धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत - ५ मार्च २०१५ - चूँकि यह प्रथम तिब्बती मास का १५वाँ दिन था, पूर्णिमा का दिन, आज भोर तड़के ही परम पावन दलाई लामा थेगछेन छोलिंग चुगलगखंग, में द्विमासिक पोषध के लिए एकत्रित भिक्षुओं तथा भिक्षुणिओं के साथ सम्मिलित हुए। लगभग ८ बजे उन्हें मंदिर के समक्ष के प्रागंण तक आनुष्ठानिक स्वर्णिम छत्र के नीचे अनुरक्षित किया गया। जबकि अधिकांश भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ ऊपर मंदिर में ऊपर में थे, वे जहाँ वीडियो फ़ीड पर कार्यवाही देख सकते थे, वहीं मंदिर का प्रांगण साधारण जन मानस तिब्बतियों और विश्व के कई भागों के आगंतुकों से खचाखच भरा हुआ था।
बुद्ध, मैत्रेय, नागार्जुन, अतीश और वंशज गुरुओं के प्रति वंदना छंदों के पाठ के पश्चात परम पावन ने प्रारंभ िकया ः
"बौद्ध शिक्षा को बौद्धाभ्यास बनने के लिए," परम पावन ने सलाह दी, "कि हमें एक अच्छी प्रेरणा के विकास की आवश्यकता है, जैसे कि सभी सत्वों की सहायतार्थ प्रबुद्धता प्राप्त करने की। ऐसी प्रेरणा से हमारी प्रार्थना व मंत्र पाठ तथा जो कुछ भी अन्य करें, वह एक बौद्धाभ्यास हो जाएगा। आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में हम शिक्षा को बहुत अधिक मूल्य देते हैं। बौद्ध होने के नाते हमें उत्सुक और सशंयी होने की आवश्यकता है। हमें बुद्धि और तार्किक विश्लेषण की आवश्यकता है। उस आधार पर हमारी आस्था कारण पर आधारित होगी और हम भव चक्र से मुक्त होने तथा अन्य सत्वों की सहायता के लिए प्रबुद्धता की इच्छा का विकास करेंगे।"
परम पावन ने बुद्ध को उद्धृत करते हुए कहा कि उनके अनुयायी उनके शब्दों के उसी रूप में न लें क्योंकि वे उनके वचन हैं । उन्हें जाँचना चाहिए तथा उनकी शिक्षाओं का विश्लेषण करना चाहिए ,जिस प्रकार एक स्वर्णकार स्वर्ण का परीक्षण करता है । परम पावन ने बताया कि जहाँ महान लोगों ने अन्य धार्मिक परंपराओं की स्थापना की ,पर उनमें से किसी ने भी अपने अनुयायियों को उनके शिक्षण पर प्रश्न करने और सत्यापित करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जिस प्रकार बुद्ध ने किया था ।
परम पावन ने टिप्पणी की ,कि तिब्बती बौद्ध धर्म अपने समग्र रूप में नालंदा परम्परा का अंग है, जिस प्रकार पर्वतों में झरना एक नदी का स्रोत होता है, नालंदा तिब्बत में बौद्ध धर्म का स्रोत था। उन्होंने कहा कि तिब्बत में सभी बौद्ध परम्पराएँ, और यहाँ तक कि आज बोन परम्परा भी नालंदा तक पहुँचती हैं। उन्होंने कहा कि तिब्बती मात्र नाम पर नहीं, अपितु नालंदा विश्वविद्यालय के महान आचार्यों के ग्रंथों का गहनता से अध्ययन और तुलना कर इसका अनुपालन करते हैं। चूँकि तिब्बती आचार्यों ने बाद में सिद्धांतों की पुस्तकों का संकलन किया, तिब्बती इन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों में अच्छी तरह दक्ष हो गए।
"हमें परीक्षण करना होगा कि क्या कोई निर्देश लाभकर है और यदि हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह सहायक है, तो उसका विकास करें" उन्होंने सलाह दी। "धर्म ऐसा कुछ है जो हमें दुख से बचाता है, ऐसा कुछ जो हमें दुख से दूर रखता है। इसमें ऐसे सुधारात्मक उपाय निहित हैं जो हमें अपने अंदर परिवर्तन लाने हेतु प्रभावी हो सकते हैं।"
