इस बात का संकेत देते हुए कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण की समस्याएँ और वैश्विक अर्थव्यवस्था सभी हमें साथ मिलकार काम करने की ओर इंगित करते हैं, परम पावन ने संपूर्ण मानवता पर ध्यान केंद्रित करने के महत्व पर बल दिया। यही कारण है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिकता की भावना को शामिल किया जाना चाहिए। एक सार्वभौमिक अपील को बनाए रखने के क्रम में, इस तरह की नैतिकता कोे एक धर्मनिरपेक्ष आधार की आवश्यकता है। उन्होंने भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान का उदाहरण दिया जो कि धर्म को नकारने से कहीं दूर सभी धर्मों के प्रति सम्मान व्यक्त करता है और उनके प्रति भी जो किसी भी धर्म का चयन नहीं करना चाहते। यह धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण उस धार्मिक सद्भाव को प्रतिबिम्बित करता है जो सहस्रों वर्षों से भारत फला फूला है।
"सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा की भावना को बढ़ावा देते हैं और चूँकि लालच और कामना इसमें बाधक बन सकते हैं, वे संतोष की भी सलाह देते हैं। ईश्वर द्वारा सृजन िकए जाने का अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के अंदर ईश्वर की चिनगारी है। यह एक शक्तिशाली अवधारणा है जो बौद्ध व्याख्या की बुद्ध प्रकृति से मेल खाता है। यदि आप इस तरह के विभिन्न दार्शनिक विचारों के उद्देश्य के बारे में प्रश्न करते हैं तो यह प्रेम और करुणा की भावना को बढ़ावा देना है।"
परम पावन ने दोहराया कि यदि हम धार्मिक व्यवहार में संलग्न होने का चयन करते हैं तो यह आवश्यक है कि हम उसे पूरी यह ईमानदारी से करें।
चाय के एक छोटे अंतराल के बाद, उन्होंने अपने मंतव्य की घोषणा की कि वह एक पद की व्याख्या करेंगे जो कभी कभी 'प्रतीत्य समुत्पाद के सार' के नाम से जाना जाता है। यह विनय से आता है और पालि और संस्कृत दोनों परंपराओं में पाई जाती है और प्रायः मंदिरों की दीवारों पर अंकित किया जा सकता है:
ये धर्मा हेतु प्रभवा हेतुम् तेषाम् तथागतो ह्यवदत्
तेषाम् च यो निरोध एवम् वादी महाश्रमणः।
सभी धर्म हेतुओं से उत्पन्न होते है,
और उन कारणों को तथागत ने ही बताया है,
उनका निरोध संभव है
ऐसा महाश्रमण (बुद्ध) ने कहा है।
यहाँ कारणों के निरोध का संदर्भ दुख के कारणों की समाप्ति से है।
"हम जिसकी खोज में है वह सुख है किन्तु हमारा सामना जिससे होता है वह दुख है क्योेंकि हम अज्ञान के प्रभाव में हैं। परिणाम स्वरूप हमें जिस की आवश्यकता है वह वस्तुओं की सही प्रकृति की अंतर्दृष्टि है। बुद्ध ने पीड़ा से मुक्त एक स्थिति को प्राप्त करने की संभावना को प्रकट किया। यह चार आर्य सत्य के शिक्षण और कार्य कारण के आधारभूत सिद्धांत की अवधारणा के अनुरूप है। हमारे कार्य सकारात्मक हैं अथवा नकारात्मक संपूर्ण रूप से हमारी प्रेरणा पर निर्भर करता है। क्रोध, विद्वेष और मोह जैसे क्लेश जो अज्ञान से बहुत अधिक संबंधित हैं का परिणाम दुख है।"
परम पावन ने अनुभवी अमेरिकी मनोवैज्ञानिक हारून बेक के साथ हई भेंट की बात की है जिसने उन्हें बताया कि जब हम क्रोध में होते हैं तो हमारे क्रोध की वस्तु पूर्ण रूप से नकारात्मक प्रतीत होती है, पर फिर भी वह नकारात्मकता ९०% मानसिक प्रक्षेपण। यह नागार्जुन ने जो बहुत पहले सिखाया था उससे मेल खाता है।
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परम पावन ने टिप्पणी की उन्हें क्लेश की संज्ञा इस कारण दी गई है क्योेंकि वे हमारे चित्त की शांति को भंग करते हैं और हानिकारक कार्य की ओर ले जाते हैं। तिब्बती शब्द में यह भावना निहित है कि ऐसा कुछ जो हमें दुखी करता है और जो हमारे िलए तथा दूसरों के िलए कठिनाइयाँ लाता है। दुख का परम कारण अज्ञान है जो कि वास्तविकता के संबंध में भ्रांति है। परन्तु किसी भी भ्रांति का सामना ज्ञान से संभव है फिर चाहे वह कितना ही प्रबल क्यों न जान पड़े, क्योंकि ज्ञान वास्तविकता पर आधारित है, जबकि अज्ञान का कोई आधार नहीं है। हम जैसे जैसे वास्तविकता से और अधिक परिचित होते जाते हैं अज्ञान क्षीण होता जाता है, जब तक कि यह पूरी तरह से िमट नहीं जाता। चित्त निर्मल साफ और तटस्थ है और जब यह करुणा के साथ संलग्न होता है तो यह सकारात्मक हो जाता है, पर जब यह क्रोध या मोह के साथ जुड़ता है तो नकारात्मक हो जाता है।
