रीगा, लातविया - ५ मई २०१४ - बाल्टिक सागर से आई एक तूफानी हवा ने ठंड को और अधिक कर दिया, जब परम पावन दलाई लामा का किपसला अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी केन्द्र के द्वार पर स्वागत किया गया और मंच तक पहुँचाया गया। सभी आयु के लगभग ३५०० लोग, कुछ लातविया से, पर अधिकांश रूस के यूरोपीय भाग से उन्हें सुनने के लिए गंभीरता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
"चूँकि आपने हमारी बैठक में रुचि दिखाई है और मेरे लिए इस समय रूस की यात्रा करना संभव नहीं, मुझे लगा कि आपके लिए भारत आने से सरल हमारे िलए यहाँ मिलना होगा" उन्होंने कहा। "मैंने स्थानीय आयोजकों से पूछा था कि क्या ऐसा किया जा सकता है और इसकी व्यवस्था करने के लिए मैं उनका आभारी हूँ। इससे भी अधिक आप सब की ओर से यहाँ आने के प्रयास के लिए मैं आप सभी का धन्यवाद करना चाहता हूँ।"
उन्होंने कहा कि जिस ग्रंथ पर वे प्रवचन देना चाहते थे, वे थे हृदय सूत्र, जो कि एक लघु प्रज्ञापारमिता का ग्रंथ है जिसका पाठ सभी महायान बौद्ध देशों, चीन, कोरिया, जापान, वियतनाम, तिब्बत और मंगोलिया में किया जाता है, यद्यपि जो इनका पाठ करते हैं वो सदा उसका अर्थ समझ नहीं पाते। दूसरा ग्रंथ एक तिब्बती विद्वान तथा अभ्यासी, थोगमे संगपो द्वारा रचित 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' का है। परम पावन ने सुझाव दिया कि प्रत्येक सत्र के अंत में श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देने का समय होना चाहिए।
फिर उन्होंने पालि में बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने का मंत्र का पाठ किया और उसके पश्चात अपने मित्र भारतीय भिक्षु तेनजिन प्रियदर्शी से मधुर संस्कृत में 'हृदय सूत्र' का पाठ करने का अनुरोध किया। उसके बाद उन्होंने स्थानीय लोगों को संभवतः लातविया की भाषा लेटिश में हाल ही में हुए अनुवाद में फिर इसका पाठ करने के लिए आमंत्रित किया।
परम पावन ने प्रश्न रखा कि आज के विश्व में धर्म या आध्यात्मिकता की क्या प्रासंगिकता है और यह समझाते हुए उत्तर दिया कि आध्यात्मिकता का संबंध आंतरिक मूल्यों और इस तरह आंतरिक शांति से है। उन्होंने कहा:
"यदि भौतिक और तकनीकी विकास पूर्ण शांति और सुख लेकर आया तो विकसित देशों को सही अर्थो में सुखी होना चाहिए, फिर भी कई ऐसे नहीं हैं। भौतिक विकास शारीरिक सुख प्रदान करता है पर मानसिक शांति नहीं। हम एक संवेदी स्तर पर पीड़ा और आनंद का अनुभव कर सकते हैं, जैसे हमें किसी खेल देखने और मधुर संगीत सुनने से प्राप्त होता है, वह अपेक्षाकृत अल्प कालीन होता है, जबकि मानसिक स्तर का संतोष, उदाहरण के िलए, प्रेम और विश्वास, जो हमारी इंद्रियों पर निर्भर नहीं होते, वे अधिक स्थिर होता है।"
