नई दिल्ली, भारत - २० सितंबर २०१४ - आज प्रातः 'भारत में विद्यमान विविध आध्यात्मिक परंपराओं का सम्मेलन' के लिए घोषित किए गए समय के बहुत पहले ही इस कार्यक्रम की मेज़बानी कर रहे परम पावन दलाई लामा जैसे जैसे प्रत्येक प्रतिनिधि का आगमन हुआ वे उनके स्वागत के लिए सभागार के द्वार पर उपस्थित थे।
एक तैयार िकया गया वक्तव्य, जो सभी प्रतिभागियों को दिया गया था, उन्होंने समझाया कि उन्होंने उन्हें क्यों आमंत्रित किया था। "सभी आध्यात्मिक परम्परा के अनुयायी अपने अपने ढंग से विश्व के सत्वों को पीड़ित करने वाले सभी क्लेशों से उबारने और उनके जीवन में सुख लाने का प्रयास करते हैं। परन्तु यह और अधिक उचित होगा यदि हम इस तरह की आकांक्षाओं को पूर्ण करने हेतु मिलकर कार्य करें।"
जब नौ आध्यात्मिक परम्पराओं के प्रतिनिधियों ने मंच पर अपना स्थान ग्रहण कर लिया तो पूर्व राजनयिक ललित मानसिंह ने कार्यवाही का प्रारंभ किया। उन्होंने अत्यंत सौहार्दता से परम पावन, मुख्य अतिथि, दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग और सभी प्रतिनिधियों का स्वागत किया। उन्होंने कई ऐसे विषयों का उदाहरण दिया, जिस पर आध्यात्मिक नेताओं और प्रतिनिधियों की इस प्रकार की महान सभा चर्चा कर सकती है जैसे कि धर्म के नाम पर हो रही हिंसा, जलवायु परिवर्तन और विश्व में कई सहस्र परमाणु हथियारों के अस्तित्व की निरन्तरता। उन्होंने परम पावन को दीप प्रज्ज्वलन के साथ कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया तथा अपने सहयोगियों को भी इस में उनका साथ देने के लिए आमंत्रित किया।
आयोजन समिति के अध्यक्ष, प्रोफेसर समदोंग रिनपोछे ने सभा को संबोधित किया। उन्होंने इस ओर ध्यानाकर्षण किया कि विज्ञान और तकनीकी विकास के संदर्भ में बहुत विकास हुआ है। परन्तु विश्व में हिंसा का सतत बना रहना तथा प्राकृतिक पर्यावरण की क्षति जैसे कारण ऐसे थे जिन्होंने परम पावन दलाई लामा को इस सम्मेलन के आयोजन के लिए प्रेरित किया।
तत्पश्चात एक रंगीला संगीत का कार्यक्रम हुआ, जिसमें टिब्बटेन इंस्टिट्यूट ऑफ द परफोर्मिंग आर्ट्स के सदस्यों ने अंतर्धार्मिक सद्भाव का एक गीत प्रस्तुत किया, जिसकी रचना विशेष रूप से इस अवसर हेतु की गई थी।
इसके बाद नौ धर्मों के प्रतिनिधियों को एक प्रार्थना के पाठ या संदेश सुनाने करने का अवसर प्रदान किया गया। यहूदी धर्म के लिए ईजेकील ऐज़ाक मालेकर ने यहूदी और अंग्रेज़ी भाषा में २३वां भजन प्रस्तुत किया, दादी मिस्त्री ने दो लघु पारसी प्रार्थना का पाठ किया। सुश्री नाजनीन रोहानी ने बहाई शास्त्र से एक लघु पाठ किया और प्रतिनिधियों को आश्वस्त किया कि उनका संघ उन सब का अपनी प्रार्थना में स्मरण करेगा। सिख धर्म प्रोफेसर मंजीत सिंह ने पंजाबी में एक प्रार्थना सुनाई। परम आदरणीय गदेन ठिपा रिज़ोंग रिनपोछे ने अपना लघु बौद्ध संदेश एक बोधिचित्त समर्पण के साथ किया ः
'परम बोधिचित्त रत्न
वहाँ उत्पन्न हो, जहाँ अभी तक उत्पन्न न हो
जहाँ इसका उद्भव हुआ हो, वहाँ कम न हो
और उत्तरोत्तर वृद्धि हो। '
आचार्य महाश्रमण ने एक जैन प्रार्थना की और महामहिम ओसवाल्ड कार्डिनल ग्रेसियस ने अपना धर्म उपदेश सेंट फ्रांसिस की ईसाई प्रार्थना के साथ किया, जिसका मुखड़ा है "हे प्रभु, मुझे अपनी शांति का एक साधन बना ..." इस्लाम के शैखुनि मशेइख देवब सैयद ज़ैनुल अबेदिन अली खान ने मशविरा दिया: "अच्छा कार्य करते हुए अच्छे बनो।" अंत में, स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती ने अपने संदेश द्वारा सूचित किया कि शंकराचार्य, जो उनके गुरु हैं, ने प्रतिनिधियों को सलाह दी है कि किस प्रकार पानी और अनाज सभी के लिए आम आवश्यकताएँ हैं।
