ऊपरी भट्टू, हिमाचल प्रदेश, भारत ,१२ मार्च, २०१५ - आज प्रातः पालपुंग शेरबलिंग विहार के लुंगरिग जमफेल लिंग संस्थान जाते हुए परम पावन दलाई लामा ने पहले श्रमणेरियों के एकांतवास केन्द्र तत्पश्चात नारो साधना केन्द्र, जहाँ श्रमणेर एकांतवास में हैं, का दौरा किया। दोनों ही स्थानों पर उन्होंने संक्षिप्त पवित्रीकरण प्रार्थना का पाठ किया। ताई सीतु रिनपोछे के साथ नवनिर्मित लुंगरिग जमफेल लिंग संस्थान पहुँचने पर परम पावन ने द्वार पर फीता काटा और सीधे सभागार के पिछवाड़े गए जहाँ उन्होंने मरपा लोकचक्षु, मंजुश्री, बुद्ध शाक्यमुनि, गुरु रिनपोछे और सीतु पंचेन छोकी जुंगने की मूर्तियों के समक्ष पवित्रीकरण पदों का पाठ किया।
आसन ग्रहण करने के उपरांत उन्होंने कहाः
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"कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है, मानो बौद्ध बुद्ध को ऐसा मानते हैं कि वह एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर है जो अनुचित है। हम जिसके लिए आभारी हैं वह यह कि उन्होंने धर्मता को प्रकट कर मुक्ति का पथ सिखाया। अतः आज प्रातः दीर्घायु अभिषेक के पूर्व मैं उनकी देशनाओं के विषय पर कुछ कहना चाहूँगा। बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं, न ही जगत के दुःखंो को अपने हाथों से हटाते हैं, न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थानान्तरण करते हैं, वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्ति की ओर उन्मुख करते हैं।"
परम पावन ने समझाया कि उन्हें अमितायुस दीर्घायु अभिषेक के लिए आवश्यक तैयारी अनुष्ठान करने के लिए अल्पावधि की आवश्यकता है और उन्होंने वहाँ एकत्रित सभी लोगों से, जब वे तैयारी कर रहे हों उस दौरान, अमितायुस मंत्र का पाठ करने को कहा। जब उन्होंने पुनः प्रवचन प्रारंभ किया तो उन्होंने अनुमानित ९००० दर्शकों, जिनमें २५०० स्कूली बच्चे शामिल थे, को बताया कि बुद्ध की प्रमुख ऋद्धि उनकी देशना थी जिसके माध्यम से उन्होंने अज्ञान के अंधकार को दूर किया। परम पावन ने ध्यानाकर्षित किया कि इस देशना की एक अनूठी विशेषता यह है कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि उन्होंने जो कुछ कहा, वे स्वयं उसकी जाँच करें और उसे तभी स्वीकार करें जब वे उसे अपने तर्कानुसार पाएँ।
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संस्कृत परंपरा के अनुयायी, जैसे कि नालंदा विश्वविद्यालय के पंडित ने शब्दशः बुद्ध के कथन का पालन किया, उनकी देशनाओं का परीक्षण किया और घोषित किया कि जहाँ कुछ नीतार्थ वाले थे, अन्य नेयार्थ थे। एक उदाहरण बुद्ध की एक व्याख्या है कि पञ्च मनोवैज्ञानिक शारीरिक स्कंध एक बोझ के समान हैं, जबकि व्यक्ति वह है जो बोझ को ढो रहा है, जो व्यक्ति को एक ठोस अस्तित्व देता प्रतीत होता है। दूसरी ओर बुद्ध की देशनाओं के तीन पिटकों को तीन अधिशिक्षा, शील, समाधि और प्रज्ञा से जोड़ना होगा जो पालि और संस्कृत परम्पराओं दोनों में आम है। परम पावन ने टिप्पणी की कि प्रज्ञापारमिता शिक्षाओं का उसी प्रकार का ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है क्योंकि वे सार्वजनिक रूप से नहीं दी गईं थीं।
उन्होंने सुझाया कि बुद्ध की प्रथम देशना, चार आर्य सत्य और प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग सारनाथ में दिए गए थे जो शिक्षा का एक केन्द्र जान पड़ता था। बाद में तक्षशिला, विक्रमशील और सबसे अधिक विख्यात नालंदा विश्वविद्यालयों के रूप में शिक्षा के और औपचारिक स्थान उभरे। नालंदा के पंडित न केवल शीर्ष विद्वान थे पर उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में लिखा जिसके कारण हम आज भी उनके िवषय में जानते हैं। भारत में वे अपनी स्वयं की स्थिति पर बल देते, उनके विपक्षियों के विचारों का खंडन करते और फिर किसी पुनर्तर्क का उत्तर देते। जहाँ नागार्जुन और उनके शिष्यों ने शून्यता की समझ वाली प्रज्ञा और प्रतीत्य समुत्पाद के विषय पर लिखा, असंग और उनके अनुयायियों ने उपाय कौशल को समझाया। शांतरक्षित शिक्षा के दोनों पक्षों को तिब्बत लेकर आए।
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यह देखने के लिए कि तिब्बती किस प्रकार अपने विनय का