उन्होंने कहा कि जहाँ शारीरिक पीड़ा मानसिक संतुष्टि से कम की जा सकती है, पर मानसिक व्याकुलता शारीरिक सुविधाओं से शांत नहीं की जा सकती। यदि हम चिंतित, तनाव से भरे अथवा भयभीत हैं तो एक सुंदर घर होने या मधुर संगीत सुनना बहुत कम राहत लाता है। एक व्यग्र चित्त मात्र भौतिक संतुष्टि से शांत नहीं होता। जिस तरह के अंतर की ओर वह ध्यानाकर्षित करने का प्रयास कर रहे थे उसके एक उदाहरण के रूप में, परम पावन ने मोंटेसेराट के एक विहार के ईसाई भिक्षु से हुई भेंट का स्मरण किया जिसने पहाड़ों पर एकांतवास करते हुए एक सन्यासी के रूप में मात्र चाय और ब्रेड पर अपना जीवन बिताया था। जब परम पावन ने उसके अभ्यास के विषय में उससे पूछा तो उसने कहा कि वह प्रेम पर भावना कर रहा था। जब वह बता रहा था तो परम पावन ने उसकी आँखों में एक चमक देखी जो उसके अत्यधिक संतोष का संकेत दे रही थी।
"दूसरी ओर मैं अरबपतियों से मिला हूँ जिनके पास उन्हें जो कुछ चाहिए वह, और उससे अधिक है पर वे बहुत दुखी हैं। वैज्ञानिकों के पास ऐसे निष्कर्ष हैं जो स्पष्ट करते हैं कि एक शांत चित्त हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। उनके पास यह भी प्रमाण है कि मानसिक प्रशिक्षण हमारे व्यवहार में परिवर्तन ला सकता है और हमें अधिक सुखी करने में सक्षम कर सकता है। हमारी मानव बुद्धि, सुख का एक स्रोत हो सकती है, पर यदि उसका दुरुपयोग किया जाए तो वह तनाव और चिंता का एक स्रोत भी हो सकती है।"
उन्होंने कहा कि केवल मनुष्य धार्मिक आस्था का विकास करते हैं। इस तरह का विश्वास संभवतः सूर्य की पूजा के साथ प्रारंभ हुआ होगा, पर समय के साथ भगवान, सृजनकर्ता का विचार उभरा और उसके साथ यह विचार कि चूँकि सब कुछ उसके द्वारा निर्मित है तो सभी में ईश्वर का प्रकाश है। सभी धर्म प्रेम और करुणा का संदेश देते हैं और चूँकि घृणा इस में एक बाधा है, वे सहिष्णुता और धैर्य सिखाते हैं। और क्योंकि लोभ भी एक बाधा है, वे सादगी और संतोष की शिक्षा देते हैं। गैर आस्तिक परंपराएँ जैसे सांख्य, जैन और बौद्ध, एक निर्माता की ओर न देखते हुए कार्य - कारण की शिक्षा देते हैं, कारण और फल का सिद्धांत जो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समान है।
इसके अतिरिक्त, बौद्ध धर्म की एक अनूठी विशेषता है। वह यह सिखाता है कि एक स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना सभी प्रकार के विरोधाभासों को मानना है। जर्मन मस्तिष्क विशेषज्ञ वुल्फ सिंगर ने परम पावन को बताया कि मस्तिष्क में कोई केंद्रीय सत्ता जो उनके अनुसार एक स्वतंत्र आत्मा के विचार के साथ मेल खाती है।
परम पावन ने दोहराया कि चूँकि सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम, करुणा और आत्म - अनुशासन सिखाती है अतः उन्होंने मानवता की बहुत सहायता की है। पर एक परंपरा हर किसी को संतुष्ट नहीं कर सकती, इसलिए विविधता की आवश्यकता है। यदि हम एक धार्मिक या आध्यात्मिक अभ्यास को अपनाने के लिए चुनते हैं तो उन्होंने कहा कि हमें ऐसा गंभीरता और ईमानदारी से करना चाहिए। उन्होंने आगे कहा:
"मैं एक बौद्ध हूँ पर मैं जहाँ भी जाता हूँ धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की हमारी आवश्यकता के विषय में बोलता हूँ। नैतिकता आंतरिक मूल्यों को जन्म देती है जो आत्मविश्वास को प्रोत्साहित कर हमें एक सार्थक जीवन जीने के लिए हमें सक्षम करती है।"