तत्पश्चात ललित मानसिंह ने परम पावन को अपना मुख्य भाषण देने के लिए आमंत्रित किया और उन्होंने प्रारंभ किया:
"आध्यात्मिक भाइयों और बहनों, मैं वास्तव में इस बात की सराहना करता हूँ कि आप में से कइयों ने मेरे निमंत्रण को स्वीकार किया और हमारे साथ इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए हैं। आप सब को आने के लिए धन्यवाद।"
"मैं कइयों के बीच मात्र एक मनुष्य हूँ। हम मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं, हममें से प्रत्येक अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर है। यहाँ तक कि बुद्ध भी अपनी भिक्षा के लिए माँगने पर निर्भर थे। जैसा मैं कहता हूँ, कि मैं जहाँ भी जाता हूँ मात्र स्वयं को एक मानव के रूप में सोच पाता हूँ। मैं अपने आप को एक तिब्बती, एक बौद्ध या कोई विशिष्ट, जैसे परम पावन दलाई लामा की तरह नहीं सोचता। हम सभी मनुष्य शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से एक समान हैं। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और हमें ऐसा करने का अधिकार है। पर फिर भी कई समस्याएँ जिनका हम सामना कर रहे हैं, वे हमारी अपनी निर्मित हैं। क्यों? क्योंकि हम मात्र स्वयं के विषय में सोचते हैं और दूसरों की उपेक्षा करते हैं।"
"यदि हम दूसरों को अपने मानव भाई और बहनों के रूप में सोचें तो झगड़े या एक दूसरे की हत्या के लिए कोई स्थान न रह जाएगा। हमें स्मरण रहेगा कि वह व्यक्ति भी जिसे हम अपना दुश्मन मानते हैं, एक और इंसान है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी बुद्धि को सौहार्दता द्वारा निर्देशित होने की आवश्यकता है।"
उन्होंने कहा कि चूँकि कुछ अनुमानों के अनुसार २०वीं सदी में हिंसा और रक्तपात के कारण २०० करोड़ लोगों की मृत्यु हो गई, अतः यह महत्वपूर्ण है कि इसके स्थान पर यह शताब्दी शांति की हो। हमें संवाद के माध्यम से संघर्ष का समाधान करना सीखना होगा, जिसका आधार दूसरों के प्रति कल्याण की भावना है। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि यदि आपमें सौहार्दता है तो आप, आपका परिवार और आपके पड़ोसी सुखी, भय और क्रोध से मुक्त होंगे। इस प्रकार की धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार उन १ अरब लोगों के लिए भी रुचिकर हो सकता है जो किसी भी आध्यात्मिक परम्परा में विश्वास नहीं रखते।
विश्व के सभी प्रमुख आध्यात्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा का संदेश संप्रेषित करती हैं और इसी कारण से उनसे संबंधित लोगों को हम आध्यात्मिक भाई और बहनों के रूप में देख सकते हैं। परन्तु परम पावन ने कहा कि इन दिनों हम बार बार धर्म के नाम पर हो रहे संघर्ष के विषय में सुनते हैं। यह अत्यंत शोचनीय है। यह विचार कि लोग धर्म के नाम पर दूसरों की हत्या कर रहे हैं, अकल्पनीय है।
"भारत मात्र ऐसा देश है जहाँ सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ साथ साथ रहती हैं और ऐसा उन्होंने १००० वर्षों से अधिक समय से किया है। यह एक ऐसा उदाहरण है जिससे विश्व के अन्य भाग सीख सकते हैं। और कई कारणों के साथ यह एक ऐसा कारण है जिसके लिए मैंने यह सम्मेलन बुलाई।"
जब परम पावन के बाद मुख्य अतिथि, नजीब जंग को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने कहा कि यह उसी प्रकार की चुनौती थी जैसी १८८३ में शिकागो में विश्व धर्म संसद को संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानन्द को अनुभव करनी पड़ी थी। उन्होंने स्वामी को उद्धृत किया:
"मैं ऐसे धर्म से जुड़े होने पर गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने विश्व को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी है। हम न केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास करते हैं, पर हम सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे राष्ट्र से संबंधित होने का गर्व है जिसने सभी धर्मों के सताए और शरणार्थियों और पृथ्वी के सभी देशों की जातियों को शरण दिया है।" उन्होंने एक आम प्रार्थना के साथ समाप्त िकयाः
"जैसे कि विभिन्न स्रोतों से आईं विभिन्न धाराओं को जो विभिन्न वासना वाले मनुष्य अपनाते हैं, यद्यपि वे अलग अलग से जान पड़ते हैं, टेढ़े अथवा सीधे, सभी तुम तक ले जाते हैं।"
मुख्य अतिथि ने आगे समझाते हुए कहा कि सांप्रदायिकता और कट्टरता अस्तित्व में हैं, पर उन पर काबू पाने की आवश्यकता है। और यदि ऐसा नहीं किया गया तो उन्होंने चेतावनी दी कि उसके परिणामस्वरूप आपदा हिरोशिमा के विनाश से भी बुरा हो सकता है। उन्होंने टिप्पणी की, कि सभी धर्मों के सन्तों ने अलग अलग ढंग से अपने अनुभवों का वर्णन किया है और यही अन्य धर्मों की अच्छाई की बात करने का कारण बनता है। उन्होंने पुनः स्वामी विवेकानंद का विस्तृत उद्धरण दिया ः
"क्या मैं यह इच्छा करता हूँ कि ईसाई हिंदू बन जाएगा? ईश्वर न करे। क्या मैं यह इच्छा करता हूँ कि हिन्दू या बौद्ध ईसाई बन जाएगा? ईश्वर न करे। बीज को धरती में डाल दिया जाता है, और पृथ्वी और हवा और पानी को इसके चारों ओर रखा जाता है। क्या बीज पृथ्वी, या हवा, या पानी बन जाता है? नहीं, यह एक पौधा बनता है। वह अपने स्वयं के विकास के नियम के अनुसार विकसित होता है, वायु, पृथ्वी, और पानी को आत्मसात कर उन्हें पौधे की वस्तु के रूप में परिवर्तित करता है और पौधे के रूप में विकसित होता है।"
धर्म के विषय में भी इसी प्रकार होता है। ईसाई को हिन्दू अथवा बौद्ध नहीं बनना है, न ही एक हिंदू या बौद्ध को ईसाई बनना है। पर प्रत्येक को दूसरों की भावना को आत्मसात करना चाहिए पर साथ ही अपने व्यक्तित्व का संरक्षण करना चाहिए तथा अपने विकास के नियम के अनुकूल बढ़ना चाहिए।"
जैसे ही उद्घाटन समारोह का समापन हुआ, परम पावन ने प्रतिभागियों को स्मृति चिन्ह वितरित किए और वे सब एक सामूहिक तस्वीर के लिए एक साथ एकत्रित हुए।
मध्याह्न के भोजनोपरान्त प्रथम विस्तृत सत्र के प्रमुख विषय 'अंतर्धार्मिक समझ और मानवीय मूल्य' की अध्यक्षता मीड़िया संचालक कर्मा पालजोर ने की, जिन्होंने गोपालकृष्ण गांधी से चर्चा प्रारंभ करने का अनुरोध किया। उन्होंने पहले तीन विभिन्न मामलों का उदाहरण दिया, १९३१ में कानपुर, कुछ वर्षों बाद अहमदाबाद में और १९४७ में कलकत्ता, जहाँ व्यक्तियों ने हिंसक भीड़ के बीच हस्तक्षेप किया। उनकी मृत्यु हो गई पर उन्होंने कइयों को बचाया। उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि वे प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक या धार्मिक थे, पर इसलिए कि वे सही अर्थों में अच्छे मानव थे। श्री गांधी ने कहा कि उनके उदाहरण हमें धार्मिक संस्थाओं से नैतिकता को बचाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्होंने कहा कि धार्मिक संस्थाओं का कार्य धार्मिक सद्भाव नहीं है, क्योंकि यह भारत के आम लोग हैं जो उनके धार्मिक नेताओं के बजाय स्वयं सांप्रदायिक और धार्मिक सद्भाव बनाए रखते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि महात्मा गांधी के गुणों में से एक, न केवल आधारभूत मानव शालीनता की पहचान, पर उसका साकार रूप थी।
