प्राग, चेक गणतंत्र, सितम्बर १५, २०१३ - होटल लॉबी से आज के प्रवचन स्थल के लिए जैसे ही वे गुज़रे, परम पावन दलाई लामा की भेंट तिब्बतियों के एक समूह से हुई, जो ऑस्ट्रिया में रहते हैं और जो कल उनका सार्वजनिक व्याख्यान सुनने आए थे। वे रात भर रुके थे और घर लौटने से पहले उन्हें देखने का अवसर ढूँढ रहे थे। उन्होंने कुछ मिनट लेकर उनसे तिब्बती बौद्ध परम्परा के मूल्य और सम्पन्नता की प्रशंसा की। उन्होंने इस पर बल दिया कि तिब्बती भाषा बुद्ध के वचनों के अर्थ को समझाने के लिए सबसे उचित है। इसलिए यह वास्तव में संरक्षण के योग्य है। इक्कीसवीं शती में बौद्धों के लिए पढ़ कर, अध्ययन कर बौद्ध धर्म को समझना आवश्यक है, उनके बारे में सोचे बिना, केवल प्रार्थना और मंत्र पाठ करना पर्याप्त नहीं। कई भावाकुल हो गए।
पोदविन्नीम्लिन एरीना में मंच पर अपना स्थान ग्रहण करने के बाद परम पावन ने अपना व्याख्यान प्रारंभ कियाः
“भाइयों तथा बहनों, हम सभी सुखी जीवन चाहते हैं और उसे पाने का हमें अधिकार है। चित्त से ही अंतर पड़ता है कि क्या हम वास्तव में सुखी हैं। इसलिए आज का व्याख्यान हम अपने चित्त को किस तरह बदल सकते हैं, पर है।”
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उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों ने पाया है कि करुणा हमारे चित्त की शांति में सहायक है, जो कि, आत्म विश्वास की ओर जाता है, जो हमें खुलकर, सच्चाई से और ईमानदारी से कार्य करने में सक्षम बनाता है। वह विश्वास की ओर ले जाता है, जो मैत्री की ओर ले जाता है और मैत्री सहयोग का आधार है। आगामी जीवन के विषय में स्वयं को चिंता में डाले बिना, हम इसी तरह, यहाँ और अभी, एक सुखी जीवन का निर्माण कर सकते हैं। सभी ७ अरब मनुष्यों को इस प्रकार के दृष्टिकोण की आवश्यकता है। बुद्ध ने एक सिद्धांतवादी निर्देश के स्थान पर अपने अनुयायियों के स्वभाव के अनुसार शिक्षा दी। ‘चित्त शोधन के आठ पदों’ में आए अधिकांश सलाह अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी पाए जाते हैं।
बौद्ध धर्म की दो धाराएँ हैं, पालि परम्परा और संस्कृत परम्परा। पालि परम्परा का मुख्य विषय है चार आर्य सत्यों की शिक्षा। बुद्ध की शिक्षा वास्तविकता पर आधारित है, जबकि हमारे क्लेश दृश्य और भ्रांतियों पर आधारित है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि यह वास्तविकता नहीं है। एक बार हम यह समझ लें कि तृतीय आर्य सत्य, निरोध, संभव है तो हम चतुर्थ आर्य सत्य, मार्ग की ओर मुड़ सकते हैं। प्राचीन भारतीय परम्परा, जिसका एक अंग बुद्ध की शिक्षा है, ने दृश्य और वास्तविकता में अंतर किया। बुद्ध ने दो सत्यों की देशना दी। उन्होंने उनकी शिक्षाओं को केवल उन पर श्रद्धा के कारण मानने के विरुद्ध सलाह दी, और अपने अनुयायियों को, जो कुछ भी उन्होंने कहा, उसे जाँचने और प्रयोग में लाने के लिए प्रोत्साहित किया।
बौद्ध धर्म चीन में ईसा की ३वीं शताब्दी के लगभग गया और तिब्बती सम्राट ने चीन के सम्राट के साथ अपने संबंध के कारण इसमें रुचि दिखाई। ८वीं शताब्दी में उन्होंने भारत में नालंदा विश्वविद्यालय में जो १०,००० भिक्षुओं का घर था, लोगों को भेजा। उन्होंने महान विद्वान, अच्छे भिक्षु, दार्शनिक, तीक्ष्ण तर्कशास्त्री और अभ्यासी शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया।