जब चित्त शोधन की बात आती है, परम पावन ने समझाया, कि एक बार आप एक स्तर तक पहुँच जाएँ तो इसकी निरंतरता के कारण नए सिरे से प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं है। दुख निरोध की संभावना तीसरे आर्य सत्य से मेल खाती है, मार्ग जिसमें श्रवण, मनन और ध्यान शामिल हैं। समझ को गहन करने के िलए हमें एकाग्र ध्यान की आवश्यकता है जिसके लिए सजगता महत्त्वपूर्ण है और वह शील पर निर्भर करता है। इसलिए यहाँ शील, ध्यान और प्रज्ञा तीन महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
संस्कृत परम्परा के अनुसार, द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा से है। यह २० खंडों में है जिसमें १००,००० पंक्तियों की, २५,००० पंक्तियों की, १८,००० पंक्तियों की, ८००० पंक्तियों की, २५०० पंक्तियों की, ७०० पंक्तियों की, ५०० पंक्तियों की, ३०० पंक्तियों की और २५ पंक्तियों की प्रज्ञा पारमिता, वज्रच्छेदिका सूत्र तथा हृदय सूत्र शामिल है। हृदय सूत्र में एक धारणी है, 'गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा' अथवा जाकर, जाकर, पार जाकर, पूर्ण रूप से पार जाकर, प्रबुद्धता का आधार रखो।'
परम पावन ने समझाया कि यह किस प्रकार आध्यात्मिक विकास के मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है। प्रथम दो शब्दंो में 'जाकर, जाकर - गते गते' क्रमशः संभार मार्ग और प्रयोग मार्ग का संदर्भ है। 'पारगते - परे जाकर' , दर्शन मार्ग की ओर संकेत करता है जिसमें द्वैत रहित शून्यता प्रत्यक्ष दृष्टिगत होती है। 'पूर्ण रूप से परे जाकर - पारसंगते' भावना मार्ग को संदर्भित करता है, 'जबकि प्रबुद्धता की नींव रखना - बोधि स्वाहा' अशैक्ष मार्ग को दर्शाता है। यहाँ प्रबुद्धता का अर्थ परोपकार से प्रेरित, बुद्ध के संबुद्धत्व के िलए, श्रावकों या प्रत्येक बुद्धों के मार्ग की प्राप्ति हो सकता है।
आधारभूत (हीनयान) तथा महायान में बोधिपाक्षिक के ३७ धर्म समान हैं जिनमें चार स्मृत्युपस्थान, चार सम्यक् प्रहाण तथा चार ऋद्धिपाद जिनका संबंध संभार मार्ग से है, पाँच इंद्रियाँ और पाँच बल जो प्रयोग मार्ग से संबंध रखती है, सात बोध्यंग जो दर्शन मार्ग से संबंध रखते हैं तथा आर्य अष्टांगिक मार्ग जो भावना मार्ग से संबंधित हैं। परम पावन ने पुनः समझाया कि आर्य अष्टांगिक मार्ग में सम्यक् आजीव, सम्यक् कर्मान्त तथा सम्यक् वाक् का संबंध शील से है, सम्यक् स्मृति तथा सम्यक् समाधि का संबंध ध्यान से है, जबकि सम्यक् दृष्टि तथा सम्यक् संकल्प का संबंध प्रज्ञा से है। उन्होंने कहा कि आर्य मार्ग प्राप्त करने हेतु आप प्रारंभ से दर्शन मार्ग को प्राप्त करने के लिए इन अभ्यासों को सम्मिलित कर लें। इसके लिए ईमानदारी और संतोष से अभ्यास करने की आवश्यकता है ।
उन्होंने दोहराया कि प्रबुद्धता का अर्थ मात्र क्लेशों से विमुक्ति अथवा बुद्धत्व की महान प्रबुद्धता हो सकता है जिनमें क्लेश अपने संस्कारों के साथ समाप्त हो जाते हैं।
चार आर्य सत्यों का आधार प्रतीत्य समुत्पाद है। इसे करणीय के रूप में भी समझाया जा सकता है जो सभी बौद्ध मार्गों में पाया जाता है अथवा अस्तित्व को मात्र ज्ञापित रूप में संदर्भित करना जो माध्यमक विवरण में पाया जाता है। अन्य कारकों पर आश्रित अस्तित्व और उसमें निहित अर्थ स्वतंत्र अस्तित्व का अभाव आज पाए जाने वाले क्वांटम भौतिकी की समझ जैसा दिखता है, पर पहले नागार्जुन द्वारा २००० वर्षों पूर्व बताया गया था।
परम पावन ने दिन का व्याख्यान यह कहते हुए समाप्त किया कि ः
"अब चाय का समय हो गया है, पुनः प्रातः ३ बजे उठकर विपश्यना ध्यान करते हुए चित्त की प्रकृति पर चिंतन है। यद्यपि सब कुछ ऐसा प्रतीत होता है मानो उनका स्वतंत्र अस्तित्व हो, पर यह स्मरण रखते हुए किसी का भी अस्तित्व इस रूप में नहीं है, एक ऐसी अनुभूति उत्पन्न करता है कि वस्तुएँ मायोपम हैं, जो कि क्लेशों के आधार को झकझोर देती है।"
परम पावन कल अपना प्रवचन जारी रखेंगे।