धर्मशाला, हि. प्र., भारत, २७ मई २०१५ - आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा टिब्बटेन चिल्डर्न्स विलेज (टी सी वी) विद्यालय पहुँचे तो उनका पारंपरिक तिब्बती रूप से स्वागत किया गया। महिला छात्राओं के एक बड़े समूह ने एक पारम्परिक स्वागत गीत गाया। जब परम पावन अपनी मोटर गाड़ी से मंच की ओर चले तो जिन पर भी उनकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने उनका अभिनन्दन किया। लगभग ४५०० छात्र जो ऊपरी तथा निचले टी सी वी विद्यालय, गोपालपुर, सुजा और चौंतड़ा टीसीवी, शेरब गछेल लोबलिंग, विभिन्न विश्वविद्यालयों और सीटीए के शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित एक टीचर ट्रेनिंग में भाग लेने अपर टीसीवी में आए हुए अध्यापक, वे बास्केटबॉल कोर्ट में बने एक शामियाने में बैठे थे।
परम पावन के आसन ग्रहण करते ही गृहस्थों के कई दलों ने मंच के समक्ष तीन प्रकार के ज्ञान, बोधिचित्तोत्पाद के दो उपाय, त्रिरत्न की परिभाषा तथा चार आर्य सत्यों इत्यादि पर चर्चा करते हुए अनुकरणीय शास्त्रार्थ प्रस्तुत किए।
"आज, विभिन्न स्थानों से लोग बौद्ध धर्म का परिचय सुनने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं," परम पावन ने प्रारंभ किया। "यह नौवां अवसर है जब हमने ऐसा किया है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह अभी तक का सबसे बड़ा है। विभिन्न विद्यालयों के छात्रों और शिक्षकों, आप सब को मेरा अभिनन्दन - टाशी देलेग। मैं विशेष रूप से उनका अभिनन्दन करना चाहता हूँ जिन्होंने हमारे समक्ष शास्त्रार्थ किया है और उन्हें तर्क और दर्शन में रुचि लेने के लिए बधाई देता हूँ।
"अतीत में तिब्बत में गृहस्थ समुदाय या फिर भिक्षुणियों में से भी कोई शास्त्रार्थ नहीं करते थे। यह हमारी कमियों में से एक था। ५६ वर्ष के हमारे निर्वासन में मैंने लोगों से आग्रह किया है, ऐसे विहारों और भिक्षुणी विहारों में भी जहाँ अध्ययन की कोई परंपरा न थी, कि वे इसे प्रारंभ करें । फेंदे लेगशे लिंग नमज्ञल विहार एक उदाहरण हैं। जब ७वें दलाई लामा द्वारा यह स्थापित किया गया तब उन्होंने शलु महाविहार के भिक्षुओं से नए विहार के भिक्षुओं को अनुष्ठान करने हेतु प्रशिक्षण देने के लिए कहा। ग्युमे और ग्युतो जैसे तांत्रिक महाविहारों की तरह वे सिद्ध थे परन्तु उन्होंने किसी प्रकार के अध्ययन का अनुसरण नहीं किया था। उसमें परिवर्तन आ गया है। इसी प्रकार भिक्षुणी विहारों में अध्ययन इस स्तर तक सफल हो गया है कि शीघ्र ही हमारी ऐसी भिक्षुणियाँ होंगी जो गेशे या गेशेमा बन गई हैं।"
उन्होंने कहा कि उत्कृष्ट नालंदा परम्परा तिब्बत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली थी परन्तु अधिकंाश लोगों ने इसकी उचित सराहना नहीं की। यह ऐसी परम्परा है जो मात्र ग्रंथ के उद्धरण पर नहीं अपितु परीक्षण तथा विश्लेषण पर आधारित है। उन्होंने बुद्ध द्वारा अपने अनुयायियों को दी गई सलाह का उदाहरण दिया, कि जो शिक्षा उन्होंने दी वे उसे उसी रूप में स्वीकार न करें पर उसका परीक्षण एक सुनार की तरह करें जो स्वर्ण के मूल्य को लेकर स्वयं को संतुष्ट करता है।
परम पावन ने टिप्पणी की कि नालंदा परम्परा में समझाया गया मनोविज्ञान और दर्शन समकालीन विद्वानों और वैज्ञानिकों के लिए बहुत रुचि रखता है। वे इस बात की पूछताछ के लिए कि क्या इसका तार्किक पक्ष अन्य शैक्षणिक विषयों पर लागू किया जा सकता है, पर्याप्त रूप से प्रभावित हैं। उनका मानना है कि ऐसा हो सकता है। उन्होंने उल्लेख किया कि जहाँ बौद्ध परम्परा ४९ या ५१ चैतसिक की पहचान कर सकती है, अमरीकी मनोवैज्ञानिक पॉल एकमैन ने चेहरे के भावों को लेकर व्यापक शोध किया है जिससे वे १५ की पहचान कर सकते हैं।
जब ४० वर्ष पूर्व परम पावन आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद प्रारंभ करने की बात सोच रहे थे, तो एक पाश्चात्य बौद्ध मित्र ने उन्हें सावधान रहने के लिए सचेत किया कि, विज्ञान धर्म का हत्यारा है। उन्होंने इस पर ध्यान से सोचा और इस निर्णय पर पहुँचे कि तर्क पर आधारित परम्परा के कारण बौद्ध धर्म इस संकेट की चपेट में नहीं था। वह आगे बढ़े और उन्हें विश्वास है कि परिणाम पारस्परिक रूप से लाभप्रद रहे हैं। इसका एक परिणाम यह है कि दक्षिण भारत में पुनः स्थापित महाविहारों में भिक्षु अब अपने पाठ्यक्रम के भाग के रूप में विज्ञान का अध्ययन करते हैं।