“कल्पना करें कि ऐसे आदरणीय वृद्ध व्यक्ति, जो ७० से अधिक आयु के थे, ने एक दूरदराज जगह से आए निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। वे आए और उन्होंने भारतीय बौद्ध ग्रंथों को तिब्बती में अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित किया और एक प्रयोग के रूप में प्रथम सात तिब्बतियों को भिक्षु के रूप में दीक्षित किया। यह उनकी करुणा और पहल का परिणाम है कि आज बौद्ध धर्म की व्यापक प्रस्तुति तिब्बती में है।”
११वीं शताब्दी में विक्रमशील के महान गुरु दीपंकर अतीश छोटे राज्यों में विभाजित तिब्बत के एक छोटे राज्य के राजा दवारा आमंत्रित किए गए। उनके मुख्य शिष्य डोमतोनपा थे, जिनके बाद पोतोवा और फिर शरावा और फिर इस छोटे ग्रंथ के लेखक लंगरी थंगपा।
बुद्ध ने शिक्षक के गुणों को समझाया कि उसे ज्ञान तथा अनुभव होना चाहिए। अपने जीवन के अंतिम दिनों में डोमतोनपा ने अपने शिष्यों को, ग्रंथों को अपना शिक्षक मानने की सलाह दी। इस ग्रंथ के आठ पदों में से सात का संबंध परोपकार के अभ्यास से है, जबकि अंतिम पद, दृष्टि अथवा प्रज्ञा से संबंधित है।
परम पावन ने भारत में एक अंतर्धर्म सम्मेलन के एक सूफी विद्वान के सुझाव का स्मरण किया कि सभी धार्मिक परम्पराएँ तीन प्रश्नों को संबोधित करती हैः आत्मा क्या है? क्या इसका कोई आरंभ है? और क्या इसका कोई अंत है?
“बुद्ध ने कहा कि जिस तरह रथ अपने अवयव, उसके पहिए, धुरी आदि, पर प्रज्ञप्त है, आत्मा के प्रज्ञप्ति का आधार हमारे काय और चित्त के पाँच स्कंध हैं। बौद्ध कहते हैं कि ऐसे आत्मा का कोई आरंभ नहीं होता। जहाँ तक उसके अंत का संबंध है, अधिकांश बौद्ध कहते हैं कि आत्मा अधिकतर चित्त के आधार पर प्रज्ञप्त होती है और चित्त की निरंतरता, जो उसके पूर्व के क्षणों से आती है, का कोई अंत नहीं होता।”
प्रातः सत्र के अंत तक परम पावन ने लोगों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित किया। एक का संबंध अवबोध को सीधे संप्रेषण से था, जिसका उत्तर उन्होंने आचार्य प्रज्ञावर्मा के ‘उदानवर्ग विवरण’ से एक पद का उद्धरण देते हुए कहाः
बुद्ध सत्त्वों के पाप पानी से नहीं धोते,
अपने हाथों से उनके दुःख दूर नहीं करते।
न ही अपने अवबोध को दूसरों पर स्थानांतरित करते,
वे शान्त धर्मता की देशना करते हैं, वही साधना है।।
“बुद्ध वही करते हैं,” उन्होंने कहा, “कि जैसी वस्तुएँ हैं वैसी समझाना। इसलिए धर्म और संघ भी शरण की वस्तुएँ हैं। असली रक्षक धर्म है क्योंकि वही उपाय है, जिससे हमें मुक्ति प्राप्त होती है। चूँकि धर्म भारत से आया, इसलिए ऐतिहासिक रूप से हम भारतीयों को अपना गुरु मानते हैं। मैं अकसर स्वयं को प्राचीन भारतीय विचारों – अहिंसा के संदेशवाहक के रूप में वर्णित करता हूँ।
