ल्यूरा, ब्लू माउंटेन, न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया - ८ जून २०१५ - आज प्रातः सभी प्रवचन सभागार में बैठ गए और 'छह सत्र गुरु योग' का पाठ किया गया। परम पावन ने एक संक्षिप्त घोषणा के साथ प्रारंभ कियाः
'चूँकि गुह्यसमाज के पञ्च चरणों' का एक उत्कृष्ट अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है जो आप पढ़ सकते हैं और हममें से अधिकांश, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, इस अवस्था तक नहीं पहुँचे हैं कि परिनिष्पन्नता के इस चरण को अभ्यास में ला सकें, मैं वज्रभैरव की साधना समझाने वाला हूँ जिसका अभ्यास हमें प्रतिदिन करना चाहिए।"
उन्होंने सत्र में इसकी प्रक्रियाओं के प्रत्येक चरण का स्पष्ट विवरण दिया, यह व्याख्या जिसे वे कल जारी रखेंगे।
मध्याह्न भोजन के बाद वे पुनः गाड़ी से काटुंबा पब्लिक स्कूल गए। ब्लू माउंटेन के महापौर, मार्क ग्रीनहिल ने उनका स्वागत किया, जिन्होंने मंच पर उनका अनुरक्षण किया और भूमि के मूल मालिकों का उल्लेख करने के बाद, ३६०० से भी अधिक की संख्या के श्रोताओं से उनका परिचय करवाया। तिब्बती बच्चों के एक वृन्द ने उनकी दीर्घायु के लिए एक प्रार्थना गाई। यह पूछते हुए कि "क्या अब मेरी बारी है?" परम पावन जनमानस की ओर मुड़े।
"आदरणीय भाइयों और बहनों, मैं पुनः ऑस्ट्रेलिया में वापिस आया हूँ, पर यह पहली बार है कि मैं इस दूरस्थ स्थान पर आया हूँ। यह अत्यंत सुन्दर है, थोड़ी ठंड है, पर बहुत ही शांत है।
"मैं ७ अरब मनुष्यों में से एक हूँ। हम सब एक जैसे हैं, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और जिस पल से हम जन्म लेते हैं वह हमारा अधिकार है। इसके अतिरिक्त हमें जो स्नेह अपने बाल्यकाल में प्राप्त हुआ है उसके कारण हम सब में दूसरों के प्रति स्नेह दिखाने की क्षमता है।"
उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक प्रयोगों ने संकेत दिया है कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है। जब शिशुओं को एक दूसरे की सहायता करते, या बाधित करते लोगों की सीधी सादी तसवीरें दिखाई जाती हैं, तो वे सहायता के चित्र अधिक पसंद करते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि भय, क्रोध और घृणा के निरंतर अनुभव हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को समाप्त कर देते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि एक अधिक करुणाशील व्यवहार आंतरिक शक्ति, आत्मविश्वास और एक शांत चित्त लाता है। एक स्वस्थ चित्त हमारे शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार लाता है।
"हम सब में प्रेम व करुणा निहित है। यह मानवता के लिए आशा का एक स्रोत है और हमें इस ओर और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश मानवीय मूल्य जो हममें युवावस्था में प्रबल होते हैं, वे जब हमारी आयु बढ़ती है और हम अधिक स्वतंत्र होते हैं तो मन्द पड़ जाते हैं। हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली भौतिकवाद की ओर उन्मुख है जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए बहुत कम समय है। साधारणतया मानवीय मूल्यों के लिए लोगों ने धर्म की ओर दृष्टि डाली है, पर आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में से १ अरब लोगों की धर्म में कोई आस्था नहीं है और वे करुणा के अभ्यास को बहुत महत्व नहीं देते। इस बीच धार्मिक लोगों में कई ऐसे हैं जो निष्ठाहीन हैं इसलिए धर्म भी जिसे सहिष्णुता, सद्भाव और चित्त की शांति लाना चाहिए, संघर्ष का स्रोत बन सकता है।