उन्होंने समझाया कि एक मनुष्य के रूप में हममें चित्त है जो हमें चिंतन करने में सक्षम करता है। पशु अधिकतर अपनी पांच इंद्रियों पर निर्भर रहते हैं, पर अधिक नहीं सोचते, जबकि आज तंत्रिका वैज्ञानिक सुझाते हैं कि हम अभी तक मानव मस्तिष्क की क्षमता का पता लगाने से बहुत दूर हैं। दूसरी ओर यह हमारे विरुद्ध कार्य कर सकती है। परम पावन ने ऐसे लोगों के उदाहरण दिए जिनसे वे मिले हैं, जिनके पास भौतिक स्तर पर वे जो कुछ चाहते हैं वह सब कुछ है ,पर फिर भी वे दुखी रहते हैं। पशु यदि संकट स्पष्ट न हो तो अधिक शांत रहते हैं मनुष्यों की तुलना में, जो पूर्वाग्रहों और अनुमानों में उलझे होते हैं जो उनके चित्त की शांति को भंग करता है। उन्होंने सुझाव दिया कि इसके बजाय हम सुख निर्मित करने के िलए अपनी अद्भुत क्षमता का उपयोग करें।
सामाजिक प्राणी के रूप में हमें जन्म से जीवित करने के लिए प्रेम तथा स्नेह की आवश्यकता पड़ती है। हम अन्योन्याश्रित हैं, हम जीवन भर दूसरों पर आश्रित रहते हैं। यदि हम दूसरों के प्रति प्रेम तथा स्नेह दिखाएँ तो हम अपनी सहायता करते हैं। ईमानदारी और सहृदयता विश्वास लाती है और विश्वास मित्र लाते हैं।
"हमारी सभी धार्मिक परंपराएँ", परम पावन ने कहा, "प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और आत्म अनुशासन सिखाते हैं। मेरे कई ईसाई, मुसलमान, यहूदी और हिंदू मित्र हैं जो दूसरों की सहायता करने और संतुष्टि में रहने के लिए समर्पित हैं। इस संबंध में उनके विचार समानता रखते हैं ,जबकि अपने दार्शनिक दृष्टिकोणों में वे मतभेद रखते हैं। मैं इस विचार की सराहना करता हूँ कि ईश्वर, जो अनंत प्रेम का प्रतीक है, द्वारा सृजित होने के कारण, हममें स्वयं दूसरों के प्रति प्रेम जताने की एक चिंगारी है, एक प्रेरणा है। दूसरी तरफ बुद्ध ने कहा कि जो हमारे साथ होता है, वह हम पर निर्भर है। यदि हम दूसरों की सहायता करते हैं, तो हम सुख का निर्माण करते हैं। यदि हम नुकसान पहुँचाते हैं तो परिणाम दुख है।"
परम पावन ने चार आर्य सत्यों के १६ गुणों और प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग पर चर्चा की। उन्होंने समाप्त करते हुए कहा कि बौद्ध दार्शनिक दृष्टिकोण को प्रतीत्य समुत्पाद के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है जबकि बौद्धाचरण अहिंसा है, नुकसान करने से बचना। इसकी समझ के लिए अध्ययन की आवश्यकता है।
महान प्रार्थना महोत्सव के दौरान जातक गाथाओं का पठन कल तीसवीं गाथा पर पहुंच गया था। आज परम पावन ने इकत्तीसवें से पढ़ा, जिसका संबंध एक राजकुमार से था जो अत्यंत साहस से एक बुरे सत्व पर काबू पाता है। इसका अंत राजा, राजकुमार के पिता के इस समापन के साथ ,कि उसके पुत्र में राज्य पर शासन करने के लिए दूसरों के प्रति अपेक्षित स्पष्टता, विनम्रता और करुणा थी और उसे उसके उत्तराधिकारी के रूप में पुष्ट करते हुए हुआ।
तत्पश्चात परम पावन ने एक जाने माने छंद के साथ बोधिचित्तोत्पाद के लिए एक लघु अनुष्ठान में सभा की अगुआई की ः
"मैं जब तक प्रबुद्धता प्राप्ति न हो
शरणागत होता हूँ बुद्ध, धर्म और परम संघ में
मेरे तथा अन्यों के पुण्य संभार के कारण
सभी सत्वों के कल्याणार्थ प्रबुद्धता प्राप्त कर पाऊँ।"
समापन में उन्होंने टिप्पणी कीः
"जिस प्रकार जीवित रहने हेतु हम भोजन तथा जल पर निर्भर रहते हैं, हमें बुद्ध बनने के लिए बोधिचित्त का स्मरण करना चाहिए। यदि आप इस छंद का पाठ नियमित रूप से करें तो यह आपकी चर्या को प्रभावी बनाएगी।"
"आप में से जो तिब्बत से आए हैं, अन्य जो अभी भी वहाँ हैं और चीनी बौद्ध, स्मरण रखें कि शाक्यमुनि बुद्ध, अवलोकितेश्वर, तारा, गुरु रिनपोछे और उनके िलए सप्तांग प्रार्थना, इक्कीस तारा स्तुति और प्रतीत्य समुत्पाद ःजे चोंखापा द्वारा बुद्ध की स्तुति" के मंत्रों का पाठ अच्छा होगा।
परिणामना की औपचारिक प्रार्थनाओं के पाठ हुए और परम पावन अपने निवास लौटे।