आज हर स्थान पर पाई जाने वाली दो प्रमुख चिंता, धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई और आंतरिक भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए उन्होंने श्रोताओं से हाथ ऊपर उठाकर संकेत करने के लिए कहा कि वे जहाँ रहते हैं वहाँ ये समस्याएँ बड़ी अथवा छोटी थी। उठे हुए हाथों की संख्या ने इंगित किया ये दो प्रमुख समस्याएँ हैं जिन्हें हमें स्वीकार करना है। परम पावन ने सुझाया कि जहाँ हिंसा का प्रयोग अल्पकालिक संतोष प्रदान करता हुआ प्रतीत हो सकता है पर यह कभी समस्या का समाधान नहीं कर सकता बल्कि नई खड़ी करता है। उन्होंने बल दिया कि पिछली शताब्दी के विपरीत इस शताब्दी को संवाद का युग होना चाहिए।
श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर देते हुए परम पावन ने सलाह दी कि शिक्षकों को केवल ज्ञान के संप्रेषण तक ही सीमित न रहना चाहिए अपितु एक नैतिक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चािहए। इस बीच यह आवश्यक है कि माता पिता अपने बच्चों पर स्नेह बरसाएँ। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि हर िकसी की धार्मिक अभ्यास में रुचि नहीं होती, पर कोई भी प्रेम और करुणा के बारे में सलाह दिए जाने पर आपत्ति नहीं उठा सकता। उन्होंने बौद्ध परंपरा की एक अनूठी विशेषता पर भी प्रकाश डाला जो कि बुद्ध की अपनी सलाह है कि उन्होंने जो भी शिक्षा दी उसे जाँच और प्रयोग के बाद ही स्वीकार किया जाए, मात्र श्रद्धा के कारण नहीं। परम पावन इसकी तुलना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करते हैं।
मध्याह्न के भोजन से लौटने के पश्चात परम पावन, बौद्ध परंपरा और कैसे बुद्ध के कुछ समय बाद आपत्तियाँ उठायी गयी कि संस्कृत परंपरा, महायान, उनकी शिक्षाएँ नहीं थी, के विषय पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि नागार्जुन, भावविवेक, मैत्रेय और शांतिदेव सभी ने उसके बचाव में लिखा। पालि परंपरा ने उन शिक्षाओं का लेखा रखा है जो बुद्ध ने सार्वजिनक रूप से दी थी, जबकि प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ जिसमें 'हृदय सूत्र' शािमल हैं एक विशिष्ट श्रोताओं को दी गई थी। एक ओर वे सार्वजनिक रूप से नहीं सिखाई गयी थी; दूसरी ओर उनका विषय स्पष्ट करता है कि वे बुद्ध की शिक्षाएँ हैं। वे बुद्धधर्म की गहनता को स्पष्ट करती है। चार आर्य सत्य की देशना पालि परंपरा का अंग है, पर उनकी विस्तृत व्याख्या संस्कृत परंपरा का भाग है। यह कहना एक त्रुटि होगी कि बुद्ध की प्रस्तुति सीमित थी पर उनके अनुयायियों की अधिक व्यापक थी।
भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास स्पष्ट करते हुए परम पावन ने तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशील के महान विश्वविद्यालयों उल्लेख किया। अपने पीछे लगाए चित्र की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि बुद्ध के निकट दर्शाया गए १७ आचार्य न केवल भिक्षु थे, पर साथ ही वे महान विद्वान और तर्क शास्त्री थे। वे तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावादी के रूप में संदर्भित नहीं करते, जैसा कुछ लेखकों ने वर्णन किया है पर वे उसे एक विशुद्ध नालंदा परंपरा का रूप मानते हैं।