"आंतरिक मूल्यों को विकसित करने का उपयुक्त तरीका अब धर्मनिरपेक्ष नैतिकता विकसित करना हो सकता है। मेरे कुछ मित्र धर्मनिरपेक्ष शब्द को लेकर सावधान रहते हैं, पर भारतीय व्याख्या के अनुसार यह धर्म से दूर की बात नहीं है अपितु सभी धार्मिक परंपराओं के लिए और यहाँ तक कि जिनकी कोई आस्था नहीं है उन लोगों के विचारों के प्रति भी एक सम्मान रखना है।
"जहाँ आंतरिक मूल्यों का अभाव है तो वे चाहे कितने ही धनी या शक्तिशाली क्यों न हों, वह परिवार सुखी न होगा। जहाँ वे इतने धनी नहीं पर प्रेम और उदारता से भरे हुए हैं, वहाँ परिवार आनन्दमय होगा। सुख का असली स्रोत सौहार्दता है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि सबसे बड़ा उपहार जो मनुष्य के पास है वह मुस्कारने की क्षमता है। अन्य, एक मानव मस्तिष्क है। उन्होंने कहा कि यह निश्चित करने के लिए कि वास्तव में वह क्या है जो हमारे अल्प और दीर्घ कालीन हित में है, हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता है।
"स्वयं से पूछें, 'क्रोध का मूल्य क्या है?' , कुछ भी नहीं। क्रोध हमारे चित्त की शांति को नष्ट करता है, मैत्री को नष्ट करता है और सुखी परिवारों को नष्ट करता है। दूसरी ओर प्रेम व दया यह सुनिश्चित करते हुए कि हमारा शरीर स्वस्थ हो तथा चित्त सुखी हो, बहुत लाभकारी हैं। दूसरों के प्रति चिंता विश्वास जनित करता है जो मैत्री का वास्तविक स्रोत है। और मैत्री महत्वपूर्ण है क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं। हम अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर हैं।
"आज मानवता जिन समस्याओं का सामना कर रही है वे हमारे अपने द्वारा निर्मित हैं। कोई भी समस्याओं का पीछा नहीं करता पर फिर भी हम स्वयं के लिए समस्याएँ पैदा करते हैं। हम अपनी विनाशकारी भावनाओं के दास बन जाते हैं, इसलिए समाधान ढूँढने का उत्तरदायित्व हमारे स्वयं के कंधों पर टिका है।
"हमारी एक वैश्वीकृत दुनिया है। जलवायु परिवर्तन हम सभी को प्रभावित करता है, कोई भी इससे छुप नहीं सकता। वैश्विक अर्थव्यवस्था का अर्थ है कि हमें अन्य लोगों को अपने एक वैश्विक परिवार के सदस्यों के रूप में सोचने की आवश्यकता है। यही कारण है कि हमें सामान्य ज्ञान और आम अनुभव पर आधारित मानवीय मूल्यों को अपनी शिक्षा प्रणाली में शामिल करने की आवश्यकता है।"
परम पावन ने प्यार की भावना तथा दूसरों के प्रति चिंता के विकास के लिए साधारण प्रशिक्षण के सकारात्मक परिणामों के वैज्ञानिक प्रमाणों पर टिप्पणी की। एक परीक्षण में तीन सप्ताह के लिए प्रत्येक दिन आधे घंटे के लिए प्रेम और करुणा में प्रशिक्षण से पहले प्रतिभागियों के रक्तचाप, तनाव और अन्य कारकों की जाँच की गई। अंत में उनका रक्तचाप और तनाव के स्तर कम थे और उनके अपने साथियों के साथ संबंधों में सुधार हुआ। परिणामस्वरूप, ऐसा प्रतीत होता है कि यदि हम एक बेहतर विश्व देखना चाहते हैं, तो हममें से हर एक का अपने परिवार, समुदाय और राष्ट्रों को और अधिक करुणाशील बनाने का उत्तरदायित्व बनता है।