पालन करते हैं, उन्होंने प्रथम सात तिब्बतियों को दीक्षा देकर विनय का
परिचय कराया। वो बहुत प्रसन्न हुए। परम पावन ने समझाया कि
मूलसर्वास्तिवादिन भिक्षुणी दीक्षा नहीं लाई गई, क्योंकि दीक्षा प्रदान
करने के लिए भिक्षुणियों की आवश्यकता होती है और तिब्बत में कोई भिक्षुणी
नहीं आई थी। फिर भी तिब्बत तीन वर्ग के संवर धारण किए लोगों से प्रतिष्ठित
थाः व्यक्तिगत मुक्ति, बोधिसत्व और तांत्रिक संवर।
"२१वीं शताब्दी के प्रारंभ में हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि
आज जीवित ७ अरब मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं", परम पावन ने टिप्पणी की। "हम
जिस समाज में रहते हैं उस पर निर्भर रहते हैं। इसलिए हमें सेवा और एक दूसरे
की सहायता करने की आवश्यकता है। हम सभी को मानवता के कल्याण के लिए
उत्तरदायित्व उठाने की जरूरत है। आज हम जिन कई समस्याओं का सामना कर रहे
हैं वह हमारी स्वनिर्मित हैं। वे इसलिए उत्पन्न होती हैं क्योंकि हमारे
चित्त अनुशासित नहीं हैं। शिक्षा व्यापक है, परन्तु आधुनिक शिक्षा मात्र
भौतिक प्रगति की ओर केंद्रित होती प्रतीत होती है।"
"अतीत में धार्मिक लोगों ने केवल एक सच्चा धर्म, जो एक सत्य की शिक्षा
देता है, के संदर्भ में शिक्षा दी होगी। परन्तु आज यह स्पष्ट है कि हमारे
पास कई धर्म हैं जो सत्य के कई पहलुओं को प्रकट करते हैं। पर फिर भी ऐसे
लोग हैं जो अपनी आस्था के लिए दूसरों की हत्या कर रहे हैं, यह अनुचित है।"
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"हमारी अपनी स्वयं की परम्परा में, हाल के दिनों में, जमयंग खेनचे
वंगपो ने एक खुले दिमाग से गैर सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाया। मेरे अपने
शिक्षक दिलगो खेनचे रिनपोछे ने भी ऐसा किया था। मेरे शिक्षकों में एक अन्य
ठुलशिक रिनपोछे गैर सांप्रदायिक और विनय के एक ईमानदार अभ्यासी थे। हमें इस
प्रकार के उदाहरणों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।"
परम पावन ने तिब्बती भाषा के महत्व की बात की, जिसकी अपनी लिपि है और
जो सम्प्रति नालंदा परंपरा को व्यक्त करने का सबसे शुद्ध साधन है। उन्होंने
बल देते हुए कहा कि परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि धार्मिक ग्रंथों को मात्र
श्रद्धा की वस्तुओं के रूप में देखा जाए, वे खोलने तथा पढ़ने के लिए होती
हैं। उन्होंने कहा कि ज्ञान ही हमें हमारी चुनौतियों का सामना करने में
सहायता करेगा।"
उसके बाद परम पावन ने अतीश के 'बोधिपथ प्रदीप' का त्वरित पाठ संचरण
किया जिसके बाद उन्होंने अमितायुस का दीर्घायु अभिषेक प्रदत्त किया जो
उन्होंने कहा कि उन्हें अपने शिक्षक तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी, जब वे
अल्पायु के थे। अभिषेक के दौरान उन्होंने एकत्रित जनमानस को
बोधिचित्तोत्पाद की ओर उन्मुख किया। जब अभिषेक प्रदान पूर्ण हुआ तो
उन्होंने टिप्पणी की ः
"प्रातः जैसे ही आप उठें बोधिचित्त के विषय में सोचें। दिन के दौरान
उसे स्मरण रखने का प्रयास करें। जब आप शाम को सोने जाएँ तो पुनः बोधिचित्त
के विषय में सोचें। इसमें प्रयास लगता है, पर यदि आप यह करेंगें तो क्रमशः
आप बोधिचित्त की भावना का विकास कर पाएँगे जो और बढ़ेगा और अंततः अनायास
उत्पन्न होगा। जैसा कि 'बोधिपथ प्रदीप' ने अभी स्पष्ट किया है, चित्त
परिवर्तन के लिए धर्म के एक व्यापक समझ की आवश्यकता होती है, न कि मात्र
कुछ मूल निर्देशों का निकट रूप से परिचय।"
चूँकि अभी भी परम पावन के िलए दीर्घायु समर्पण की योजना शेष थी,
उन्होंने पूछा कि इसमें कितना समय लगेगा और उन्हें आश्वस्त किया गया कि वह
समय रहते श्रमणों के दोपहर के भोजन से पूर्व समाप्त हो जाएगा। ताई सीतु
रिनपोछे ने एक स्पष्ट, दृढ़ स्वर में उनसे दीर्घ काल तक बने रहने का
औपचारिक अनुरोध किया।
मध्याह्न भोजनोपरांत जब परम पावन वसंत की धूप में धर्मशाला के लिए
गाड़ी से लौटे तो ताई सीतु रिनपोछे, जमगोन कोंगटुल रिनपोछे और तिब्बतियों
तथा हिमालय क्षेत्र के एक विशाल जनमानस ने परम पावन को विदा दी। गंगचेन
क्यीशोंग के समीप से उनके निवास के फाटक तक अधिकांश तिब्बतियों की
मुस्कुराती भीड़ उन्हें अपने घर स्नेह भरा स्वागत देने हेतु पंक्तिबद्ध थी