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पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने सुझाया कि संघर्ष उस समय होता है जब हम केवल अपने स्वार्थ के विषय में, स्वयं के हित के बारे में सोचते हैं, जब हम स्वयं को वस्तुओं के केंद्र में देखते हैं। उन्होंने कहा कि यदि हम इस तरह के एक संकीर्ण दृष्टिकोण से विमुख हो जाएँ और दूसरों को अपनी तरह देखें तो प्रभावशाली परिवर्तन होगा। मौलाना वहीदुद्दीन खान ने कहा कि यदि मेरे और आपके धर्म के बीच अंतर है तो हमें उसे प्रबंधित करने समायोजित करने का प्रयास करना चाहिए। अंतर, संवाद तथा चर्चा का बिन्दु बनता है, जो फिर बौद्धिक विकास को उद्दीप्त करता है। उन्होंने यह भी स्मरण किया कि जब पैगंबर मदीना में थे तो उन्होंने एक यहूदी के प्रति सम्मान जताया और जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, उन्होंने उत्तर दिया कि "क्या वह एक इंसान नहीं है?"
पॉल दिनकरन ने कहा कि जहाँ तक उन्होंने देखा है भारत एकमात्र देश है जहाँ सभी आध्यात्मिक परंपराओं के प्रति सम्मान जताया जाता है और समग्रता का पोषण होता है। उन्होंने एक धनवान लड़की की कहानी सुनाई, जिसने मदर टेरेसा की सहायता करने की इच्छा जताई। माँ ने एक नए आए कोढ़ी को राहत देने और पट्टी बाँधने को कहा। लड़की यह नहीं कर पाई तो मदर टेरेसा ने यह कहते हुए िकया कि वह कल्पना करती हैं कि वे ईसा मसीह के घाव पर मरहम पट्टी कर रही हैं। कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्ति श्री रवींद्र कीर्ति ने दोहराया कि विभिन्न मार्गों का अनुसरण करते हुए हम एक ही निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं, पर ऐसा करने के िलए केवल अपने धर्म को ही श्रेष्ठ न मानते हुए भाईचारे की भावना की आवश्यकता है।
शैखुनि मशेइख देवब सैयद ज़ैनुल अबेदिन अली खान मे स्पष्ट किया यदि एक बच्चों का समूह अस्पताल में इलाज के लिए रक्त की प्रतीक्षा कर रहा है तो आप सिख, हिंदू या मुस्लिम रक्त नहीं माँगते, शर्त मात्र उचित रक्त वर्ग की होती है। उन्होंने सलाह दी कि जो हम नहीं दे सकते वह ले नहीं सकते, चूँकि हम जीवन दे नहीं सकते, हमें उसे लेना भी नहीं चाहिए। जब उन्होंने बोलना समाप्त किया तो स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द अपने स्थान से उठकर मंच पर आए और अपनी प्रशंसा के प्रतीक स्वरूप एक पुष्प भेंट किया।
लोचेन रिनपोछे ने बल दिया कि सद्भाव के बिना विश्व शांति एक मिथक बनकर रह जाएगी। पर साथ ही उन्हें लगा कि यह सम्मेलन इतिहास को आकार देने का एक अवसर प्रदान कर रहा है। डॉ शरनाज़ कामा ने याद किया कि उन्हें बचपन में सिखाया गया था कि सुख उन लोगों के पास आता है जो दूसरों को सुख देते हैं। यद्यपि आजकल सुख को अधिक से अधिक भौतिक चीज़ों के साथ संबद्ध किया जा रहा है, उन्होंने टिप्पणी की।
इसके पूर्व कि पूरी सभा चार चर्चा समूहों में विभाजित हो तथा चाय का अंतराल हो सभा ने पैनल के समक्ष कई प्रश्न रखे। परम पावन दलाई लामा ने आज दो समूहों के साथ समय बिताया और अधिकतर उनके उत्साहपूर्ण बातों को सुनते रहे।
कल सम्मेलन का 'पर्यावरण, शिक्षा और समाज' विषय पर दूसरा विस्तृत सत्र जारी रहेगा और तीसरे सत्र में सामूहिक रिपोर्टों का प्रस्तुतिकरण होगा।