परम पावन ने कहा कि अपने जीवनकाल में वह इस तरह का परिवर्तन देखने की आशा नहीं रखते। पर जो आज युवा हैं, जो २१वीं शताब्दी से संबंध रखते हैं, उनके पास परिवर्तन लाने का एक अवसर है। उन्हें एक दृष्टि की आवश्यकता होगी और उन्हें अभी प्रांरभ करने की आवश्यकता है।
अपना व्याख्यान समाप्त कर परम पावन ने जनसमुदाय से पूछा:
"यदि आप मुझे एक मित्र के रूप में देखते हैं, तो मैंने जो कहा है उस पर सोचें और स्वयं से पूछें कि इस विश्व को एक बेहतर स्थान बनाने में आप किस प्रकार योगदान दे सकते हैं।"
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए, परम पावन ने धार्मिक परम्पराओं के सांस्कृतिक पक्षों का संदर्भ दिया, जो उनके धार्मिक और दार्शनिक पक्षों के विपरीत है, जो तारीख से बाहर हो चुका है और परिवर्तन की आवश्यकता रखता है। उन्होंने बुद्ध द्वारा पुरुष और महिलाओं को आध्यात्मिक विकास में संलग्न रहने के समान अवसर दिए जाने परन्तु फिर भी भिक्षुओं को वरिष्ठता दिए जाने का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि वे इसमें परिवर्तन देखना चाहेंगे, पर इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध समुदाय की सहमति की आवश्यकता होगी।
क्षमा के संदर्भ में उन्होंने नमज्ञल विहार के एक वयोवृद्ध भिक्षु का कथा सुनाई, जिसने १९५९ के बाद १८ वर्ष तिब्बत में कारागार में बिताए थे। १९८० में छूटने पर वह भारत आया और परम पावन को उससे बातें करने का अवसर प्राप्त हुआ। जब भिक्षु ने टिप्पणी की, कि उसे कई बार बड़े संकट का अनुभव हुआ, परम पावन ने सोचा कि उसका अर्थ था कि उसका जीवन संकट में था। भिक्षु ने स्पष्ट किया कि उसे बंदी बनाने वालों के प्रति करुणा खोने का संकट था।
"यह", परम पावन ने कहा, "वास्तविक अभ्यास है। यह सच्ची क्षमा का रूप था।"
उन्होंने कर्म से कर्ता के अंतर करने के महत्व को संकेतित किया। कर्म गलत हो सकता है, पर कर्ता दूसरा मनुष्य बना रहता है।
एक दो प्रश्न, अभिभावकों और बच्चों के बीच के संबंधों पर थे और परम पावन ने कहा कि उनके पास कोई उत्तर नहीं था, क्योंकि उनके कोई बच्चे न थे और न कोई अनुभव था। यद्यपि, उन्होंने स्मरण किया कि उनके अपने पिता सौहार्दपूर्ण थे पर काफी क्रोधी थे, जबकि उनका माँ इतनी दयालु थीं कि उनके बच्चों ने उन्हें कभी क्रोधित नहीं देखा। वह सोच रहे थे कि यदि उनके बच्चे होते तो अपने माता पिता में से वे किन पर गए होते।
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें किसी बात का पछतावा था, उन्होंने उत्तर दिया कि जब वे बच्चे थे तो आलसी थे और अध्ययन को लेकर अनिच्छुक थे। उन्होंने कहा कि अब वह पछताते हैं कि जब वह अध्ययन कर सकते थे, तब उन्होंने नहीं किया और समय कभी नहीं लौटेगा। उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ लड़ने और उनके चेहरे पर खरोंच के निशान छोड़ने का भी स्मरण किया और अब उन्हें पछतावा है कि वे अब जीवित नहीं हैं।
