वारा हम सुनिश्चित करते हैं कि हम भव चक्र में किस प्रकार आते हैं व उसे छोड़ते हैं
प्रमाण द्वारा उद्भूत होकर त्रिशरण में हमारा विश्वास दृढ़ होगा
मैं मुक्ति हेतु मार्ग का मूल स्थापित करने में धन्य हो सकूँ
अकृत्रिम बोधिचित्तोत्पाद को परिष्कृत कर सकूँ
जो त्याग में आधृत है - मुक्ति की प्रणिधि
दुःख तथा उसके स्रोत का पूर्ण विशुद्धीकरण -
तथा वह असीमित करुणा जो आवागमन करते सत्वों की रक्षा की कामना करते हैं
परम पावन को स्थानीय सिटी-कैंटन सरकार के अध्यक्ष, डॉ गाय मोरिन द्वारा के सदस्यों के साथ मध्याह्न भोज के लिए आमंत्रित किया गया था। अध्यक्ष ने उनका बेसल में स्वागत किया और भोज के दौरान उन्हें बताया कि इस समय शहर में लगभग ६०० तिब्बती निवास कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि तिब्बतियों के साथ बेसल का जुड़ाव इतना पुराना है कि वे ४० वर्ष पूर्व स्कूल में अपने एक तिब्बती सहपाठी होने का स्मरण कर सकते हैं।
मध्याह्न के भोजनोपरांत नागार्जुन के 'बोधिचित्तविवरण' खोलते हुए परम पावन ने अपने श्रोताओं के बताया कि यह ग्रंथ बोधिचित्त के विकास को सांवृतिक तथा परमार्थिक दोनों रूपों में व्याख्यायित करता है। यह व्याख्या सूत्रों में पाई जाने वाली से मेल खाती है यद्यपि यह ग्रंथ स्वयं गुह्यसमाज तंत्र से लिया गया है, जो दो प्रकार के बोधिचित्तों की बात करता हैः आनंद और शून्यता और सत्य द्वय की अविभाज्यता। उन्होंने प्रथम छंद का पाठ किया जो वंदना को अभिव्यक्त करता है ः
१
"गौरवशाली श्रीवज्रधर को नमन कर
जो हैं बोधिचित्त के साकार रूप
मैं यहाँ भावना अभ्यास की व्याख्या करूँगा
उस बोधिचित्त की, जो है भवनाशक "
अगले दो छंद पाठ वर्णित करते हैं कि ग्रंथ में क्या शिक्षा दी जाने वाली है ः
२
"बुद्ध सदा बोधिचित्त बनाए रखते हैं जागरण मन बनाए रखने के
ऐसी धारणाओं द्वारा अनावृत
जैसे "आत्मा", "स्कन्ध" आदि की चेतना,
यह सदैव शून्यता से लक्षित है
३
करुणार्द्र चित्त से
प्रयत्नपूर्वक (बोधिचित्त) का विकास करें
बुद्ध जो करुणा के साकार रूप हैं
नित्य इस बोधिचित्त की भावना करते हैं।"
४ से लेकर ९ छंद तैर्थिकों के दृष्टिकोणों को चुनौती देते हैं जो प्राचीन भारत में फल फूल रही थी। इसके बाद ग्रंथ में बौद्ध विचारों की निचली परम्परा के दृष्टिकोणों पर चर्चा हुई है जिसका अंत चित्त मात्र परम्परा के आकलन से हुआ है जिसमें पाठक को सलाह दी गई है कि वह उसे शब्दशः न ले ः
२७
"'चित्त मात्रम् इदम सर्वम'
जिसकी देशना तथागत द्वारा की गई थी
वह बाल जनों के भय के निवारणार्थ दी गई थी
यह [उक्ति] नहीं है [तत्व ] की।
परम पावन ने सत्र का समापन दो छंदों से किया जो दो प्रकार के बोधिचित्त को संक्षेप में प्रस्तुत करता हैः
७२
जो शून्यता की समझ नहीं रखते
वे मोक्ष के पात्र नहीं बनते
ऐसे मूढ़ सत्व भ्रमण करते रहेंगे
षड्गति रूपी भव कारागार में
७३
जब यह शून्यता (जैसी व्याख्यायित की गई है)
इस प्रकार भावना की जाएगी योगियों द्वारा,
निस्संदेह उनमें उत्पन्न होगा
परार्थ के प्रति अनुरक्ति
७४
'उन सत्वों के प्रति जिन्होंने
पूर्व जन्मों में मुझ पर िकए हैं उपकार ,
जैसे मेरे माता पिता या बन्धु होकर
मैं उनकी दयालुता चुकाने का प्रयास करूँगा''
परम पावन ने घोषणा की, कि वे कल अवलोकितेश्वर अभिषेक के साथ बोधिचित्तोत्पाद के समारोह का संचालन करेंगे। अभिषेक ५वें दलाई लामा की गुह्य दृष्टि के संग्रह से है।
जब वह भवन से बाहर निकलने वाले थे, परम पावन ने २०० वयोवृद्ध तथा कमजोर तिब्बतियों के साथ एक छोटी बैठक की। उन्होंने उनसे कहा कि क्योंकि उन्होंने अपना जीवन दूसरों का अहित न करने तथा बोधिचित्तोत्पाद के विकास के प्रयास में लगाया था, जैसा वे स्वयं नित्य प्रति करते हैं, उन्हें आराम का अनुभव करना चाहिए। कल दिए जाने वाले अभिषेक के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की, कि तिब्बतियों के साथ अवलोकितेश्वर का एक विशिष्ट जुड़ाव है। उन्होंने आगे कहा कि यद्यपि जब तिब्बत मुक्त था तो तिब्बती आपस में झगड़ा करते थे, पर अब जिन कठिनाइयों का सामना उन्हें करना पड़ा है उसने उनमें एक दृढ़ एकता ला दी है।