एक और प्रश्नकर्ता ने पूछा, कि यदि कोई आत्मा नहीं, तो कौन निर्वाण को प्राप्त करता है? परम पावन ने स्पष्ट किया कि यह शून्यता को ठीक रूप से न समझने का संकेत है। उन्होंने कहा कि लोग प्रायः ऐसा सोचते हैं कि बौद्ध आत्मा के अस्तित्व को मानते ही नहीं, जो गलत है। मध्यमक वस्तुओं और घटनाओं को अन्य तथ्यों पर आश्रित के रुप में अस्तित्व को मानते हैं पर स्वाभाविक या स्वतंत्र अस्तित्व में नहीं।
दोपहर के भोजन के दौरान सह नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सूची, जो फोरम २००० मीटिग के लिए प्राग में हैं, ने परम पावन के दर्शन किए।
ग्रंथ की चर्चा पर लौटने पर, परम पावन ने दो परोपकारी उद्देश्यों का उल्लेख किया, पहला था, सभी सत्त्वों के लाभ के लिए कार्य करने की इच्छा और दूसरा, इस बात की पहचान करना, कि संपूर्ण ज्ञान के माध्यम से जो प्रबुद्धता प्राप्ति है, वही उनकी उचित ढंग से सहायता करना है।
“एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें मित्रों की आवश्यकता होती है। पर सच्चे मित्र डर से आकर्षित नहीं होते, पर स्नेह और करुणा से। अपनी बुद्धि के उपयोग से हममें अनगिनत सत्त्वों के प्रति करुणा का विकास करने की क्षमता है। दूसरों के प्रति चिंता स्वाभाविक तौर पर उनके प्रति सम्मान की भावना को जन्म देती है। यदि आप अपने शत्रुओं के प्रति सम्मान दिखाएँ, तो ऐसा संभव है कि वह आपका मित्र बन जाए; परन्तु हम इसी प्रकार अपने क्लेशों से सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकते।”
उन्होंने समझाया कि जब दूसरे लोग हमारा नुकसान करते हैं और कठिनाई में डालते हैं, तो ग्रंथ हमें सलाह देता है कि उनकी सहायता के लिए विशेष प्रयास किए जाएँ। यदि वह उसके बदले में आपको कठिनाइयाँ देते हैं, तो वह हमें उनके प्रति प्रेम और स्नेह का सुझाव देता है। परम पावन ने अपने ही अनुभव से एक उदाहरण दियाः
“२००८ में ल्हासा में संकट के दौरान मैंने सुना कि क्या हो रहा था और अधिकारियों की प्रतिशोध की संभावना को लेकर चिंतित था, मार्च १९५९ में जैसा अनुभव किया था उसी प्रकार की असहाय भावना। मैंने अपने सामने चीनी अधिकारियों की कल्पना की, और कल्पना की, कि उनसे सभी दुर्भावनाएँ लेकर उन्हें लाभ पहुँचाऊँ। निश्चित रूप से वास्तविक घटनाओं पर इससे कोई अंतर नहीं हुआ, पर मेरे लिए यह बहुत लाभकर था।”
परम पावन ने यह भी समझाया कि किस तरह श्वास पर ध्यान करना चित्त को स्थिर और तटस्थ करने में सहायक होता है। उन्होंने प्रदर्शित किया कि किस प्रकार श्वासाभ्यास की नौ आवृत्तियाँ की जा सकती हैं और श्रोताओं को उनके उदाहरण का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
ग्रंथ का अंतिम पद बताता है कि सभी अभ्यास, जो इसमें वर्णित किए गए वे आठ सांसारिक विचारों, जिनका संबंध प्रशंसा, फल इत्यादि से है, दूषित नहीं होने चाहिए। जब यह हमें वस्तुओं और घटनाओं को भ्रम के रुप में देखने की सलाह देता है, तो उसका संकेत उनके स्वभावशून्यता से है।
परम पावन ने इसके बाद श्रोताओं को एक सीधे सादे समारोह के माध्यम से त्रिरत्न में शरण और बोधिचित्तोत्पाद का परिचय कराया। उन्होंने पुनः ऐसे अवसर के आयोजन के लिए आयोजकों को धन्यवाद दिया और श्रोताओं से, जो कुछ भी उन्होंने सुना, उसे अपने जीवन को जीने में सम्मिलित करने के लिए प्रोत्साहित किया।