जब एक माँ ने पूछा कि वह ऐसे पति के साथ किस प्रकार निपटे, जो रोज़ उनके बच्चों के सामने क्रोधित होता है, तो उन्होंने एक तिब्बती उक्ति उद्धृत की, कि आप नौ बार गिर सकते हो, पर आप को नौ बार फिर प्रयास करना चाहिए। उन्होंने उसे स्थिति को शांत करने का प्रयास करने की सलाह, पर कहा कि यदि ऐसा नहीं किया जा सकता, तो शायद उसे पति को छोड़ने पर विचार करना चाहिए।
बच्चों को किस प्रकार क्षमा की सिखाई जाए, के संबंध में परम पावन ने भावनाओं के मानचित्र की आवश्यकता की बात की। उन्होंने सुझाया कि वास्तव में यह सीखने के लिए कि किस प्रकार भावनाओं के साथ निपटा जाए, हमें और अधिक अच्छी समझ की आवश्यकता है कि वे किस प्रकार कार्य करते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि इस विषय में प्राचीन भारतीय और बौद्ध मनोविज्ञान बहुत कुछ सिखा सकते हैं और उन्होंने सिफारिश की, कि भारत में किस प्रकार प्राचीन तथा आधुनिक ज्ञान साथ साथ काम कर सकते हैं।
आईएसआईएस द्वारा प्रस्तुत चुनौती के संबंध में उन्होंने सूचित किया कि, भारतीय मुसलमान मित्रों ने उन्हें बताया है कि इस्लाम का सच्चा अभ्यासी खून नहीं बहाता। इसके अतिरिक्त जिहाद शब्द का संदर्भ दूसरों से लड़ना नहीं, पर अपने अंदर के विनाशकारी भावनाओं का मुकाबला करना है। आईएसआईएस के संदर्भ में उन्होंने घोषणा की कि इस संबंध में हम उदासीन नहीं रह सकते, हमें कुछ करना होगा, पर हमें याद रखना होगा कि इसके सदस्य भी मनुष्य हैं। उन्होंने एक अवसर की बात की जब उन्हें उत्तरी आयरलैंड के दोनों पक्षों के पीड़ितों से मिलने के लिए आमंत्रित किया गया था। जब उन्होंने कमरे में प्रवेश किया तो वातावरण तनावपूर्ण था और उनके चेहरे के भाव गंभीर थे। उन्होंने उनसे बात की और शनैः शनैः उनके भावों में नरमी आई और अंततः कमरे के वातावरण में तनाव की अनुभूति कम हुई। उन्होंने टिप्पणी की कि, अब उत्पन्न होने वाले धार्मिक संघर्षों के कई मामले अतीत की भूलों के लक्षण हैं।
अंत में उन्होंने पूछा, "यदि आपका जन्म किसी अवांछनीय स्थान पर हुआ हो तो क्या आप तब भी प्रगति कर सकते हैं?" उत्तर में उन्होंने प्रथम दलाई लामा की कहानी सुनाई, जो एक महान विद्वान होने के साथ साथ और एक महान अभ्यासी भी थे। जब वे अपनी आयु के ८०वें दशक में पहुँचे तो उन्होंने अपने वयोवृद्ध होने को लेकर कुछ दुख व्यक्त किया। उनके शिष्यों ने उत्तर दिया कि उन्हें चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि संभवतः उनका जन्म किसी स्वर्ग या विशुद्ध क्षेत्र में होगा। वे वहाँ जन्म लेना चाहते थे जहाँ लोग पीड़ित थे ताकि वे उनकी सहायता कर सकें। परम पावन ने कहा कि इस कहानी का उनके चित्त पर गहन प्रभाव पड़ा और उन्होंने वह प्रार्थना दोहराई जो उन्हें अत्यंत प्रिय है ः
जब तक आकाश की स्थिति है
जब तक संसार की स्थिति है
तब तक मैं भी बना रहूँ
जगत के दुःखों को मिटाने हेतु
जब वह मंच से निकलने के लिए तैयार हो रहे थे, तो श्रोताओं ने स्नेह से उनके आने वाले ८०वें जन्मदिन के सम्मान में 'हैप्पी बर्थडे टू यू' गाया।