कुछ स्थानों में बुद्ध ने पांच मनोवैज्ञानिक शारीरिक स्कंधों को व्यक्ति द्वारा ढोए जा रहे एक बोझ की की तरह संदर्भित िकया, मानो व्यक्ति स्कंधों से पृथक है। पर कहीं ओर वे कहते हैं कि स्कंधों से अलग कोई व्यक्ति नहीं है। बाद में भारतीय विद्वानों ने व्यापक रूप से तर्क और ज्ञान - मीमांसा के विषय पर लिखा जिसमें शांतरक्षित और उनके शिष्य कमलशील शामिल थे, जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। परिणाम स्वरूप सक्या पंडित जैसे विद्वानों ने तर्क और कारणों के साथ शिक्षाओं का परीक्षण किया।
"चीनी और तिब्बती दोनों बौद्ध परंपराएँ नालंदा परंपरा से आई है। ६ वर्ष की आयु से मैंने इस तरह अध्ययन प्रारंभ किया, एक ऐसी अवस्था जिसमें मैं खेलना अधिक पसंद करता", परम पावन ने स्मरण किया। "और मेरे सीमित अनुभव से मैं देख पाया हूँ कि शून्यता और परोपकार की समझ चित्त की शांति लाता है ।"
प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं के पूर्ण संग्रह में १००,०००, २५,०००, १८,०००, और ८,००० पंक्तियों के संस्करण, १०० पंक्तियों का 'वज्रच्छेदिका सूत्र' जो चीन में लोकप्रिय है और यह २५ पंक्तियों का 'हृदय सूत्र' शामिल हैं। परम पावन ने टिप्पणी की कि बुद्ध ने ऐसी शिक्षाओं में मार्ग को स्पष्ट किया है, पर उन्हें अभ्यास में लाने पर ही लाभ होगा। उन्होंने कहा कि कुछ अर्थों में बुद्ध की तुलना एक वैज्ञानिक के साथ की जा सकती है।
'हृदय सूत्र' का अध्ययन करते हुए परम पावन ने कहा वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भरता होकर अस्तित्व में आती है, इसलिए वे स्वतंत्र रूप से अस्तित्व नहीं रखती। शून्यता वस्तुओं को शून्य नहीं करती, धर्म अपने आप में शून्य हैं, चँूकि उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उन्होंने कारण तथा प्रभाव के बीच परस्पर आश्रितता का संदर्भ दिया, कि कुछ एक कारण मात्र इसलिए है कि उसका एक प्रभाव है। 'हृदय सूत्र' दिखाता है कि स्वतंत्र अस्तित्व मायोपम है, यह कहते हुए कि 'रूप शून्यता है और शून्यता रूप है'। शून्यता रूप का एक गुण है तथा रूप शून्यता के गुण का आधार है। जब आप रूप को खोजते हैं तो आपको शून्यता मिलती है। यही आंतरिक अस्तित्व की ग्राह्यता को कम करता है। उन्होंने टिप्पणी की कि चेतना भी शून्य है और उल्लेख किया कि हमारी नकारात्मक भावनाओं को कम करने में शून्यता पर ध्यान प्रभावशाली है, यह मात्र एक बौद्धिक व्यायाम नहीं है। नकारात्मक भावनाएँ चित्त की प्रकृति नहीं हैं, वे उसके आलोक को कलंकित नहीं करती।
श्रोतागणों के प्रश्नों का पुनः उत्तर देते हुए, परम पावन से पूछा गया कि मास्को में प्रस्तावित बौद्ध मंदिर का कार्य क्या है। उन्होंने कहा कि उन्होंने आयोजन समिति के सदस्यों से भेंट की थी और बताया था कि यह एक शिक्षा केंद्र, अध्ययन करने का स्थान होना चाहिए। उन्होंने बौद्ध विज्ञान, दर्शन और धर्म के संदर्भ में बौद्ध साहित्य के अपने पुनर्मूल्यांकन उल्लेख किया। बौद्ध विज्ञान और दर्शन सार्वभौमिक हित के लिए हो सकता है जबकि धार्मिक भाग केवल बौद्धों के लिए है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि बौद्ध विज्ञान से संबंधित एक पुस्तक तैयार की गई है और इसका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। उन्होंने प्रस्तावित किया है कि रूसी उनमें से एक हो।