"जब अप्रैल १९५९ में मैं मसूरी पहुँचा, तो आप में से अधिकांश का जन्म नहीं हुआ था। अब मैं अपने ८१ वें वर्ष में हूँ और मैं निश्चित रूप से अगले ८० वर्षों तक जीवित नहीं रहूँगा, मेरे वर्तमान शारीरिक स्वास्थ्य को देखते हुए मैं एक औऱ १० या २० वर्ष तक जीवित रह सकता हूँ। आप तिब्बतियों को जो आज युवा हैं, हमारे धर्म और संस्कृति के संरक्षण का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लेना होगा। तिब्बत में हमारे भाई और बहनें ऐसा करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। हमारे पास जो इस प्रकार की स्वतंत्रता है हमें इसका प्रयोग करना होगा।
"अतीत में तिब्बत में परिस्थितियाँ परिवर्तन के लिए परिपक्व थीं," परम पावन ने कहा। "पीछे मुड़कर देखें तो मैं देख सकता हूँ कि कई चीजों को अलग ढंग से किया जा सकता था। १३वें दलाई लामा ने तिब्बत के विभिन्न भागों के बीच संबंधों को सशक्त बनाने का प्रयास किया क्योंकि देश राजनीतिक रूप से खंडित था। पर जिसने सभी तिब्बतियों को बाँध कर रखा वह उनकी बौद्ध संस्कृति, कांग्यूर और तेंग्यूर के अध्ययन के लिए उनका सम्मान था। यह हिमालय और मंगोलियाई क्षेत्रों के लिए भी सच था।"
परम पावन ने स्पष्ट किया कि आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में से प्रत्येक सुख चाहता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि बोधिसत्व आदर्श अपने सुख को त्यागने को लेकर नहीं है अपितु दूसरों के सुख को प्राथमिकता देने के बारे में है।
"पर" उन्होंने पूछा, "यदि आप स्वयं की सहायता नहीं कर सकते तो दूसरों की सहायता कैसे कर सकते हैं?" हम प्रार्थना करते हैं कि सभी प्राणी दुख से मुक्त हों, पर उस प्रार्थना को पूरा करने के लिए हमें इस विषय पर कुछ करने की आवश्यकता है।"
हाल ही में आर्चबिशप डेसमंड टूटू, जिन्होंने टीसीवी की यात्रा की थी, के साथ हुई अपनी चर्चा की बात करते हुए उन्होंने कहा, कि उनका निष्कर्ष था कि हमें बिना हिंसा के सुख को खोजने की आवश्यकता है, जिसका प्रयास सभी कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट है कि यदि मानवता सुखी है, तो हममें से प्रत्येक सुखी होगा। उन्होंने दोहराया कि मनुष्य के रूप में हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं, हम सब में दयालु और स्नेही होने की क्षमता है। उन्होंने एक बौद्ध भिक्षु के रूप में विश्व की धार्मिक परंपराओं के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता के विषय पर भी बात की।
अंत में, परम पावन ने तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की बात की जो न केवल तिब्बतियों के लिए बल्कि संभवतः एशिया के अन्य १ अरब लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण है, जो तिब्बत से निकली नदियों के पानी पर निर्भर हैं।
उन्होंने तिब्बती संस्कृति, जो शांति और अहिंसा की संस्कृति है और जो व्यापक विश्व में एक सकारात्मक योगदान दे सकती है, के संरक्षण के प्रति भी अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने एक पूर्व तिब्बती अधिकारी की कहानी सुनाई जो अमरीका का नागरिक बन चुका था और विश्वविद्यालय के रसोई घर में सब्जियों की सफाई का कार्य करता था। उसके सहकर्मियों ने देखा कि वह अत्यंत सावधानी से सब्जियों पर पाए जाने वाले कीड़ों और कीटाणुओं को अलग से रखते हुए उनका बचाव कर रहा था और अपने कार्य के अंत में बाहर ले जाकर उन्हें छोड़ रहा था। उन्होंने उससे पूछा कि वह क्या कर रहा है और उसने उत्तर दिया कि तिब्बतियों का प्रयास रहता है कि वे छोटे जीव की हत्या न करें बल्कि जहाँ कहीं भी संभव हो जीवन की रक्षा करें। इसके कुछ ही समय बाद उसने देखा कि उनमें से कई उसके उदाहरण का पालन कर रहे थे। परम पावन ने समापन कियाः
"मैंने तिब्बत की पारिस्थितिकी और उसके करुणाशील अहिंसक संस्कृति के संरक्षण के लिए जो बन पड़ा वह किया है। अब मैं यह उत्तरदायित्व आप पर सौंप रहा हूँ।"
उन्होंने घोषणा की कि वे कल बौद्ध धर्म का और आगे परिचय देंगे। वे बोधिचित्तोत्पाद समारोह का भी नेतृत्व करेंगे और छात्रों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए समय निकालेंगे। परसों वे अवलोकितेश्वर का अभिषेक प्रदान करेंगे।